अशोक कुमार पाण्डेय
(देश के विकराल कृषि संकट और किसानों द्वारा की जानेवाली आत्महत्याओं को केंन्द्र में रखकर पी. साईनाथ की एक लेखमाला अंग्रेजी दैनिक द हिन्दू में 12 से 15 नवम्बर 2007 तक प्रकाशित हुई थी। लेख में दिए गए तथ्य स्तब्ध करने वाले हैं। साईंनाथ के अनुसार 1997 से 2005 तक के बीच देश भर में कुल 9,77,107 लोगों ने आत्महत्याएं कीं, जिनमें से 1,49,244 किसान थे - यानि 15 प्रतिशत से भी ज्यादा! प्रस्तुत लेख इसी लेखमाला पर आधारित है।)
दो अंकों वाली विकास दर के चतुर्दिक कोलाहल में यह तथ्य विचलित कर देने वाला लगता है कि नई आर्थिक नीतियों के आरंभिक दौर से अब तक, लगभग पूरे दशक में एक विकास दर ऐसी रही जो न केवल दो अंकों वाली रही है अपितु बदलती सरकारों के बीच आर्थिक उदारीकरण तथा निजीकरण की तरह ही लगातार अबाध रूप से बढ़ती भी रही है - यह है, कृषक आत्महत्या विकास दर! अब तक सारे जनपक्षधर राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता तथा बुध्दिजीवी विभिन्न अखबारी सूचनाओं तथा छिटपुट कार्यदलों की रिर्पोंटों के आधार पर देश भर में भयावह तथा संक्रामक कृषि संकट की उपस्थिति की बात कर रहे थे लेकिन उदारीकरण के समर्थक इसे बढ़ा चढ़ाकर कही गई निराशावादी बातें तथा खुशहाल भविष्य के रास्ते में कुछ फौरी संकट बताकर खारिज करते रहे, परन्तु पिछले दिनों मद्रास इंस्टीटयूट आफ डेवलपमेंटल स्टडीज के नागराज द्वारा राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के गत वर्षों में भारत में दुर्घटना तथा आत्महत्या से होने वाली मौतों पर जारी आधिकारिक आंकड़ों के आधार पर किसानों की आत्महत्या से संबध्द अध्ययन ने इस भयावह तथ्य पर एक और मुहर लगा दी है। अध्ययन के निष्कर्ष विचलित कर देने वाले हैं। अगर आंकड़ों की बात करें तो 1997 से 2005 के बीच कुल 97,7107 लोगों ने खुदकुशी की जिसमें 1,49,244 किसान थे -यानि 15 प्रतिशत से भी ज्यादा! 1997 में यह आंकड़ा 14.2 प्रतिशत था जो लगातार बढ़ता हुआ 2004 में 16 और फिर थोड़ा नीचे आकर 2005 में 15 प्रतिशत हो गया। इस वृध्दि दर को और गहराई से समझने के लिए नागराज आत्महत्याओं की वार्षिक चक्रवृध्दि दर का प्रयोग करते हैं। यह दर इस पूरे दौर (1997से 2005) में जहां सभी प्रकार की आत्महत्याओं के लिए 2.18 प्रतिशत रही वहीं किसानों की आत्महत्याओं के संदर्भ में 2.91 प्रतिशत थी। अगर इसे इसी दौर की जनसंख्या वृध्दि दर (लगभग 2 प्रतिशत) से जोड़कर देखा जाए तो स्थिति की भयावहता और स्पष्ट हो जाती है। यहां एक और तथ्य जान लेना बेहद जरूरी है। आत्महत्याओं की वार्षिक चक्रवृध्दि दर किसानों तथा कीटनाशक पीकर खुदकुशी करनेवालों दोनों के लिए लगभग बराबर है (2.91 और 2.50 प्रतिशत)। यह साम्य कृषि क्षेत्र के कथित आधुनिकीकरण तथा बाजारीकरण के साथ कृषि संकट के रिश्ते की ओर इंगित करता है आगे इन आंकड़ों के राज्यवार विश्लेषण से यह बात और स्पष्ट हो जाती है।
