भारत में गेहूं का उत्पादन लगभग 75 मिलिसल टन होता है। भारत का स्थान पूरे विश्व में गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में द्वितीय है। साथ ही चीन के बाद भारत गेहूं का सबसे बड़ाा उपभोक्ता भी है। 1960 में शुरू हुई हरित क्रांति के बाद गेहूं के मामले में हम किसी हद तक आत्मनिर्भर बने थे। परंतु जनसंख्या की वृध्दि 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही जिसके कारण खाद्यान्न की जरूरत साल दर साल बढ़ती गई। 1980-81 के बाद खाद्यान्न फसलों के क्षेत्र में वृध्दि रूक गई बल्कि खाद्यान्न के अलावा अन्य नकदी फसलों की पैदावार के कारण खाद्यान्न फसलों का क्षेत्र प्रतिवर्ष घटता गया। यह ठीक है कि 1950-51 में देश का खाद्यान्न उत्पादन 522 किलो प्रति हेक्टेयर था जो 1999-2000 में बढ़कर 1704 किलो प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गया।
देश की कृषि भूमि के 65 प्रतिशत हिस्से में खाद्यान्न फसलें होती हैं। जहां तक गेहूं का सवाल है इसका फसली क्षेत्र 35 प्रतिशत है। देश के दक्षिणी इलाकों मं गेहूं का उत्पादन नगण्य है। उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश गेहं उत्पादन के प्रमुख प्रदेश हैं। इके अलावा गुजरात और बिहार के कुछ इलाकों में गेहूं पैदा किया जाता है।
पैदावार के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो गेहूं के उत्पादन में प्रतिवर्ष गिरावट आ रही है जो कि चिंता का विषय है। जहां पंजाब और हरियाणा में गेहूं का उत्पादन 3660 किलो प्रति हेक्टेयर होता है वहीं मध्यप्रदेश मध्यप्रदेश और बिहार में 1625 किलो प्रति हेक्टेयर का औसत उत्पादन होता है। उत्पादन की इस खाई को पाटने के लिए सरकार के पास कोई ठोस नीति भी नहीं है और न ही शोध की कोई उपयुक्त व्यवस्था। इस वर्ष देश में 6 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन कम हुआ है जिसके कारण उपभोक्ताओं को अधिक मूल्य पर गेहूं खरीदना पड़ रहा है।
भारत सरकार ने विभिन्न खाद्यान्न फसलों और उनके उत्पादन को नियंत्रित करने, सहायता देने और कीमतों में स्थिरता लाने के मद्देनजर कृषि मूल्य और लागत आयोग, भारतीय खाद्य निगम, खाद्यान्न वितरण विभाग की स्थापना की थी। करीब 4 लाख उचित मूल्य की दुकानें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत स्थापित की गई। वितरण और संग्रह की प्रणाली काफी दोषपूर्ण रही है क्योंकि गेहूं का बड़ा हिस्सा पंजाब और हरियाणा से क्रय किया जाता है। परन्तु इसका वितरण पूरे देश में होता है। संग्रह का खर्च और वितरण के व्यवस्थागत खर्च में भौगोलिक विरोधाभास होने के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली कारगर साबित नहीं हुई है। ऐसी स्थिति में निजी क्षेत्र और व्यापारियों को लूट की काफी छूट मिली।
गेहूं के व्यापार का नियंत्रण अधिकतम 30 प्रतिशत सरकार के द्वारा होता रहा है परन्तु 70 प्रतिशत गेहूं का व्यापार निजी कंपनियों और व्यापारियों द्वारा होता है। चालू वर्ष में तो लगभग 95 प्रतिशत गेहूं निजी कंपनियों और व्यापारियों द्वारा खरीदा गया। गेहूं जो खाद्यान्न सुरक्षा में चावल के बाद दूसरे स्थान पर आता है, का व्यापार पूरी तरह से निजी कम्पनियों को सौंप देना कहां तक उचित है? गांव व शहरों के मजदूर तथा छोटे किसान गेहूं को खुले बाजार से खरीदते हैं। इस साल खुले बाजार में गेहूं की कीमत 1200 रुपए प्रति क्विंटल रही। राशन की दुकानों से पर्याप्त गेहूं न मिलने के कारण भी लोग बाजार पर निर्भर हैं।
केन्द्र सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य का पूरा ढांचा ही विवादास्पद है। आमतौर से पंजाब, हरियाणा के किसानों के उत्पादन के आंकड़ों के आधार पर समर्थन मूल्य घोषित होते हैं। भारत सरकार महंगी कीमत पर गेहूं का आयात तो कर सकती है परंतु देश के अंदर किसानों को उचित मूल्य देने में आनाकानी करती है। इस बार अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतें स्थानीय बाजार से काफी अधिक रहीं। अत्यावश्यक वस्तु कानून में ढिलाई देने के कारण भी गेहूं की जमाखोरी हुई। इस समय निजी गोदामों में भारी मात्रा में गेहूं है परंतु बाजार में इसकी उपलब्धता महंगे दामों पर है। एक प्रकार से नकली संकट भी पैदा किया गया है। गेहूं का आयात कहां से किया जाए-आस्ट्रेलिया से या अमेरिका से। इसको लेकर भी राजनैतिक दांवपेंच चलता रहता है। अमेरिकन कंपिनयों का अप्रत्यक्ष दबाव है कि गेहूं केवल उन्हीं से खरीदा जाए। यह भी पता चला हे कि जिस आस्ट्रेलियन कंपनी से भारत गेहूं आयात किया वही कंपनी भारत से गेहूं का निर्यात करती है।
गेहूं के आयात से 1125 अरब रुपए की विदेशी मुद्रा का बोझ सरकारी खजाने पर पड़ेगा। इन सब विसंगतियों को देखते हुए गेहूं पर एक ठोस नीति बनाने की जरूरत है तब ही हमारी खाद्यान्न सुरक्षा बरकरार रह सकती है।
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