पी. साईंनाथ
ग्रामीण भारत एक अजीब जगह है। तीन राज्यों को छोड़ दें तो हम 60 बरसों में कोई भी गम्भीर भूमि सुधार या काश्तकारी सुधार पूरा नहीं कर पाए हैं। लेकिन विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) हम छह महीने में पक्का कर सकते हैं। हमारी आजादी के छह दशकों में ढांचागत और अन्य असमानताएं गहराती गयी हैं, और आज ग्रामीण भारत जबर्दस्त संकट में है।
कुछ माह पहले एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के पहले पृष्ठ की सुर्खी ध्यान खींचने वाली थी। चंडीगढ़ के एक युवक ने एक फेंसी सैलफोन नंबर के लिए पन्द्रह लाख रुपए चुकाए थे। बाकी मीडिया को सक्रिय होने में ज्यादा देर नहीं लगी। शीघ्र ही हमने उसके माता पिता को अपने बेटे की उपलब्धि पर मिठाई बांटते देखा। अखबारों ने इस (मुख्यपृष्ठ) पर सम्पादकीय लिखे कि किस प्रकार यह घटना भारत के नए आत्मविश्वास को दिखाती है। आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के युग में हमारी आक्रामकता को दिखाती है।
इससे निश्चय ही कोई चीज तो दिखती है। एक वर्ग है जिसके लिए एक प्रमुख भारतीय पत्रिका विलास वस्तु खोज कर प्रस्तुत करनेवाले स्वयंसेवी के रूप में काम करना बिलकुल स्वाभाविक मानती है। इसके प्रकाशक का स्तम्भ उन्हें बताता है कि 1,15,000 डालर डिब्बों का एक सीमित संस्करण अब उपलब्ध है। 80 साल पुराने ऊंट की हड्डी से बने डिब्बों में जो कभी एक राजस्थानी राजा की मिल्कियत थे।
भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 15 लाख रुपए से बहुत दूर है और 1,15,000 डालर से तो और भी दूर। असल में यह 503 रु. है। यह ग्रामीण गरीबी रेखा से ज्यादा ऊपर नहीं है और यह राष्ट्रीय औसत है जिसमें विशाल भू-स्वामी और छोटे छोटे काश्तकार दोनों शमिल हैं। इसमें केरल जैसे राज्य भी शामिल है जिनका औसत राष्ट्रीय औसत से लगभग दो गुना है। केरल और पंजाब को हटा दें तो आंकड़ा और भी निराशाजनक हो जाएगा। बेशक, शहरी भारत में भी असमानता भरपूर है और बढ़ रही है पर जब आप ग्रामीण भारत पर नजर डालते हैं तो विषमता और भी तीखी हो जाती है।
इस 503 रुपए का 60 फीसदी आहार पर खर्च किया जाता है। 18 फीसदी ईंधन, कपड़ों और जूतों पर। बची हुई दयनीय रकम में से शिक्षा पर जो खर्च किया जाता है उसका दोगुना स्वास्थ्य पर किया जाता है अर्थात 17 और 34 रुपए। यह असंभावित है कि अनोखा सैलफोन नंबर खरीदना ग्रामीण भारतीयों के बीच एक बड़ा शौक बनकर उभरेगा। ऐसे असंख्य भारतीय परिवार हैं जिनके लिए यह आंकड़ा 503 नहीं बल्कि 225 रुपए है। ऐसे पूरे के पूरे राज्य हैं जिनका औसत गरीबी रेखा से नीचे पड़ता है। जहां तक भूमिहीनों का प्रश्न है उनकी विपत्तियां दहलाने वाली हैं।
ऐसा नहीं है कि असमानता हमारे लिए नयी या अनजानी है लेकिन जो चीज पिछले 15 सालों को अलग करती है वह है बेरहमी जिसके साथ इसे रचा गया है, यहां तक कि शिखर पर भी। जैसाकि अभिजित बनर्जी और थॉमस पिकैटी ने अपने आलेख टाप इंडियन इनकम्स 1956-2000 में लिखा है, धनवानों (चोटी का एक प्रतिशत) ने (आर्थिक सुधारों के सालों में ) सकल आय में अपना हिस्सा भारी मात्रा में बढ़ाया है लेकिन जहां 1980 के दशक में कमाई में उच्च आय वर्ग के सभी लोगों का हिस्सा था, वहीं 1990 के दशक में केवल चोटी के 0.1 प्रतिशत लोगों को जबर्दस्त फायदा हुआ।
1950 के दशक में चोटी के 0.01 फीसदी लोगों की औसत आमदनी बाकी पूरी आबादी की औसत आमदनी से 150-200 गुना अधिक थी। 1980 के दशक के शुरू में यह घटकर 50 गुने से भी कम हो गई। लेकिन 1990 के दशक के अंत में यह फिर बढ़कर 150-200 गुना हो गई। सारे संकेत यह दिखाते हैं कि तब से हालात और खराब हुए हैं।
मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (सीइओ) के वेतनों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दबे स्वर में की गई टिप्पणी पर उद्योग जगत की प्रतिकूल प्रतिक्रिया इस बात का संकेत हैं कि इन विशेषाधिकारों की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं। ज्यादातर अखबारों के सम्पादकीयों ने मनमोहन सिंह की बखिया उधेड़ दी। इसलिए यह विचित्र और गौरतलब है कि संपत्ति के केन्द्रीकरण पर हाल के दिनों में लिखे गए सबसे अच्छे आलेखों में एक मॉर्गन स्टेनली के कार्यकारी निदेशक का था (द इकानॉमिक टाइम्स, 9 जुलाई 2007)। चेतन अहया लिखते हैं, हम मानते हैं कि पिछले वर्षों में भूमण्डलीकरण और पूंजीवाद की प्रगति से प्रचलित आय की बढ़ती असमानता के कारण सामाजिक तनाव पैदा हुआ है। वह असमानता के बढ़ने से पैदा हुई सामाजिक चुनौती को चिंताजनक प्रवृति मानते हैं। वह यह भी पाते हैं कि अमीरी में असमानता का अंतर और भी ज्यादा है..... हमारे विश्लेषण के अनुसार पिछले चार वर्षों में संपत्ति में 10 खरब डालर (सकल राष्ट्रीय उत्पाद के 100 फीसदी से ज्यादा) की वृध्दि हुई है- और इस कमाई का अधिकांश हिस्सा आबादी के एक बहुत छोटे से टुकड़े में केन्द्रित हो गया है। जिन रास्तों पर हम चल रहे हैं उनका नतीजा अहया साहब सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के रूप में सही ही देख रहे हैं। जैसा कि किसानों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के मामले में सामने आ रहा है।
यह सब ग्रामीण भारत में मौजूद ढांचागत असमानता के कारण है। 60 वर्षों में हमने भूमि के प्रश्न का कभी समाधान नहीं किया। नहीं जंगल और जल के अधिकारो ंका। न ही भयावह जातीय एवं लैंगिक भेदभावों के ीायानक स्तरों का। वास्तव में हमने अपनी ढांचागत या अन्य असमानताओं पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। अब हम उन्हें बदतर बनाने के लिए हर चंद कोशिश कर रहे हैं।
आर्थिक सुधारों के प्रारंभ में भी नीचे के आधे ग्रामीण परिवारों के पास कुल भू स्वामित्व का केवल 3.5 प्रतिशत था। चोटी के दस प्रतिशत परिवारों के पास 50 प्रतिशत से भी अधिक भूमि थी। यह स्थिति सारी जमीन की थी। यदि हम केवल सिंचित जमीन का ही हिसाब करें तो तस्वीर और भी डरावनी है। इसमें उत्पादक परिसंपत्तियों को जोड़ दें तो हालत ओर भी बदतर हो जाती है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण्ा परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान हैं या छोटे किसान हैं। पिछले 15 वर्षों में ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो हालत को बेहतर बनाता। इसे बदतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया गया है।
