उदारीकरण के दौर में जब से गांवों-कस्बों के शहरों में तब्दील होते जाने और औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, खेती-किसानी दिनोंदिन संकटों से घिरती गयी है. पिछले साल अक्तूबर में कृषि क्षेत्र की बदती मुश्किलों के मद्देनज़र देश में हरित क्रांति के जनक मानें जाने वाले कृषि वैज्ञानिक एम् एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने कई अहम सिफारिशें की थी. अब केन्द्र सरकार ने उन सिफारीशों को आधार बनाते हुए राष्ट्रीय किसान नीति को मंज़ूरी दे दी है. आयोग ने अपने मसौदे में भी साफ कहा था कि ग़ैर कृषि कार्यों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए खेती की ज़मीन की बली नहीं चढाई जाये और इसे संरक्षित रखने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन किया जाये. इसको ध्यान में रखते हुए खेती योग्य भूमि का उपयोग ग़ैर कृषि कार्यों के लिए न करने का भरोसा दिया गया है. साथ ही कहा गया है की उद्योग लगाने या खेती से इतर किसी और काम के लिए जितनी ज़मीन ली जाती है तो उतनी ही बंज़र और उसर भूमि को उपजाऊ बनाना अनिवार्य होगा, मगर सवाल है कि सरकार जिस तरह विकास के नाम पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों की अवधारणा को जल्दी से जल्दी व्यापक पैमाने पर फलता-फूलता देखना चाहती है, उसके चलते वह खेती योग्य ज़मीन को बचाने के आश्वासन पर कैसे अमल कर पायेगी.
ग्यारहवीं योजना में चार फीसदी कृषि विकास दर का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन अगर कृषि में लगे लोगों की आर्थिक दशा में सुधार न हो तो इस विकास की तस्वीर धुंधली होगी. पिछले डेढ़ दशक में देश में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें हैं. इस त्रासदी की वजह यही है कि खेती पुसाने लायक नहीं है और किसान कर्ज के दलदल में फंसते गए हैं. राष्ट्रीय किसान आयोग ने इस पर गहरी चिंता जतायी थी कि चूँकि खेती घाटे का धंधा हो गयी है, इसलिए कृषि की तरफ नई पीढ़ी का रुझान तेज़ी से घटता जा रहा है. दरअसल जब तक किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम मिलने की गारंटी नहीं होगी, तब तक खेती को आजीविका का मज़बूत आधार नहीं बनाया जा सकेगा. इसके प्रति लोगों को आकर्षित नहीं किया जा सकेगा. नई नीति में फसलों के उचित मूल्य दिलाने और आय के अन्य साधन मुहैया कराने की बात कही गयी है. साथ ही रियायती दरों पर क़र्ज़ की व्यवस्था कराने के लिए ग्रामीण बैंकिंग प्रणाली को मज़बूत करने की ज़रूरत बताई गयी है. उन्नत बीजों के अभाव और खाद कीटनाशकों का सही इस्तेमाल नहीं होने के चलते हर साल बडे पैमानें पर फसलें मारी जाती हैं. मगर भूमि की उर्वरा शक्ति बढाने और खेती के लिए सिचाई जैसे बुनियादी धंधे को मज़बूत करते समय कोशिश इस बात कि होनी चाहिए कि स्वदेशी तकनीकों के आधुनिकीकरण और उनके उपयोग को ज्यादा से ज्यादा बढावा दिया जाये. नयी किसान नीति से कृषि क्षेत्र और किसानों कि दशा में सुधार की उम्मीद की जानी चाहिए, लेकिन यह सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि वह कितनी तत्परता से इस पर अमल कर पाती है.
सम्पादकीय जनसत्ता, 26/11/2007
ग्यारहवीं योजना में चार फीसदी कृषि विकास दर का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन अगर कृषि में लगे लोगों की आर्थिक दशा में सुधार न हो तो इस विकास की तस्वीर धुंधली होगी. पिछले डेढ़ दशक में देश में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें हैं. इस त्रासदी की वजह यही है कि खेती पुसाने लायक नहीं है और किसान कर्ज के दलदल में फंसते गए हैं. राष्ट्रीय किसान आयोग ने इस पर गहरी चिंता जतायी थी कि चूँकि खेती घाटे का धंधा हो गयी है, इसलिए कृषि की तरफ नई पीढ़ी का रुझान तेज़ी से घटता जा रहा है. दरअसल जब तक किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम मिलने की गारंटी नहीं होगी, तब तक खेती को आजीविका का मज़बूत आधार नहीं बनाया जा सकेगा. इसके प्रति लोगों को आकर्षित नहीं किया जा सकेगा. नई नीति में फसलों के उचित मूल्य दिलाने और आय के अन्य साधन मुहैया कराने की बात कही गयी है. साथ ही रियायती दरों पर क़र्ज़ की व्यवस्था कराने के लिए ग्रामीण बैंकिंग प्रणाली को मज़बूत करने की ज़रूरत बताई गयी है. उन्नत बीजों के अभाव और खाद कीटनाशकों का सही इस्तेमाल नहीं होने के चलते हर साल बडे पैमानें पर फसलें मारी जाती हैं. मगर भूमि की उर्वरा शक्ति बढाने और खेती के लिए सिचाई जैसे बुनियादी धंधे को मज़बूत करते समय कोशिश इस बात कि होनी चाहिए कि स्वदेशी तकनीकों के आधुनिकीकरण और उनके उपयोग को ज्यादा से ज्यादा बढावा दिया जाये. नयी किसान नीति से कृषि क्षेत्र और किसानों कि दशा में सुधार की उम्मीद की जानी चाहिए, लेकिन यह सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि वह कितनी तत्परता से इस पर अमल कर पाती है.
सम्पादकीय जनसत्ता, 26/11/2007
1 comment:
बहुत सही कहा आपने. किसानों की तरफ़ सरकार का ध्यान नाम मात्र भी नही रहा है. और जब तक न्यूनतम समर्थन मूल्यों मे वृद्धि का रास्ता अपनाकर सरकार किसानों की मदद नही करेगी तबतक इस स्थिति मे सुधार की कोई गुजाइश भी नही है. और इस पर सरकार तर्क देती है कि इससे महंगाई बढेगी पर ये एक अर्ध सत्य है और जो महंगाई बढेगी उससे प्रभावित केवल शहरी इलाका ही होगा. लेकिन इस कदम को ना उठाने का दूरगामी प्रभाव सरकार को क्या नही दिख रहा कि अगर न्यूनतम समर्थन मूल्यों मे वृद्धि नही होती है तो पहले उससे ग्रामीण इलाका प्रभावित होता है और फ़िर यही प्रभाव बढ़ते-बढ़ते शहर तक पंहुचता है पर ये सब तो उस कथित उदारीकरण का नतीजा है और सब विश्व बैंक और अमेरिका के समर्थन पर हो रहा है.
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