खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Thursday, January 3, 2008

किसानों का संकट और राष्ट्रीय कृषि नीति

चन्द्रशेखर साहू
उदारीकरण के दौर में जब से गांवों-कस्बों के शहरों में तब्दील होते जाने और औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, खेती-किसानी दिनोंदिन संकटों से घिरती गई है। पिछले साल अक्टूबर में कृषि क्षेत्र की बढ़ती मुश्किलों के मद्देनजर देश में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने कई अहम् सिफारिशें की थीं। अब केन्द्र सरकार ने उन सिफारिशों को आधार बनाते हुए नई राष्ट्रीय किसान नीति को मंजूरी दे दी है। आयोग ने अपने मसौदे में साफ कहा था कि गैर-कृषि कार्यों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए खेती की जमीन की बलि नहीं चढ़ाई जाए और इसे संरक्षित रखने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन किया जाए। इसको ध्यान में रखते हुए खेती योग्य भूमि का उपयोग गैर कृषि कार्यों के लिए न करने का भरोसा दिया गया है। साथ ही कहा गया है कि उद्योग लगाने या खेती से इधर किसी और काम के लिए जितनी जमीन ली जाती है तो उतनी ही बंजर और ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाना अनिवार्य होगा। मगर सवाल है कि सरकार जिस तरह विकास के नाम पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों की अवधारणा को जल्दी से जल्दी व्यापक पैमाने पर फलता-फूलता देखना चाहती है, उसके चलते वह खेती योग्य जमीन को बचाने के आश्वासन पर कैसे अमल कर पाएगी। ग्यारहवीं योजना में चार फीसदी कृषि विकास दर का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन अगर कृषि में लगे लोगों की आर्थिक दशा में सुधार न हो तो इस विकास की तस्वीर धुंधली होगी। पिछले डेढ़ दशक में देश में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस त्रासदी की वजह यही है कि खेती सुधरने लायक नहीं है और किसान कर्ज के दलदल में फंसते गए हैं। राष्ट्रीय किसान आयोग ने इस पर गहरी चिंता जताई थी कि चूंकि खेती घाटे का धंधा हो गई है, इसलिए कृषि की तरफ नई पीढ़ी का रुझान तेजी से घटता जा रहा है। दरअसल, जब तक किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम मिलने की गारंटी नहीं होगी, तब तक खेती को आजीविका का मजबूत आधार नहीं बनाया जा सकेगा। इसके प्रति लोगों को आकर्षित नहीं किया जा सकेगा। नई नीति में फसलों के उचित मूल्य दिलाने और आय के अन्य साधन मुहैया कराने की बात कही गई है। साथ ही रियायती दरों पर ऋण की व्यवस्था कराने के लिए ग्रामीण बैंकिंग प्रणाली को मजबूत करने की जरूरत बताई गई है। उन्नत बीजों के अभाव और खाद या कीटनाशकों का सही इस्तेमाल नहीं होने के चलते हर साल बड़े पैमाने फसलें मारी जाती हैं। इस लिहाज से किसान बीज कंपनी बनाने का प्रस्ताव स्वागत योग्य है। मगर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने और खेती के लिए सिंचाई जैसे बुनियादी ढांचे को मजबूत करते समय कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि स्वदेशी तकनीकों के आधुनिकीकरण और उनके उपयोग को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए। नई किसान नीति से कृषि क्षेत्र और किसानों की दशा में सुधार की उम्मीद की जानी चाहिए, लेकिन यह सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि वह कितनी तत्परता से इस पर अमल कर पाती है। हाल ही में विश्व बैंक द्वारा जारी की गई विश्व विकास रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि जब तक कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश में बढ़ोतरी नहीं होगी और उनकी अनदेखी जारी रहेगी, तब तक 2015 तक गरीबी और भुखमरी को आधा करने के अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य की पूर्ति नहीं होगी। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री फांस्वा बुर्जोइग्नोन के अनुसार गरीबी दूर करने के लिए कृषि क्षेत्र की अनोखी शक्ति का विस्तार किया जाना बहुत जरूरी है। वैसे तो अनेक राज्यों ने विभिन्न मंचों पर घोषणाएं और नीतियों के क्रियान्वयन के माध्यम से किसानों की समस्याओं को हल करने की दिशा में कदम बढ़ाए, लेकिन आधे-अधूरे मन से किए गए प्रयासों और अन्य वर्गों के निहितार्थ अति सक्रियता ने ऐसी स्थितियां निर्मित कर दी है कि ग्लोबल मीट की तर्ज पर किसानों का भी वैश्विक स्तरीय सम्मेलन हो। ज्ञातव्य है कि विश्व बैंक के अनुसार भारत में करीब 20 करोड़ लोग पूर्णत: भूमिहीन हैं तो 11.5 करोड़ लोगों के पास एक हैक्टेयर से भी कम भूमि है। 1975, 1996 और 1999 में बनाए गए दो भू-अधिकार संबंधी कानून लागू किया गया है। हैरत की बात तो यह है कि हदबंदी कानून के अंतर्गत 76 प्रतिशत भूमि का वितरण ही नहीं हुआ है। पिछले 60 वर्षों में देश में तथाकथित भूमि सुधार के 272 कानून और संवैधानिक संशोधन विधेयक पारित हुए, लेकिन वंचितों को भूमि हदबंदी का लाभ नहीं मिला। यद्यपि अनेक राज्यों ने सिंचित क्षेत्र बढ़ाने के लिए अनेक बड़ी, मंझली और छोटी योजनाओं की शुरूआत की है, लेकिन आज स्थिति यह है कि देश का सिंचित क्षेत्र 20 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ पाया है। इतना ही नहीं नदियों के किनारे लड़े जा रहे अनेक जल महाभरतों ने पंजाब और हरियाणा, आंध्रप्रदेश में कृष्णा नदी की तेलुगु गंगा नहर के विवाद तथा तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच पानी के बंटवारे की समस्याओं को उलझा दिया है।

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