कृषि क्षेत्र की सब्सिडी घटाने के लिए विकसित देशों के दबाव, विशेषज्ञों के सुझाव और भारतीय खाद एसोसिएशन की मंशाएं हम अक्सर सुनते रहते हैं, लेकिन कोई भी ऐसा पुख्ता विचार या फार्मूला अब तक सामने नहीं आया है कि सब्सिडी खत्म करके भारतीय किसानों की स्थिति बेहतर बनाई जा सकती है। जो भी अभिकरण सब्सिडी खत्म करने की वकालत करते हैं, उनके अपने लक्ष्य हैं, जो उनके मुनाफे का पोषण करते हैं। विकसित देश अपनी सब्सिडी के दम पर अपने कृषि उत्पादों से तीसरी दुनिया के देशों को पाट रहे हैं और वे नहीं चाहते कि गरीब देशों के किसान इस हालत में रह पाएं कि वे सही कीमत का अनाज उपजा सकें। खाद एसोसिएशन भी कहती रही है कि खाद पर सब्सिडी हटा दी जाए, ताकि वे भी खुले बाजार में कीमतों के उतार–चढा़व का स्वाद चख सकें। पर लाख टके की बात यह है कि जब विकसित देश भी अपनी कृषि के लिए बिना सब्सिडी का मैकेनिज्म विकसित नहीं कर पाए हैं और वे संरक्षणवादी नीतियां अपना रहे हैं, तो भारत सहित विकासशील देशों पर सब्सिडी हटाने का जोर क्यों दिया जा रहा है और विकसित देशों की द्विस्तरीय बात विकासशील देश क्यों माने। खेती में काम आने वाला सबसे बड़ा कच्चा माल खाद है, जिसके मैक्सिमम रिटेल प्राइस पर सरकार का नियंत्रण है, ताकि किसान उसे खरीदने की हिम्मत जुटा सकें। किंतु खाद का उत्पादन और वितरण महंगा है, तो खाद निर्माता को सब्सिडी देकर भरपाई की जाती है। एक विचार यह है कि खाद सहित सभी कृषि सब्सिडी पर सरकार नियंत्रण हटा दे। कीमत नियंत्रण भी समाप्त हो जाए और सब्सिडी का फायदा ऐसे किसानों तक सीधे पहुंचाया जाए, जिनको वाकई इसकी जरूरत हो। इससे कृषि क्षेत्र को मजबूत करने का नया रास्ता खुलेगा। कहा जाता है कि खाद पर सब्सिडी का फायदा किसानों के बजाय खाद निर्माताओं को होता है। सरकार सहित देश को पता है कि देश में 65 प्रतिशत लोग खेती–किसानी पर आश्रित हैं और करोड़ों किसानों को सीधे सब्सिडी देना बड़ा खर्चीला और भ्रष्टाचार को आमंत्रण देने वाला काम है। इसीलिए देश में खेती के लिए आवश्यक चीजों पर सब्सिडी का मॉडल अपनाया गया। अति विकसित देशों ने सब्सिडी के दम पर विश्व के कृषि बाजारों पर कब्जा किया हुआ है। इसलिए ही वे नो–सब्सिडी की वकालत करते हुए गरीब देशों से हर हाल में सब्सिडी हटा लेने का दबाव देते हैं। उत्पादन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, समर्थन मूल्य और निर्यात किसी भी स्तर पर दी जाने वाली सब्सिडी को वे हटवाने के लिए कई प्रकार के कूटनीतिक षडयंत्र भी करते हैं, क्योंकि वे विश्व को राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक तौर पर पहले से ही दुनिया पर कब्जा जमाए हुए हैं और अब वे जीवन के लिए नितांत आवश्यक खाघ निर्भरता में सेंध लगाकर दुनिया को ब्लेकमेल करना चाहते हैं, ताकि वे दुनिया के कानून अपने हिसाब से बनाने का कुचक्र जारी रख सकें। अगर विकसित देश अपनी सब्सिडी और आयात नियंत्रण का जंजाल खत्म कर दें, तो दुनिया का खाघ नक्शा रातोरात बदल जाए और दुनिया में ये देश एक दाना भी निर्यात न कर सकें, जो विश्व गेहूं व्यापार पर राज करते हैं। विकसित देशों में किसानों की संख्या कम है। इसलिए वहां की सरकारें इन किसानों को भरपूर सब्सिडी देती हैं। सब्सिडी के कारण इन देशों के किसानों का सस्ता गेहूं और अन्य मुख्य फसलें मुनाफे का सौदा है और वह वहां की सरकारों के कूटनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। पीएल 480 के दिनों में खाघ कूटनीति तीसरी दुनिया के लिए अमरीका और यूरोप का प्रमुख हथियार था। भारत के मुकाबले विकसित देशों में कृषि पर कहीं ज्यादा सब्सिडी दी जाती है। 1999 के दौरान एक करोड़ किसानों के लिए अमरीका में 54 अरब डालर, यूरोपीय यूनियन के देशों में 114।5 अरब डालर और जापान में 58।9 अरब डालर की सब्सिडी दी गई, जबकि भारत में 65 करोड़ किसानों के लिए यह केवल 7.2 अरब डालर ही रही, जो कृषि उत्पादन के मुकाबले अमरीका में 24 प्रतिशत, यूरोप में 49 प्रतिशत, जापान में 65 प्रतिशत और भारत में महज 6.5 प्रतिशत थी। उनकी सब्सिडी उनके खाघान्नों की कीमतें विश्व बाजार में 20 प्रतिशत तक कम रखने का काम करती है, जिससे तीसरी दुनिया के किसानों को खेती–किसानी से मुनाफा नहीं मिल पाता है। तिस पर तुर्रा ये कि यही देश खाघान्नों की कीमतें उद्देश्यपरक बनाने की बातें करते हैं। पश्चिमी यूरोप में 1970 के दौर में कॉमन एग्रीकल्चर पोलिसी के तहत मुख्य फसलों का समर्थन मूल्य ऊंचा रखा गया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विदेशी जिंस का मूल्य देसज जिंसों के मुकाबले ऊंचा रहे, ताकि विदेशी जिंस वहां के बाजार में कब्जा न कर सकें। इसके बाद वहां निर्यात पर सब्सिडी भी दी जाने लगी, ताकि वे अपना अतिरिक्त भंडार निर्यात कर सकें, जिसे एक्सपोर्ट एन्हांसमेंट प्रोग्राम कहा जाता है। धीरे–धीरे खाघ घाटे के क्षेत्र कृषि अर्थव्यवस्था बन गए। 1970 में यूरोप को खाघान्न आयात करने पडे़, लेकिन सब्सिडी और आयात नियंत्रण के चलते 1980 में वह खाघ स्वालंबी हो गया। 1986 में तो यूरोप का खाघान्न, मांस, चीनी और दुग्ध उत्पादों का निर्यात अमरीका से भी ज्यादा हो गया। पिछले कई सालों से हम देख रहे हैं कि जब से बहुराष्ट्रीय और निजी कंपनियों को गेहूं और अन्य खाघान्न के भंडारण व खरीद की छूट दी गई है, तब से हालत यह हो गई है कि देश का बफर स्टॉक भी पूरा नहीं हो पा रहा है। निजी कंपनियां गेहूं को खरीद रही हैं और सरकारी एजेंसियां मुंह तक रही हैं। नतीजा यह है कि सरकार ने इसी महीने साढे़ तीन लाख टन गेहूं के आयात की घोषणा की है। इसमें किसानों की गलती नहीं है, जो बेहतर कीमत मिलने पर निजी कंपनियों को माल बेच रहे हैं। यह तो सरकार को सोचना पड़ेगा कि वह किसानों को बेहतर मूल्य क्यों नहीं दे पा रही है। अगर विश्व बाजार में गेहूं 1100–1200 रूपये प्रति क्विंटल होगा और देश में उसी समय समर्थन मूल्य 850 रूपये होगा, तो 250–350 रूपये के अंतर को मुनाफे में तब्दील करने