कृषि नीति की दिशा - जो ग्रामीण भारत के लिए महत्वपूर्ण है - का केन्द्रीय विचार बिलकुल सीधा है। खेती को किसानों के हाथों से लेकर पूरी तरह से बड़े निगमों के हाथ सौंपना। हर कदम, हर नीति केवल इसी विचार को आगे बढ़ाती है। हम अपने इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन देख रह हैं। यह किसी बांध या खनन परियोजना में नही हो रहा हैं यह खेती में हो रहा है और हमें इसका जरा भी पता नहीं है कि उन लाखों लोगों को हम क्या करेंगे जिन्हें हम जमीन से बेदखल करते जा रहे हैं। यह टैंको या बुलउोजरों से नहीं किया जा रहा है। हम छोटे जोतदारों के लिए सिर्फ करना असंभव करते जा रहे हैं और हम उन लोगों को कोई वैकल्पिक साधन नहीं दे रहे हैं जिनकी आजीविका हम इतने उत्साह से नष्ट कर रहे हैं।
शुरुआती दशक कम से कम उम्मीद के दशक तो थे। साक्षरता, जीवन संभाविता, मानवि विकास संकेतकों में सुधार भले शानदार न हों महत्वपूर्ण तो थे। एक बोध था कि भारत अपने गांवों में बसता है। युध्दकाल में ही सही, जो नारा राष्ट्र की कल्पना में बसा, वह था जय जवान, जय किसान। माना जाता था कि किसान राष्ट्र के भविष्य का वाहक है। (मुख्यत: पुरुष, क्योंकि स्त्रियों को आज भी संपत्ति के अधिकारों से वंचित रखा गया है और उन्हें किसान नहीं माना जाता)। कम से कम ऐसी एक कल्पना तो थी।
साठ साल बाद ग्रामीण भारत बदहाल है। हरित क्रांति के बाद के सबसे प्रचंड कृषि संकट का प्रकोप जारी है पर यह विशिष्ट वर्ग और मीडिया का ध्यान ज्यादा देर नहीं खींच पाता। खेती में सरकारी निवेश बहुत समय पहले खत्म हो चुका है। गैर-कृषि रोजगार ने बढ़ना बन्द कर दिया है। गैर कृषिगत रोजगार अवरुध्द हो गया है। ( हाल के समय यमें केवल राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने कुछ सीमित राहत दी है) करोड़ों लोग कस्बों और शहरों की ओर जा रहे हैं। वहां भी कोई काम धंधा नहीं है। बहुत से लोग ऐसी हैसियत में पहुंच जाते हैं जो न तो किसान हैं न मजदूर। छोटे मोटे काम करने वालों और घरेलू नौकरों की भीड़ जाम हो रही है। (एक आकलन के अनुसार झारखण्ड की करीब दो लाख लड़कियां केवल दिल्ली में ही इस तरह के काम में लगी है। )
उधर ऋणों पर अंकुश ने लाखों किसानों को दिवालिएपन की ओर धकेल दिया है ंयह उन्हें जोखिमों से भरी ऊंची लागत वाली नगदी फसलों की ओर प्रोत्साहित, बल्कि धकेलने के बाद किया गया है। केरल में 2003-2004 में एक एकड़ वनीला उगाने में एक एकड़ धान उगाने की तुलना में 15 से 20 गुना ज्यादा लागत आती थी। इसके बावजूद किसानों को उकसाया गया। वनीला की कीमत रसातल पर पहुंच गई है और ऋण अनुपलब्ध हो गया है। ऐसे अनेक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।