नागराज इन नौ वर्षों में आत्महत्या करने वाले किसानों की इस आधिकारिक संख्या (लगभग 1.5 लाख) को भी वास्तविक नहीं मानते। इसके दो प्रमुख आधार हैं। पहला, आत्महत्या की प्राथमिकी दर्ज किए जाने के प्रारंभिक स्तर पर किसान शब्द की अत्यंत संकुचित परिभाषा अपनाई जाती है जिसके तहत भूमिहीन श्रमिकों, महिलाओं तथा कृषि कार्य में आंशिक रूप से संलग्न द्वितीयक किसानों को सम्मिलित नहीं किया जाता जबकि जनगणना के दौरान अपनाई जाने वाली परिभाषा काफी व्यापक है जिसमें प्राथमिक, द्वितीयक किसानों तथा कृषि श्रमिकों, सभी को किसान माना जाता है। ऐसे में आत्महत्या करने वाले किसानों की वास्तविक संख्या आधिकारिक आंकड़ों से कहीं अधिक हो सकती है। 2001 के लिए, जिस वर्ष जनगणना के कारण कृषि में संलग्न सभी उपसमूहों की अलग-अलग संख्याएं उपलब्ध हैं, केवल प्राथमिक कृषकों के संदर्भ में जब इन आंकड़ों की विवेचना की गई, तो कृषक आत्महत्या दर 15.8 प्रतिशत पाई गई जो सामान्य आत्महत्या दर से डेढ़ गुनी है। अन्य वर्षों के लिए कृषक उपसमूहों के पृथक आंकड़े उपलब्ध न होने के कारणा यह विवेचना संभव नहीं है लेकिन कृषि क्षेत्र से मोहभंग के कारण निरंतर घटती कुल किसानों की संख्या के बरअक्स इन आधिकारिक आंकड़ों की निरंतर वृध्दि की प्रकृति स्पष्टत: आत्महत्या करने वाले किसानों की वास्तविक संख्या में विस्फोट वृध्दि को दर्शाती है। इसके अलावा कुछ राज्यों, विशेषकर हरियाणा तथा पंजाब के बेहद कम आत्महत्याओं वाले आंकड़े वास्तविक अनुभवों तथा वहां सक्रिय कृषि संगठनों के पूर्व अध्ययनों की रोशनी में काफी अविश्सनीय से लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन राज्यों के पुलिस अभिलेखों में बड़े पैमाने पर आत्महत्याओं की घटनाओं को सामान्य मौतों की तरह व्यवहृत किया गया है। दरअसल ऐसी घटनाएं केवल इन्हीं राज्यों तक सीमित नहीं हैं, हां परिणाम अलग-अलग हो सकता है। ऐसे में इन आंकड़ों की गुणवत्ता पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह है। बहरहाल, अगर इन दोनों तथ्यों को थोड़ी देर के लिए नजरअंदाज कर दिया जाय तो भी जो तस्वीर उभरकर आती है दिल दहलाने के लिए काफी है।
इस परिघटना के संबंध में यह जान लेना भी जरूरी होगा कि यह संकट पूरे देश के स्तर पर एक तरह से व्याप्त नहीं है अपितु क्षेत्रीय तथा राज्यवार आधार पर इसमें काफी विषमता का यह अध्ययन इस परिघटना की मूलभूत प्रवृतियों को भी रेखांकित करता है।
नागराज ने इन आंकड़ों के आधार पर देश को चार समूहों में बांटा हैं समूह एक में वे राज्य हैं जहां सामान्य आत्महत्या दरें अत्यंत उंची हैं। इनमें क्रमश: केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा शामिल हैं। दूसरे समूह के राज्यों को उच्च कृषक आत्महत्या दर के आधार पर एक साथ रखा गया है और इसमें क्रमश: कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) तथा आंध्रप्रदेश शाामिल हैं। असम, गुजरात, हरियाणा तथा उड़ीसा तीसरे समूह में हैं, जहां दोनों दरें सामान्य स्तर पर हैं और चौथे समूह में बिहार (झारखण्ड सहित), हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान तथा उत्तरप्रदेश (उत्तराखंड सहित) शामिल हैं जहां दोनों दरें काफी कम हैं।
आगे का हिस्सा बाद में........(समयांतर से)
(देश के विकराल कृषि संकट और किसानों द्वारा की जानेवाली आत्महत्याओं को केंन्द्र में रखकर पी. साईनाथ की एक लेखमाला अंग्रेजी दैनिक द हिन्दू में 12 से 15 नवम्बर 2007 तक प्रकाशित हुई थी। लेख में दिए गए तथ्य स्तब्ध करने वाले हैं। साईंनाथ के अनुसार 1997 से 2005 तक के बीच देश भर में कुल 9,77,107 लोगों ने आत्महत्याएं कीं, जिनमें से 1,49,244 किसान थे - यानि 15 प्रतिशत से भी ज्यादा! प्रस्तुत लेख इसी लेखमाला पर आधारित है।)