के लिए निजी कंपनियां कसरत क्यों नहीं करेंगी। उन्हें ऐसा करने से तभी रोका जा सकता है कि जब किसी भी जिंस की लिवाली के समय विश्व कीमतों और घरेलू कीमतों में 100–150 रूपये से ज्यादा का अंतर न हो। इतना मार्जिन निजी कंपनियों को आकर्षित नहीं करेगा, क्योंकि इतना अंतर तो भंडारण, कमीशन, परिवहन में ही खर्च हो जाएगा। यूरोप ने कॉमन एग्रीकल्चर पोलिसी के तहत जो काम 1970 में किया था, उसे सरकार ने अब करने की इच्छा जताई है कि गेहूं का समर्थन अब लगभग 1000 रूपये रहेगा, जो तकरीबन विश्व कीमतों के आस–पास ही होगा और निजी कंपनियों के लिए ज्यादा आकर्षक नहीं होगा। अगले लिवाली सीजन में इस समर्थन मूल्य के बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। यूरोप की तरह भारत को भी बेहतर समर्थन मूल्य ही नहीं, बल्कि सब्सिडी भी जारी रखनी होगी, ताकि सस्ते अनाज से हमारे बाजारों को पाटा न जा सके। उरूग्वे चक्र से अब तक की वार्ताओं में अमरीका और यूरोप की नीतियां पूरी तरह संरक्षणवादी रही हैं। फिर भी विकासशील देशों पर सब्सिडी खत्म करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी से राष्ट्रीय सुरक्षा और खाघ सुरक्षा के सरोकार जन्मे हैं। कृषि की सब्सिडी पर होने वाली अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में भारत को यह बात प्रमुखता से उठानी चाहिए कि किसानों और कृषि को सब्सिडी बंद किए जाने से अर्थव्यवस्था मजबूत हो जाती है, तो सबसे पहले विकसित देशों के किसानो को सब्सिडी बंद करने का मॉडल पेश करने की पहल करनी चाहिए, ताकि विकासशील देश उसका अनुसरण कर सकें। किंतु ऐसे प्रयोग गरीब देशों की धरती पर करने की कोशिशों को खारिज किया जाना चाहिए, जो हर सूरत में जानलेवा साबित होने वाली हैं। खाद, जल, बिजली, फसली बीमा और ग्रामीण क्षेत्रें में कोई भी निजी कंपनी सक्रिय नहीं होना चाहती, क्योंकि ये घाटे के सौदे हो सकते हैं, जबकि निजी कंपनियों का इंजन मुनाफे से चलता है। लेकिन सरकार के लिए मुनाफा मायने नहीं रखता। उसके लिए गरीबों व किसानों का संरक्षण ही सर्वोपरि होता है।इसलिए सब्सिडी जरूरी हो जाती है, जो सरकार की उच्चतम क्षमता पर निर्भर करती है। खाघ पदार्थ, खाद, बिजली और सिंचाई पर सब्सिडी 80 हजार करोड़ रूपये है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 11वी योजना के सिलसिले में सब्सिडी की समीक्षा पर भी जोर दिया है, किंतु कृषि की बात करते हुए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कृषि क्षेत्र की सब्सिडी से सीधा आम और गरीब आदमी का ताल्लुक है। एक आ॓र अमीर मुल्क अपने किसानों और उत्पादों को सब्सिडी दें और उन्हीं उत्पादों का हम खरीदें, क्योंकि वे सस्ते हैं और हम अपने किसानों को बर्बाद कर दें, क्योंकि उनकी लागत या उत्पाद मूल्य ज्यादा है। सस्ते खाघान्न की उलब्धता की मजबूरी की कीमत पर हम अपने किसानों की बर्बादी का नजारा देखना चाहते हैं।
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