हम वे कदम उठाने में भी नाकाम रहते हैं जिनकी अनुमति विश्व व्यापार संगठन जैसी घार पक्षपाती संस्था भी देती है। नतीजा यह होता है कि कपास जैसे उत्पादों का जो मूल्य हमारे किसानों को मिलता है, वह फसल के मौसम में गिर जाता है। अमेरिकी कपास पर मिलने वाले भारी अनुदान को - जिसकी वजह से केवल 2001-2002 में ही दस लाख से अधिक गांठों से हमारे बाजारो ंको पाट दिया गया - कोई चुनौती नहीं दी जाती। शुल्क नहीं बढ़ाए जाते। हम अपने गरीबों के हितों को 30,000 अतिरिक्त एच। बी बीजा के लिए खुशी से बेच देते हैं।
सरकार हमें बताती है कि 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बहुत ही कम आकलन के बावजूद यह आंकड़ा भी कम भयानक नहीं है। ये आत्महत्याएं कर्ज के कारण हुई हैं और नेशनल सेंपल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दो गुनी हो गई है।
ऐसा नहीं है कि कोई प्रतिरोध नहीं है, कोई आवाज नहीं उठाई जाती है। लोगों ने हर चुनाव में सरकारों को और हमें अपनी तकलीफें बताई हैं। विरोध पर विरोध हुए हैं। और कुछ अच्छी चीजें भी हुई हैं जैसे कि राष्ट्रीय ग्रामीण योजना। लेकिन व्यापक दिशा बहुत अभिभूतकारी है। और यही तेजी से महाविपत्ति की ओर अग्रसर है, विपत्ति तो आ ही चुकी है। लेकिन हमारी रुचि 15 लाख रुपए के सैलफोन नंबर में कहीं अधिक है। और हो सकता है कि इसमें कोई नुक्ता हो। फैंसी नंबर उधार के पैसो से खरीदा गया था। असमानता का हमारा तांडव उधार के समय में ही चल रहा है।
मूल लेख अंग्रेजी में द हिन्दु में प्रकाशित - अनुवाद: ओमप्रकाश (साभार : समयांतर, सितम्बर, 2007)
ग्रामीण भारत एक अजीब जगह है। तीन राज्यों को छोड़ दें तो हम 60 बरसों में कोई भी गम्भीर भूमि सुधार या काश्तकारी सुधार पूरा नहीं कर पाए हैं। लेकिन विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) हम छह महीने में पक्का कर सकते हैं। हमारी आजादी के छह दशकों में ढांचागत और अन्य असमानताएं गहराती गयी हैं, और आज ग्रामीण भारत जबर्दस्त संकट में है।
कुछ माह पहले एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के पहले पृष्ठ की सुर्खी ध्यान खींचने वाली थी। चंडीगढ़ के एक युवक ने एक फेंसी सैलफोन नंबर के लिए पन्द्रह लाख रुपए चुकाए थे। बाकी मीडिया को सक्रिय होने में ज्यादा देर नहीं लगी। शीघ्र ही हमने उसके माता पिता को अपने बेटे की उपलब्धि पर मिठाई बांटते देखा। अखबारों ने इस (मुख्यपृष्ठ) पर सम्पादकीय लिखे कि किस प्रकार यह घटना भारत के नए आत्मविश्वास को दिखाती है। आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के युग में हमारी आक्रामकता को दिखाती है।
इससे निश्चय ही कोई चीज तो दिखती है। एक वर्ग है जिसके लिए एक प्रमुख भारतीय पत्रिका विलास वस्तु खोज कर प्रस्तुत करनेवाले स्वयंसेवी के रूप में काम करना बिलकुल स्वाभाविक मानती है। इसके प्रकाशक का स्तम्भ उन्हें बताता है कि 1,15,000 डालर डिब्बों का एक सीमित संस्करण अब उपलब्ध है। 80 साल पुराने ऊंट की हड्डी से बने डिब्बों में जो कभी एक राजस्थानी राजा की मिल्कियत थे।
भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 15 लाख रुपए से बहुत दूर है और 1,15,000 डालर से तो और भी दूर। असल में यह 503 रु. है। यह ग्रामीण गरीबी रेखा से ज्यादा ऊपर नहीं है और यह राष्ट्रीय औसत है जिसमें विशाल भू-स्वामी और छोटे छोटे काश्तकार दोनों शमिल हैं। इसमें केरल जैसे राज्य भी शामिल है जिनका औसत राष्ट्रीय औसत से लगभग दो गुना है। केरल और पंजाब को हटा दें तो आंकड़ा और भी निराशाजनक हो जाएगा। बेशक, शहरी भारत में भी असमानता भरपूर है और बढ़ रही है पर जब आप ग्रामीण भारत पर नजर डालते हैं तो विषमता और भी तीखी हो जाती है।
इस 503 रुपए का 60 फीसदी आहार पर खर्च किया जाता है। 18 फीसदी ईंधन, कपड़ों और जूतों पर। बची हुई दयनीय रकम में से शिक्षा पर जो खर्च किया जाता है उसका दोगुना स्वास्थ्य पर किया जाता है अर्थात 17 और 34 रुपए। यह असंभावित है कि अनोखा सैलफोन नंबर खरीदना ग्रामीण भारतीयों के बीच एक बड़ा शौक बनकर उभरेगा। ऐसे असंख्य भारतीय परिवार हैं जिनके लिए यह आंकड़ा 503 नहीं बल्कि 225 रुपए है। ऐसे पूरे के पूरे राज्य हैं जिनका औसत गरीबी रेखा से नीचे पड़ता है। जहां तक भूमिहीनों का प्रश्न है उनकी विपत्तियां दहलाने वाली हैं।
ऐसा नहीं है कि असमानता हमारे लिए नयी या अनजानी है लेकिन जो चीज पिछले 15 सालों को अलग करती है वह है बेरहमी जिसके साथ इसे रचा गया है, यहां तक कि शिखर पर भी। जैसाकि अभिजित बनर्जी और थॉमस पिकैटी ने अपने आलेख टाप इंडियन इनकम्स 1956-2000 में लिखा है, धनवानों (चोटी का एक प्रतिशत) ने (आर्थिक सुधारों के सालों में ) सकल आय में अपना हिस्सा भारी मात्रा में बढ़ाया है लेकिन जहां 1980 के दशक में कमाई में उच्च आय वर्ग के सभी लोगों का हिस्सा था, वहीं 1990 के दशक में केवल चोटी के 0.1 प्रतिशत लोगों को जबर्दस्त फायदा हुआ।
1950 के दशक में चोटी के 0.01 फीसदी लोगों की औसत आमदनी बाकी पूरी आबादी की औसत आमदनी से 150-200 गुना अधिक थी। 1980 के दशक के शुरू में यह घटकर 50 गुने से भी कम हो गई। लेकिन 1990 के दशक के अंत में यह फिर बढ़कर 150-200 गुना हो गई। सारे संकेत यह दिखाते हैं कि तब से हालात और खराब हुए हैं।
मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (सीइओ) के वेतनों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दबे स्वर में की गई टिप्पणी पर उद्योग जगत की प्रतिकूल प्रतिक्रिया इस बात का संकेत हैं कि इन विशेषाधिकारों की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं। ज्यादातर अखबारों के सम्पादकीयों ने मनमोहन सिंह की बखिया उधेड़ दी। इसलिए यह विचित्र और गौरतलब है कि संपत्ति के केन्द्रीकरण पर हाल के दिनों में लिखे गए सबसे अच्छे आलेखों में एक मॉर्गन स्टेनली के कार्यकारी निदेशक का था (द इकानॉमिक टाइम्स, 9 जुलाई 2007)। चेतन अहया लिखते हैं, हम मानते हैं कि पिछले वर्षों में भूमण्डलीकरण और पूंजीवाद की प्रगति से प्रचलित आय की बढ़ती असमानता के कारण सामाजिक तनाव पैदा हुआ है। वह असमानता के बढ़ने से पैदा हुई सामाजिक चुनौती को चिंताजनक प्रवृति मानते हैं। वह यह भी पाते हैं कि अमीरी में असमानता का अंतर और भी ज्यादा है..... हमारे विश्लेषण के अनुसार पिछले चार वर्षों में संपत्ति में 10 खरब डालर (सकल राष्ट्रीय उत्पाद के 100 फीसदी से ज्यादा) की वृध्दि हुई है- और इस कमाई का अधिकांश हिस्सा आबादी के एक बहुत छोटे से टुकड़े में केन्द्रित हो गया है। जिन रास्तों पर हम चल रहे हैं उनका नतीजा अहया साहब सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के रूप में सही ही देख रहे हैं। जैसा कि किसानों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के मामले में सामने आ रहा है।