दो अंकों वाली विकास दर के चतुर्दिक कोलाहल में यह तथ्य विचलित कर देने वाला लगता है कि नई आर्थिक नीतियों के आरंभिक दौर से अब तक, लगभग पूरे दशक में एक विकास दर ऐसी रही जो न केवल दो अंकों वाली रही है अपितु बदलती सरकारों के बीच आर्थिक उदारीकरण तथा निजीकरण की तरह ही लगातार अबाध रूप से बढ़ती भी रही है - यह है, कृषक आत्महत्या विकास दर! अब तक सारे जनपक्षधर राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता तथा बुध्दिजीवी विभिन्न अखबारी सूचनाओं तथा छिटपुट कार्यदलों की रिर्पोंटों के आधार पर देश भर में भयावह तथा संक्रामक कृषि संकट की उपस्थिति की बात कर रहे थे लेकिन उदारीकरण के समर्थक इसे बढ़ा चढ़ाकर कही गई निराशावादी बातें तथा खुशहाल भविष्य के रास्ते में कुछ फौरी संकट बताकर खारिज करते रहे, परन्तु पिछले दिनों मद्रास इंस्टीटयूट आफ डेवलपमेंटल स्टडीज के नागराज द्वारा राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के गत वर्षों में भारत में दुर्घटना तथा आत्महत्या से होने वाली मौतों पर जारी आधिकारिक आंकड़ों के आधार पर किसानों की आत्महत्या से संबध्द अध्ययन ने इस भयावह तथ्य पर एक और मुहर लगा दी है। अध्ययन के निष्कर्ष विचलित कर देने वाले हैं। अगर आंकड़ों की बात करें तो 1997 से 2005 के बीच कुल 97,7107 लोगों ने खुदकुशी की जिसमें 1,49,244 किसान थे -यानि 15 प्रतिशत से भी ज्यादा! 1997 में यह आंकड़ा 14.2 प्रतिशत था जो लगातार बढ़ता हुआ 2004 में 16 और फिर थोड़ा नीचे आकर 2005 में 15 प्रतिशत हो गया। इस वृध्दि दर को और गहराई से समझने के लिए नागराज आत्महत्याओं की वार्षिक चक्रवृध्दि दर का प्रयोग करते हैं। यह दर इस पूरे दौर (1997से 2005) में जहां सभी प्रकार की आत्महत्याओं के लिए 2.18 प्रतिशत रही वहीं किसानों की आत्महत्याओं के संदर्भ में 2.91 प्रतिशत थी। अगर इसे इसी दौर की जनसंख्या वृध्दि दर (लगभग 2 प्रतिशत) से जोड़कर देखा जाए तो स्थिति की भयावहता और स्पष्ट हो जाती है। यहां एक और तथ्य जान लेना बेहद जरूरी है। आत्महत्याओं की वार्षिक चक्रवृध्दि दर किसानों तथा कीटनाशक पीकर खुदकुशी करनेवालों दोनों के लिए लगभग बराबर है (2.91 और 2.50 प्रतिशत)। यह साम्य कृषि क्षेत्र के कथित आधुनिकीकरण तथा बाजारीकरण के साथ कृषि संकट के रिश्ते की ओर इंगित करता है आगे इन आंकड़ों के राज्यवार विश्लेषण से यह बात और स्पष्ट हो जाती है।
नागराज इन नौ वर्षों में आत्महत्या करने वाले किसानों की इस आधिकारिक संख्या (लगभग 1.5 लाख) को भी वास्तविक नहीं मानते। इसके दो प्रमुख आधार हैं। पहला, आत्महत्या की प्राथमिकी दर्ज किए जाने के प्रारंभिक स्तर पर किसान शब्द की अत्यंत संकुचित परिभाषा अपनाई जाती है जिसके तहत भूमिहीन श्रमिकों, महिलाओं तथा कृषि कार्य में आंशिक रूप से संलग्न द्वितीयक किसानों को सम्मिलित नहीं किया जाता जबकि जनगणना के दौरान अपनाई जाने वाली परिभाषा काफी व्यापक है जिसमें प्राथमिक, द्वितीयक किसानों तथा कृषि श्रमिकों, सभी को किसान माना जाता है। ऐसे में आत्महत्या करने वाले किसानों की वास्तविक संख्या आधिकारिक आंकड़ों से कहीं अधिक हो सकती है। 