खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Tuesday, November 27, 2007

किसान की सुध

उदारीकरण के दौर में जब से गांवों-कस्बों के शहरों में तब्दील होते जाने और औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, खेती-किसानी दिनोंदिन संकटों से घिरती गयी है. पिछले साल अक्तूबर में कृषि क्षेत्र की बदती मुश्किलों के मद्देनज़र देश में हरित क्रांति के जनक मानें जाने वाले कृषि वैज्ञानिक एम् एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने कई अहम सिफारिशें की थी. अब केन्द्र सरकार ने उन सिफारीशों को आधार बनाते हुए राष्ट्रीय किसान नीति को मंज़ूरी दे दी है. आयोग ने अपने मसौदे में भी साफ कहा था कि ग़ैर कृषि कार्यों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए खेती की ज़मीन की बली नहीं चढाई जाये और इसे संरक्षित रखने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन किया जाये. इसको ध्यान में रखते हुए खेती योग्य भूमि का उपयोग ग़ैर कृषि कार्यों के लिए न करने का भरोसा दिया गया है. साथ ही कहा गया है की उद्योग लगाने या खेती से इतर किसी और काम के लिए जितनी ज़मीन ली जाती है तो उतनी ही बंज़र और उसर भूमि को उपजाऊ बनाना अनिवार्य होगा, मगर सवाल है कि सरकार जिस तरह विकास के नाम पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों की अवधारणा को जल्दी से जल्दी व्यापक पैमाने पर फलता-फूलता देखना चाहती है, उसके चलते वह खेती योग्य ज़मीन को बचाने के आश्वासन पर कैसे अमल कर पायेगी.
ग्यारहवीं योजना में चार फीसदी कृषि विकास दर का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन अगर कृषि में लगे लोगों की आर्थिक दशा में सुधार न हो तो इस विकास की तस्वीर धुंधली होगी. पिछले डेढ़ दशक में देश में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें हैं. इस त्रासदी की वजह यही है कि खेती पुसाने लायक नहीं है और किसान कर्ज के दलदल में फंसते गए हैं. राष्ट्रीय किसान आयोग ने इस पर गहरी चिंता जतायी थी कि चूँकि खेती घाटे का धंधा हो गयी है, इसलिए कृषि की तरफ नई पीढ़ी का रुझान तेज़ी से घटता जा रहा है. दरअसल जब तक किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम मिलने की गारंटी नहीं होगी, तब तक खेती को आजीविका का मज़बूत आधार नहीं बनाया जा सकेगा. इसके प्रति लोगों को आकर्षित नहीं किया जा सकेगा. नई नीति में फसलों के उचित मूल्य दिलाने और आय के अन्य साधन मुहैया कराने की बात कही गयी है. साथ ही रियायती दरों पर क़र्ज़ की व्यवस्था कराने के लिए ग्रामीण बैंकिंग प्रणाली को मज़बूत करने की ज़रूरत बताई गयी है. उन्नत बीजों के अभाव और खाद कीटनाशकों का सही इस्तेमाल नहीं होने के चलते हर साल बडे पैमानें पर फसलें मारी जाती हैं. मगर भूमि की उर्वरा शक्ति बढाने और खेती के लिए सिचाई जैसे बुनियादी धंधे को मज़बूत करते समय कोशिश इस बात कि होनी चाहिए कि स्वदेशी तकनीकों के आधुनिकीकरण और उनके उपयोग को ज्यादा से ज्यादा बढावा दिया जाये. नयी किसान नीति से कृषि क्षेत्र और किसानों कि दशा में सुधार की उम्मीद की जानी चाहिए, लेकिन यह सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि वह कितनी तत्परता से इस पर अमल कर पाती है.

