नए साल के तीसरे ही दिन मध्य प्रदेश के सागर जिले के एक गांव के एक किसान के आत्महत्या करने की कोशिश की खबर एक अँग्रेज़ी अखबार के पहले पन्ने पर दिखी। ढाई एकड़ की अपनी जमीन पर खेती करने के लिए इस किसान ने महज तीस हजार रुपयों का कर्ज लिया था। फसल पैदा नहीं होने के कारण उसे यह कठोर कदम उठाने की ओर अग्रसर होना पड़ा। यह खबर दुखद है।
स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में कभी पढ़ते थे कि खेती मानसून का जुआ है। कई बार यह सवाल भी परीक्षा में आता था कि खेती मानसून का जुआ है इस बात की व्याख्या कीजिए। इस सवाल की व्याख्या में केवल इस बात को लिखते थे कि यदि मौसम साथ न दे तो खेती में उपज पैदा नहीं होगी। इसी प्रमुख बात के इर्द-गिर्द अपनी बात कही जाती थी। लेकिन यह मानसून का जुआ अब वास्तव कई तरह से मुश्किल पैदा करने वाला हो गया है। आज किसान की हालात यह हो गई है कि पैदावार नहीं होने पर उसे आत्महत्या जैसे कदम भी उठाने के लिए मज़बूर होना पड़ रहा है।
खेती आज बहुत ही खर्चीला धन्धा हो गई है। जमीन में लगातार उर्वरक और कीटनाशक के इस्तेमाल के चलते जमीन की उर्वरा शक्ति लगातार कम होते जा रही है। और ऐसी स्थिति में उसके सामने एक ही विकल्प बचता है कि लगातार इन तत्वों की मात्रा बढ़ाते जाए। यानी खेती पर और और खर्च करते जाए। ऐसी स्थिति में यदि किसी भी प्राकृतिक कारण से यदि पैदावार नहीं हो पाती है तो फिर किसान का हाल क्या होगा इसे समझना बहुत कठिन है।
इस खर्चीली खेती से किसी तरह से हमें मुक्ति का रास्ता ढूँढना होगा। यह काम केवल सरकार अकेले के बस का नहीं है। इसमें किसान और सरकार तथा समाज सभी को एक साथ आकर रास्ते तलाशना पड़ेंगे।
शिवनारायण गौर,
भोपाल 5 जनवरी, 2016
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