यह सब ग्रामीण भारत में मौजूद ढांचागत असमानता के कारण है। 60 वर्षों में हमने भूमि के प्रश्न का कभी समाधान नहीं किया। नहीं जंगल और जल के अधिकारो ंका। न ही भयावह जातीय एवं लैंगिक भेदभावों के ीायानक स्तरों का। वास्तव में हमने अपनी ढांचागत या अन्य असमानताओं पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। अब हम उन्हें बदतर बनाने के लिए हर चंद कोशिश कर रहे हैं।
आर्थिक सुधारों के प्रारंभ में भी नीचे के आधे ग्रामीण परिवारों के पास कुल भू स्वामित्व का केवल 3.5 प्रतिशत था। चोटी के दस प्रतिशत परिवारों के पास 50 प्रतिशत से भी अधिक भूमि थी। यह स्थिति सारी जमीन की थी। यदि हम केवल सिंचित जमीन का ही हिसाब करें तो तस्वीर और भी डरावनी है। इसमें उत्पादक परिसंपत्तियों को जोड़ दें तो हालत ओर भी बदतर हो जाती है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण्ा परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान हैं या छोटे किसान हैं। पिछले 15 वर्षों में ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो हालत को बेहतर बनाता। इसे बदतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया गया है।
कृषि नीति की दिशा - जो ग्रामीण भारत के लिए महत्वपूर्ण है - का केन्द्रीय विचार बिलकुल सीधा है। खेती को किसानों के हाथों से लेकर पूरी तरह से बड़े निगमों के हाथ सौंपना। हर कदम, हर नीति केवल इसी विचार को आगे बढ़ाती है। हम अपने इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन देख रह हैं। यह किसी बांध या खनन परियोजना में नही हो रहा हैं यह खेती में हो रहा है और हमें इसका जरा भी पता नहीं है कि उन लाखों लोगों को हम क्या करेंगे जिन्हें हम जमीन से बेदखल करते जा रहे हैं। यह टैंको या बुलउोजरों से नहीं किया जा रहा है। हम छोटे जोतदारों के लिए सिर्फ करना असंभव करते जा रहे हैं और हम उन लोगों को कोई वैकल्पिक साधन नहीं दे रहे हैं जिनकी आजीविका हम इतने उत्साह से नष्ट कर रहे हैं।
शुरुआती दशक कम से कम उम्मीद के दशक तो थे। साक्षरता, जीवन संभाविता, मानवि विकास संकेतकों में सुधार भले शानदार न हों महत्वपूर्ण तो थे। एक बोध था कि भारत अपने गांवों में बसता है। युध्दकाल में ही सही, जो नारा राष्ट्र की कल्पना में बसा, वह था जय जवान, जय किसान। माना जाता था कि किसान राष्ट्र के भविष्य का वाहक है। (मुख्यत: पुरुष, क्योंकि स्त्रियों को आज भी संपत्ति के अधिकारों से वंचित रखा गया है और उन्हें किसान नहीं माना जाता)। कम से कम ऐसी एक कल्पना तो थी।