2001 के लिए, जिस वर्ष जनगणना के कारण कृषि में संलग्न सभी उपसमूहों की अलग-अलग संख्याएं उपलब्ध हैं, केवल प्राथमिक कृषकों के संदर्भ में जब इन आंकड़ों की विवेचना की गई, तो कृषक आत्महत्या दर 15.8 प्रतिशत पाई गई जो सामान्य आत्महत्या दर से डेढ़ गुनी है। अन्य वर्षों के लिए कृषक उपसमूहों के पृथक आंकड़े उपलब्ध न होने के कारणा यह विवेचना संभव नहीं है लेकिन कृषि क्षेत्र से मोहभंग के कारण निरंतर घटती कुल किसानों की संख्या के बरअक्स इन आधिकारिक आंकड़ों की निरंतर वृध्दि की प्रकृति स्पष्टत: आत्महत्या करने वाले किसानों की वास्तविक संख्या में विस्फोट वृध्दि को दर्शाती है। इसके अलावा कुछ राज्यों, विशेषकर हरियाणा तथा पंजाब के बेहद कम आत्महत्याओं वाले आंकड़े वास्तविक अनुभवों तथा वहां सक्रिय कृषि संगठनों के पूर्व अध्ययनों की रोशनी में काफी अविश्सनीय से लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन राज्यों के पुलिस अभिलेखों में बड़े पैमाने पर आत्महत्याओं की घटनाओं को सामान्य मौतों की तरह व्यवहृत किया गया है। दरअसल ऐसी घटनाएं केवल इन्हीं राज्यों तक सीमित नहीं हैं, हां परिणाम अलग-अलग हो सकता है। ऐसे में इन आंकड़ों की गुणवत्ता पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह है। बहरहाल, अगर इन दोनों तथ्यों को थोड़ी देर के लिए नजरअंदाज कर दिया जाय तो भी जो तस्वीर उभरकर आती है दिल दहलाने के लिए काफी है।
इस परिघटना के संबंध में यह जान लेना भी जरूरी होगा कि यह संकट पूरे देश के स्तर पर एक तरह से व्याप्त नहीं है अपितु क्षेत्रीय तथा राज्यवार आधार पर इसमें काफी विषमता का यह अध्ययन इस परिघटना की मूलभूत प्रवृतियों को भी रेखांकित करता है।
नागराज ने इन आंकड़ों के आधार पर देश को चार समूहों में बांटा हैं समूह एक में वे राज्य हैं जहां सामान्य आत्महत्या दरें अत्यंत उंची हैं। इनमें क्रमश: केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा शामिल हैं। दूसरे समूह के राज्यों को उच्च कृषक आत्महत्या दर के आधार पर एक साथ रखा गया है और इसमें क्रमश: कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) तथा आंध्रप्रदेश शाामिल हैं। असम, गुजरात, हरियाणा तथा उड़ीसा तीसरे समूह में हैं, जहां दोनों दरें सामान्य स्तर पर हैं और चौथे समूह में बिहार (झारखण्ड सहित), हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान तथा उत्तरप्रदेश (उत्तराखंड सहित) शामिल हैं जहां दोनों दरें काफी कम हैं।
आगे का हिस्सा बाद में........(समयांतर से)
1 comment:
आत्महत्या का अर्थ है कि व्यक्ति अपने जीवन से इतना निराश हो गया है कि वह मृत्यु को बेहतर समझता है । यह दुख की बात है, किन्तु मुझे आँकड़े कुछ समझ नहीं आए । जब भारत में अन्य आबादी के अनुपात में छोटे बड़े किसान अधिक संख्या में हैं या ये कहिये कि वे आबादी का १५ प्रतिशत हिस्सा तो होंगे ही तो क्या अपनी जान लेने वालों में उनका यह प्रतिशत होना स्वाभिक नहीं है ? क्या वे आबादी के १५% से कम हैं ?
घुघूती बासूती
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