Friday, November 16, 2007
कुछ खास बिन्दु निजीकरण के
सारी दुनिया में खेती एक जिंस बन गई है। इससे भारतीय खेती में भी कंपनी या निजी क्षेत्र की घुसपैठ काफी बढ़ी है। नतीजा यह है कि भारतीय खेती का ढांचा बहुत तीव्र बदलावों के दौर से गुज़र रहा है। इस बदलाव के 4 प्रमुख बिन्दु हैं: 1। केन्द्र और राज्य के स्तर पर सरकारें कृषि क्षेत्र में कंपनियों के निवेश को सक्रिय सहयोग दे रही हैं और मौजूदा कानूनी प्रावधानों को भी बदल कर उनके प्रवेश को आसान बना रही हें। 2। आमतौर पर समूचे किसान समुदाय और खास तौर पर छोटे खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिए बनाई गई सार्वजनिक एजेंसियों ने अपने निर्धारित लक्ष्यों को बहुत ही कम हासिल किया है। बहुत सारी संस्थाओं व निकायों ने अपने आपको नाकाबिल व भ्रष्ट साबित किया है। इन संस्थाओं व निकायों की इज्जत सरकार और मीडिया की निगाहों में तो गिरी ही है, साथ ही इन संस्थाओं से लाभान्वित होने वाले किसान समुदाय के बीच भी इनकी कोई साख नहीं है। यदि इन सार्वजनिक संस्थाओं को दुरूस्त करने के मजबूत उपाय नहीं किए जाते, तो निजी कंपनियों के लिए खुला मैदान छोड़कर ये पूरी तरह खत्म हो जाएंगी। 3। पूंजीवादी (अमीर) किसानों की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लॉबी, जो पहले पंजाब और हरियाणा में उभरी थी, अब पूरे हिंदुस्तान में फैल रही है। इनको बड़े कॉर्पोरेट घरानों का भी अच्छा-खासा आर्थिक समर्थन हासिल है। आखिरकार कॉपोरेट क्षेत्र ऐसी जगह पर घुसपैठ नहीं कर सकता, जहां उनकी मेहमानवाजी करने को भी कोई न हो और जहां पर्याप्त अतिशेष मौजूद न हो। 4. जैसा कि हमेशा, हर जगह इतिहास में होता आया है, पूंजीवादी वाली खेती के बढ़ने से अनगिनत छोटे किसानों ने अपनी जमीनें गंवाई हैं और सर्वहारा वर्ग की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। इनमें महज किसान ही नहीं, बल्कि भूमिहीन खेत मजदूर, छोटे-छोटे दस्तकार, छोटे व्यापारी और अन्य छोटे-छोटे बिचौलियों के काम करने वाले लोग भी शामिल हैं। सर्वहारा की इस नई उभरती हुई भीड़ के पास कोई रोजगार नहीं है, कहीं और तो पहले भी नहीं था, अब खेती में भी नहीं बचा। बिलकुल साफ है कि यह बेदखल होते छोटे और सीमांत (हाशिए के) किसानों और किसानी से जुड़े इसी तरह के छोटे खिलाड़ी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए कुछ उत्पादक अवसर तभी पा सकते हैं, जब बाजार की जारी प्रक्रिया में राज्य और सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा भारी-भरकम हस्तक्षेप किया जाए। लेकिन विडंबना यह है कि इन असंगठित और बिखरे हुए लोगों को राजसत्ता के भीतर अपनी जायज जगह हासिल करने का कोई तजुर्बा नहीं है और इसीलिए वे उस जगह को भी नहीं देख पाते, जो सैध्दान्तिक रूप से उनके लिए मौजूद है। यह परिस्थिति कुछ निडर और रचनात्मक कदम उठाए जाने की मांग करती है। ताकत और इच्छाशक्ति खो चुकीं सार्वजनिक एजेंसियों को फिर से वैसे ही खड़ा करने का कोई फायदा नहीं होने वाला। हमें संपूर्ण पुर्नरचना के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत है। ( विकास संवाद के लिए तैयार एग्री पैक का हिस्सा - शिवनारायण )
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3 comments:
एक ज्वलंत समस्या पर आपने विचार बहुत अच्छे से रखे. इससे जुड़ी एक समस्या और भी है अगर इस सर्वहारा वर्ग की समस्याओं का निपटारा जल्द न हुआ तो ...............
साधुवाद! आपकी बात से सहमत हूं. मप्र सरकार ने किसानों को फसल के अफलन का क्या मुआवजा दिया है, देख रहा हूं. जिस राजनीतिक इच्छा शक्ति की बात आप कर रहे हैं वह दुर्भाग्य से हमारे राजनेताओं में नहीं है.
आपकी बात से सहमत हूं.राजनीतिक इच्छा शक्ति हमारे राजनेताओं में नहीं है.
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