साठ साल बाद ग्रामीण भारत बदहाल है। हरित क्रांति के बाद के सबसे प्रचंड कृषि संकट का प्रकोप जारी है पर यह विशिष्ट वर्ग और मीडिया का ध्यान ज्यादा देर नहीं खींच पाता। खेती में सरकारी निवेश बहुत समय पहले खत्म हो चुका है। गैर-कृषि रोजगार ने बढ़ना बन्द कर दिया है। गैर कृषिगत रोजगार अवरुध्द हो गया है। ( हाल के समय यमें केवल राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने कुछ सीमित राहत दी है) करोड़ों लोग कस्बों और शहरों की ओर जा रहे हैं। वहां भी कोई काम धंधा नहीं है। बहुत से लोग ऐसी हैसियत में पहुंच जाते हैं जो न तो किसान हैं न मजदूर। छोटे मोटे काम करने वालों और घरेलू नौकरों की भीड़ जाम हो रही है। (एक आकलन के अनुसार झारखण्ड की करीब दो लाख लड़कियां केवल दिल्ली में ही इस तरह के काम में लगी है। )
उधर ऋणों पर अंकुश ने लाखों किसानों को दिवालिएपन की ओर धकेल दिया है ंयह उन्हें जोखिमों से भरी ऊंची लागत वाली नगदी फसलों की ओर प्रोत्साहित, बल्कि धकेलने के बाद किया गया है। केरल में 2003-2004 में एक एकड़ वनीला उगाने में एक एकड़ धान उगाने की तुलना में 15 से 20 गुना ज्यादा लागत आती थी। इसके बावजूद किसानों को उकसाया गया। वनीला की कीमत रसातल पर पहुंच गई है और ऋण अनुपलब्ध हो गया है। ऐसे अनेक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।
हम वे कदम उठाने में भी नाकाम रहते हैं जिनकी अनुमति विश्व व्यापार संगठन जैसी घार पक्षपाती संस्था भी देती है। नतीजा यह होता है कि कपास जैसे उत्पादों का जो मूल्य हमारे किसानों को मिलता है, वह फसल के मौसम में गिर जाता है। अमेरिकी कपास पर मिलने वाले भारी अनुदान को - जिसकी वजह से केवल 2001-2002 में ही दस लाख से अधिक गांठों से हमारे बाजारो ंको पाट दिया गया - कोई चुनौती नहीं दी जाती। शुल्क नहीं बढ़ाए जाते। हम अपने गरीबों के हितों को 30,000 अतिरिक्त एच। बी बीजा के लिए खुशी से बेच देते हैं।
सरकार हमें बताती है कि 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बहुत ही कम आकलन के बावजूद यह आंकड़ा भी कम भयानक नहीं है। ये आत्महत्याएं कर्ज के कारण हुई हैं और नेशनल सेंपल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दो गुनी हो गई है।
ऐसा नहीं है कि कोई प्रतिरोध नहीं है, कोई आवाज नहीं उठाई जाती है। लोगों ने हर चुनाव में सरकारों को और हमें अपनी तकलीफें बताई हैं। विरोध पर विरोध हुए हैं। और कुछ अच्छी चीजें भी हुई हैं जैसे कि राष्ट्रीय ग्रामीण योजना। लेकिन व्यापक दिशा बहुत अभिभूतकारी है। और यही तेजी से महाविपत्ति की ओर अग्रसर है, विपत्ति तो आ ही चुकी है। लेकिन हमारी रुचि 15 लाख रुपए के सैलफोन नंबर में कहीं अधिक है। और हो सकता है कि इसमें कोई नुक्ता हो। फैंसी नंबर उधार के पैसो से खरीदा गया था। असमानता का हमारा तांडव उधार के समय में ही चल रहा है।
मूल लेख अंग्रेजी में द हिन्दु में प्रकाशित - अनुवाद: ओमप्रकाश (साभार : समयांतर, सितम्बर, 2007)
1 comment:
Hello. This post is likeable, and your blog is very interesting, congratulations :-). I will add in my blogroll =). If possible gives a last there on my site, it is about the CresceNet, I hope you enjoy. The address is http://www.provedorcrescenet.com . A hug.
Post a Comment