सम्पादकीय जनसत्ता, 26/11/2007

Sunday, November 25, 2007

नई किसान नीति

शुक्रवार को संसद में पेश राष्ट्रीय किसान नीति में किए गए हैं। नीति में कृषि को लाभप्रद बनाने के लिए भूमि, सिंचाई, फर्टिलाइजर, कीटनाशक और बीजों के उचित प्रबंधन की जरूरत पर जोर दिया गया है।
घटती भूमि और कृषि उत्पादन बढ़ाने की जरूरत को पूरा करने के लिए अब और खेती की जमीनों के गैर कृषि उपयोग पर प्रतिबंध लगाने जैसे कड़े कदम उठाने की बात कही गई है। साथ ही यह नुक्ता भी जोड़ा गया है कि अगर किन्हीं कारणों से खेती की जमीनों का उपयोग गैर कृषि कायरें में किया जाता है तो उतनी ही बंजर व ऊसर भूमि को खेती लायक बनाना अनिवार्य होगा। उन्नत बीजों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किसान बीज कंपनी बनाने का प्रावधान भी किया गया है। फर्टिलाइजर व कीटनाशकों का उचित प्रयोग न होने से फसलों को भारी नुकसान होता है।
खेती के बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के लिए भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने और सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि के उपायों का भी जिक्र नई नीति में किया गया है। मौजूदा संसाधनों से ही सिंचाई में 10 प्रतिशत की वृद्धि संभव है। इसके लिए जल प्रबंधन में सुधार की जरूरत बताई गई है। किसानों को उनकी फसलों के उचित मूल्य दिलाने और आय के अन्य साधन मुहैया कराए जाएंगे। खेती में पुरुषों के साथ महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाने के उपाय भी किए जाएंगे।
आसान कृषि ऋण के लिए ग्रामीण बैंकिंग प्रणाली बढ़ाने की तत्काल जरूरत है, जिससे उन्हें पर्याप्त और रियायती दरों पर ऋण मिल सके। निचले स्तर तक कृषि ऋण और बीमा सुविधाएं उपलब्ध होने से कृषि उत्पादकता में स्वाभाविक वृद्धि होगी। खेती अति जोखिम वाला क्षेत्र है, जिसमें फसलों की बुआई से लेकर खलिहान तक खतरे ही खतरे हैं। इसमें किसान व फसलों का बीमा उसे सुरक्षा प्रदान करेगा।
कृषि शिक्षा व अनुसंधान के क्षेत्र में पर्याप्त सुधार की जरूरत बताई गई है, जिसके लिए पाठ्यक्रमों में संशोधन आवश्यक है। कृषि स्नातकों को खेती व उससे जुडे़ व्यवसाय की ओर आकर्षित करने के उपाय किए जाएंगे। किसानों की सामाजिक सुरक्षा के साथ खेती के साथ अन्य गैर कृषि रोजगार भी उपलब्ध कराने के प्रावधान होने चाहिए। नई किसान नीति में खेती से जुड़े अन्य रोजगार दुग्ध उद्योग, मुर्गीपालन, मत्स्य पालन और बागवानी को पूरी तरजीह दी गई है। नई नीति में खेतिहर-मजदूरों के लिए गांवों के तालाबों व अन्य जोहड़ों को मत्स्य पालन के लिए आवंटित करने की बात कही गई है।

