उदारीकरण की नीतियों पर अमल करते हुये केंद्र और राज्य सरकारों को लगता है कि अब खेती में निजी कम्पनियों काचाहिय इसलिये इस रास्ते में अड़चन पैदा करने वाली नीतियों को धीरे धीरे बदला जा रहा है० मंडी कानून में हुये बदलाव का असर अब साफ साफ दिखाई देने लगा है० इसके चलते ही तमाम तरह कि देशी विदेशी कंपनियाँ अनाज की खरीदी कर रही है० पर इन सबके बावजूद किसान की हालत में कोई सुधर नही आ रहा है० आत्महत्याओं की ख़बरें कम होने के बजाय बढती ही जा रही हैं क्योकि असल मे किसान की सुध किसी को नही है० सब अपनी रोटियां सेंक रहे है०
जिस देश की ७५ प्रतिशत जनता खेती पर आश्रित हो, जाहिर उस तक पहुँचने के लिए खेती की बात करना जरुरी हो जाता है० दरअसल वैश्वीकरण की नीतियों का हिशाना अब खेती-किसानी हो गया है० इसका राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के पिछले साल घोषित किये गए आंकड़ों कि मदद से आसानी से लगाया जा सकता है० खुद इस सरकारी संस्था के आंकडे बताते है कि खेती कि हालत से परेशान चालीस फीसदी किसान खेती से पीछा छुडाना चाहते हैं, जबकि सत्ताईस फीसदी किसान मानते है कि खेती अब फायदे का सौदा नही रहा० इसके अलावा आठ फीसदी किसानों का मानना है कि खेती जोखिम का काम है० कुल मिलाकर करीब दो-तिहाई किसान अब खेती नहीं करना चाहते है०
यही कारण है कि किसानों के पास खेती के अलावा कोई विकल्प हो या ना हो, लेकिन अब बड़ी कम्पनियों को खेती में निवेश का एक अच्छा विकल्प हाथ लग गया है० सरकारें भी चाह रही हैं कि बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियाँ खेती करें ० इसके बाद अगर किसान चाहें तो अपने ही खेत में मजदूरी कर सकते है० केंद्र सरकार तो ऐसा आव्हान कर ही चुकी है अब राज्य सरकारें भी इस तरह की कोशिशों में लगी है० मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री तो इसके लिए कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा राहे है० वे खजुराहो मीट से लेकर एग्री बिजनेस मीट और कई अन्य मीट कर चुकें हैं और कई मीट और करने की तैयारी में है० इन सब मीटों का एक मात्रा उद्देश्य है कि बड़ी बड़ी कंपनियाँ खेती मे निवेश करें ०
सवाल है कि एक ओर जब सरकारी आंकडें बता रहे हैं कि लोग किसानी छोड़ना चाहते हैं तो देश भर में किसानों के संघर्ष क्या जाहिर करते है? अगर नंदीग्राम के किसान खेती नहीं करना चाहते थे तो वे अपनी ज़मीन के लिए जान देने के लिए क्यों तैयार है? दादरी के किसान रिलायंस की बिजली परियोजना के खिलाफ संघर्ष के रास्ते पर क्यों आये? या फिर राजस्थान में लगातार संघर्ष कर रहे किसानों की कहानी क्या बयां करती है? शायद इन सब पहलुओं पर विचार करने की फुर्सत सरकारों को नहीं है क्योकि फिलहाल निवेश पहली प्राथमिकता बन गयी है० दरअसल, निवेश कोई नया शिगुफा नहीं है० इसकी शुरुआत काफी पहले हो चुकी है, पर इस कम मे कुछ बाधाएं आ रही थीं, जिन्हें सरकार अब दूर करने की तैयारी में है० मिसाल के तौर पर मंडी एक्ट बदलने की बात पिछले सात साल से कही जा रही है० भारत सरकार का वर्ष २००६-२००७ का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि कृषी मन्त्रालय ने उभरती प्रवृतियों की तर्ज पर विपणन के क्षेत्र में सुधार लेन के लिए राज्य सरकारों के परामर्श से कृषि विपणन संबंधी एक माडल एक्ट तैयार किया था० इस माडल एक्ट के अधिनियम के तहत देश में निजी बाजारों, प्रत्यक्ष खरीद केंद्रों, सीधी बिक्री के लिए उपभोक्ता या किसान बाजारों और क्रशी बाजारों के प्रबंधन और विकास में सरकारी-निजी भागीदारी का संवर्धन किया जा सकेगा०
इस नीति के मुताबिक़ आज खेती का द्रश्य बदल रहा है० प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले ही कह चुके हैं कि कृषी उत्पाद विपणन समिति कानून में बदलाव किया जाए, ताकी ठेके पर मुक्त खरीद फरोख्त को मंजूरी दी जा सके० संस्थागत खुदरा व्यापार हो सके, कृषि प्रसंस्करण उद्योग के लिए कच्चे माल कि सहजता से आपूर्ति हो सके, प्रतिस्पर्धी व्यापार हो और बाज़ार की नई नीतियाँ इजाद हो० इस सबका इशारा खेती में निजी निवेश की ओर है०
गौरतलब है कि कई सालों पहले से निजीकरण की यह प्रक्रिया देश में जारी है० मध्य प्रदेश तो इस दौड़ में और भी आगे है० आज दर्जन भर से ज्यादा कंपनियाँ मध्य प्रदेश में खेती के क्षेत्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काम क्र रही हैं ० दूसरी ओर किसान परेशान हैं कि उन्हें उनकी उपज का दाम ठीक नहीं मिल रहा है, जबकि उत्पादन लागत लगातार बढती जा रही है० अगर वास्तव में सरकारें किसानों के बारे में सोच रही हैं तो उनकी मूलभूत समस्याओं को समझ कर उनके समाधान तलाशने की जरुरत है जो कम्पनियों को खेती में लाने से तो कतई नहीं हो सकते हैं ० सवाल है कि क्या सरकार खेती के विकास के लिए एसे कदम उठाने के लिए तैयार होगी?
शिवनारायण गौर, जनसत्ता 14 जून 2007
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