सुरेंद्र कुमार शर्मा
भूरिया ने पिछले दिनों लोकसभा के एक सवाल के जवाब में बताया कि देश में बारह करोड़ तिहत्तर लाख किसान और दस करोड़ सड़सठ लाख खेतिहर श्रमिक हैं।
केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री कांति लाल दुर्भाग्य से देश में लगभग आधे यानी 48.6 प्रतिशत किसान परिवार कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। राज्यवार आंकड़ों को देखें तो आंध्र प्रदेश में सर्वाधिक बयासी फीसदी किसान परिवार कर्जदार हैं। इसके बाद तमिलनाडु में 75.5, पंजाब में 65.4, कर्नाटक में 61.6, महाराष्ट्र में 64.4, राजस्थान में 52, बिहार में 51.6, उत्तरप्रदेश में 51 और मध्यप्रदो में 50 फीसद किसान परिवार कर्ज के बोझ तले करा रहे हैं।
पिछले साल डेढ़ साल में किसानों की खुदकुशी के इतने ज्यादा मामले सामने आए हैं कि दिल दहल उठता है। हैरत का विषय है कि किसानों के मसीहा कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के गृह जिले हासन में किसानों की खुदकुशी के सर्वाधिक मामले सामने आए। केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों को ही लें तो कर्नाटक में वर्ष 2006-2007 में तीन सौ उनतालीस मामले हासन जिले के हैं।
महाराष्ट्र के विदर्भ इलाकों में जब कर्ज में बेतरह फंसे किसानों ने निराशा हताशा में आकर ताबड़तोड़ आत्महत्याएं कीं तो इससे चिंतित केन्द्र सरकार ने पिछले वर्ष जुलाई में 3750 अरब रुपए से ज्यादा के पैकेज की घोषणा की, मगर उसक ेबाद से तकरीबन सोलह सौ किसान खुदकुशी कर चुके हैं। विदर्भ के ग्यारह जिलों में लगभग सत्रह लाख किसान हैं जो मुख्य रूप से कपास की खेती पर आश्रित हैं, लेकिन सरकार की वसंगति र्पूण् कपास नीतियों के चलते उनकी हालत बिगड़ती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि केवल दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में कर्ज में डूबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। देश के मध्य क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों में भी पिछले एक साल के भीतर दर्जन भर किसाने ने सल्फास खाकर या दूसरे तरीके अपना कर मौत को गले लगा लिया। मालवा क्षेत्र के छह जिलों में झाबुआ, धार, खरगौन, बड़वानी, खण्डवा और रतलाम के किसानों ने तो कुछ समय पूर्व अपने दर्द को लेकर न सिर्फ भोपाल में दस्तक दी थी, बल्कि तात्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को पत्र लिखकर आत्महत्या करने की अनुमति तक मांगी थी।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने हर जिले में गोकुल ग्राम योजना क्रियान्वित की थी, जिसके तहत केवल शहडोल जिले में ढाई सौ किसानों को पांच सौ से ज्यादा हरियाणवी नस्ल की गाएं वितरित की गई। गोकुल ग्रामों में वितरित इन गायों में लगभग नब्बे फीसद असमय काल के गाल में समा गईं। दो गायों की यूनिट मानकर प्रत्येक हितग्राही को स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना के तहत तैंतीस हजार का कर्ज स्वीकृत कराया गया। इसमें पन्द्रह हजार रुपए का अनुदान दिया गया, तब भी प्रत्येक हितग्राही बैंक का अठारह हजार रुपए का कर्जदार बन गया। असल में पिछले दो वर्षों में किसानों की माली हालत सुधारने के बजाय और बिगड़ती चली गई। कर्ज की राशि दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और यही स्थित रही तो किसानों को जमीन जायदाद भी बचने पड़ सकती हैं। इस प्रकार योजना तो विफल हुई, किसानों को भी जिंदगी भर के लिए कर्जदार बना दिया।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वीकार करते हैं कि राज्य में किसानों की स्थिति अच्छी नहीं है। इसीलिए उन्होंने ऋण वसूली पर रोक लगा दी है। इसके बावजूद ऋण अदायगी न करने वाले किसानों के टै्रक्टर आदि कुर्क करने के समजाचार मिले हैं।
एक तरफ देश के तकरीबन आधे किसान कर्ज के बोझ तले इस कदर दबे हैं कि कोई रास्ता न देख आत्मघाती कदम उठा रहे हैं, वहीं देश में शहरीकरण के चलते कृषि भूमि कम होती जा रही है। वर्ष 2001-2002 में जहां कृषि योग्य भूमि अठारह करोड़ इकतीस लाख चालीस हजार हेक्टेयर थी, वहीं वर्ष 2005-2006 में घट कर अठारह करोड़ पच्चीस लाख सत्तर हजार रह गई। अब तो कृषि योग्य भूमि को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की साजिस भी रची जा रही है। नंदीग्राम और सिंगूर में भीषण रक्तपात के बाद सरकार ने किसानों की भूमि जबरिया न लेने और उन्हें मुआवजे के रूप में उचित धनराशि देने का निश्चय किया था। पर इस आशय का प्रस्ताव कैबिनेट में नहीं आ सका।
बहरहाल, कृषि प्रधान देश भरत में कृषि के धंधे में लगे कृषकों की ऐसी दुर्दशा हमारे विकास और आर्थिक समृध्दि के दावों की पोल खोलती है। जिस देश के सत्तर फीसद लोग खेती पर आश्रित हों, अन्नदाता कहे जाने वाले आधे किसान खुद कर्ज के दलदल में फंसे हुए हों, दो जून की रोटी के लिए मोहताज और निराश होकर आत्महत्या कर रहे हों, उस देश की भावी तस्वीर कैसी होगी, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ,
भूरिया ने पिछले दिनों लोकसभा के एक सवाल के जवाब में बताया कि देश में बारह करोड़ तिहत्तर लाख किसान और दस करोड़ सड़सठ लाख खेतिहर श्रमिक हैं।
केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री कांति लाल दुर्भाग्य से देश में लगभग आधे यानी 48.6 प्रतिशत किसान परिवार कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। राज्यवार आंकड़ों को देखें तो आंध्र प्रदेश में सर्वाधिक बयासी फीसदी किसान परिवार कर्जदार हैं। इसके बाद तमिलनाडु में 75.5, पंजाब में 65.4, कर्नाटक में 61.6, महाराष्ट्र में 64.4, राजस्थान में 52, बिहार में 51.6, उत्तरप्रदेश में 51 और मध्यप्रदो में 50 फीसद किसान परिवार कर्ज के बोझ तले करा रहे हैं।
पिछले साल डेढ़ साल में किसानों की खुदकुशी के इतने ज्यादा मामले सामने आए हैं कि दिल दहल उठता है। हैरत का विषय है कि किसानों के मसीहा कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के गृह जिले हासन में किसानों की खुदकुशी के सर्वाधिक मामले सामने आए। केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों को ही लें तो कर्नाटक में वर्ष 2006-2007 में तीन सौ उनतालीस मामले हासन जिले के हैं।
महाराष्ट्र के विदर्भ इलाकों में जब कर्ज में बेतरह फंसे किसानों ने निराशा हताशा में आकर ताबड़तोड़ आत्महत्याएं कीं तो इससे चिंतित केन्द्र सरकार ने पिछले वर्ष जुलाई में 3750 अरब रुपए से ज्यादा के पैकेज की घोषणा की, मगर उसक ेबाद से तकरीबन सोलह सौ किसान खुदकुशी कर चुके हैं। विदर्भ के ग्यारह जिलों में लगभग सत्रह लाख किसान हैं जो मुख्य रूप से कपास की खेती पर आश्रित हैं, लेकिन सरकार की वसंगति र्पूण् कपास नीतियों के चलते उनकी हालत बिगड़ती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि केवल दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में कर्ज में डूबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। देश के मध्य क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों में भी पिछले एक साल के भीतर दर्जन भर किसाने ने सल्फास खाकर या दूसरे तरीके अपना कर मौत को गले लगा लिया। मालवा क्षेत्र के छह जिलों में झाबुआ, धार, खरगौन, बड़वानी, खण्डवा और रतलाम के किसानों ने तो कुछ समय पूर्व अपने दर्द को लेकर न सिर्फ भोपाल में दस्तक दी थी, बल्कि तात्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को पत्र लिखकर आत्महत्या करने की अनुमति तक मांगी थी।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने हर जिले में गोकुल ग्राम योजना क्रियान्वित की थी, जिसके तहत केवल शहडोल जिले में ढाई सौ किसानों को पांच सौ से ज्यादा हरियाणवी नस्ल की गाएं वितरित की गई। गोकुल ग्रामों में वितरित इन गायों में लगभग नब्बे फीसद असमय काल के गाल में समा गईं। दो गायों की यूनिट मानकर प्रत्येक हितग्राही को स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना के तहत तैंतीस हजार का कर्ज स्वीकृत कराया गया। इसमें पन्द्रह हजार रुपए का अनुदान दिया गया, तब भी प्रत्येक हितग्राही बैंक का अठारह हजार रुपए का कर्जदार बन गया। असल में पिछले दो वर्षों में किसानों की माली हालत सुधारने के बजाय और बिगड़ती चली गई। कर्ज की राशि दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और यही स्थित रही तो किसानों को जमीन जायदाद भी बचने पड़ सकती हैं। इस प्रकार योजना तो विफल हुई, किसानों को भी जिंदगी भर के लिए कर्जदार बना दिया।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वीकार करते हैं कि राज्य में किसानों की स्थिति अच्छी नहीं है। इसीलिए उन्होंने ऋण वसूली पर रोक लगा दी है। इसके बावजूद ऋण अदायगी न करने वाले किसानों के टै्रक्टर आदि कुर्क करने के समजाचार मिले हैं।
एक तरफ देश के तकरीबन आधे किसान कर्ज के बोझ तले इस कदर दबे हैं कि कोई रास्ता न देख आत्मघाती कदम उठा रहे हैं, वहीं देश में शहरीकरण के चलते कृषि भूमि कम होती जा रही है। वर्ष 2001-2002 में जहां कृषि योग्य भूमि अठारह करोड़ इकतीस लाख चालीस हजार हेक्टेयर थी, वहीं वर्ष 2005-2006 में घट कर अठारह करोड़ पच्चीस लाख सत्तर हजार रह गई। अब तो कृषि योग्य भूमि को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की साजिस भी रची जा रही है। नंदीग्राम और सिंगूर में भीषण रक्तपात के बाद सरकार ने किसानों की भूमि जबरिया न लेने और उन्हें मुआवजे के रूप में उचित धनराशि देने का निश्चय किया था। पर इस आशय का प्रस्ताव कैबिनेट में नहीं आ सका।
बहरहाल, कृषि प्रधान देश भरत में कृषि के धंधे में लगे कृषकों की ऐसी दुर्दशा हमारे विकास और आर्थिक समृध्दि के दावों की पोल खोलती है। जिस देश के सत्तर फीसद लोग खेती पर आश्रित हों, अन्नदाता कहे जाने वाले आधे किसान खुद कर्ज के दलदल में फंसे हुए हों, दो जून की रोटी के लिए मोहताज और निराश होकर आत्महत्या कर रहे हों, उस देश की भावी तस्वीर कैसी होगी, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ,
जनसत्ता 30 नवम्बर, 2007
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