Thursday, November 22, 2007

संशोधन नहीं, सेज रद्द करना ही हल है -मीनाक्षी अरोरा

नंदीग्राम और अन्य स्थानों पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ़ हो रहे जन विरोधो के दबाव में केंद्र सरकार के मंत्रीसमूह ने पाँच अप्रैल 07 को हुई बैठक में सेज एक्ट में सुधार के जो सुझाव दिए हैं, वह लोगों का ध्यान समस्या से हटाने की एक चाल भर है। ताकि लोग इन छोटे-मोटे सुधारों के चक्कर में सरकार पर भरोसा रखें, दूसरी ओर सरकार अपने विदेशी मित्रों के स्वागत के लिए दरवाजे खोल सके- बिना किसी जन विरोध के।मंत्रीसमूह के द्वारा दिए गये सुझावों को देखकर यह तो अब स्पष्ट है कि सेज के खिलाफ़ जन विरोध, मासूम लोगों की हत्याओं और हजारों-लाखों किसानों के उजाड़े जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार सेज बनाने की अपनी नीति पर आमादा है। बस उसने किसानों से भूमि अधिग्रहण करने में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया है। अब सीधे कम्पनियाँ यह तय करेंगी कि किसानों से कैसे और कौन सी जमीन लेनी है? पहले सेज के लिए न्यूनतम सीमा तो निर्धारित थी, अधिकतम सीमा तय नहीं थी; कितना भी बड़ा सेज बनाया जा सकता था। लेकिन अब सेज की अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेअर तय कर दी गई है और इन क्षेत्रों के रियल एस्टेट में परिवर्तित होने के खतरों को देखते हुए सेज के अंदर उद्योग के लिए 35 फ़ीसदी जमीन के प्रयोग को बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया गया है। 83 नये सेजों को मंजूरी दी जा रही है। इसके अलावा केन्द्र का यह भी सुझाव है कि इन सेजों के लिए जो किसान स्वेच्छा से जमीन दे देंगे, उनके परिवार में से कम से कम एक आदमी को संबध्द प्रोजेक्ट में रोजगार मिलेगा।शायद केंद्र सरकार इस बात को समझ नहीं पा रही है कि जमीन की अधिकतम या न्यूनतम सीमा तय करना मात्र ही विरोध की वजह नहीं है। मूल मुद्दा यह भी नहीं है कि जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकारें करेंगी या फ़िर सीधे कम्पनियां? दरअसल सवाल बहुत गहरे हैं सेज का विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि उद्योग के नाम पर देश की लाखों हेक्टेअर बहुफसली जमीन किसानों से ली जा रही हैं, जो करोड़ों किसानों की जीविका और जीवन का आधार है। जमीन की अधिकतम सीमा को लेकर वामदलों ने भी चिंता जताते हुए उसे दो हजार हेक्टेअर करने की बात की है, लेकिन यह सीमा भी देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है कि एक कंपनी को एक से ज्यादा सेज बनाने का अधिकार होगा या नहीं। एक ही कंपनी अलग-अलग नामों से भी सेज बना सकती है, तब क्या होगा? क्या इस बारे में केन्द्र ने कुछ सोचा है?मंत्रीसमूह की बैठक ने अपने निर्णय में भूमि अधिग्रहण मामले में राज्य सरकार के हस्तक्षेप को खत्म करके किसान को सीधे कंपनी से मोल-भाव के लिए छोड़ दिया, ताकि खुद जन-विरोध और मुआवजे आदि की चिंताओं से मुक्त हुआ जा सके। लेकिन क्या देश के किसानों की सुरक्षा का दायित्व केंद्र सरकार का नहीं हैं? या हम यह उम्मीद करें की विदेशी आकर देश और देश के किसानों का भला सोचेंगे और उनका स्वर्णिम भविष्य लिखेंगे? क्या इतिहास में कभी ऐसा हुआ है? देश के किसानों को भूखे भेड़ियों- बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे डालना क्या केन्द्र सरकार की समझदारी है? क्या ऐसा करके सरकार अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ रही है? शायद सत्ता के मद में कांग्रेस आज गांधी जी के वचनों को भी भूल रही है कि ''अगर किसानों को कोई भी आंच आती है तो वह देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होगा।''इतना ही नहीं पुनर्वास कीे समस्या का समाधान किए बिना ही 83 नये सेजाें को मंजूरी देकर और लोगों को उजाड़ने की तैयारी की जा रही है, उस पर तुर्रा ये कि जो किसान स्वेच्छा से विस्थापन स्वीकार करेगा उसके ञ्र से एक आदमी को रोजगार मिलेगा; अब कोई सरकार से यह पूछे कि किसी ञ्र के 20 लोगों को उजाड़कर दाने-दाने के लिए मोहताज करके एक आदमी को रोजगार देने में कौन सी समझदारी हैं जमीन के असली मालिक को नौकर बना देना क्या सही होगा? यदि सेज कंपनियों ने जमीन के बदले रोजगार नहीं दिए तो इसके लिए ऐसे कौन से कानूनी प्रावधान किए गए हैं; जिससे कंपनियों को मजबूर किया जा सके। रोजगार देने के मसले में वादाखिलाफ़ी की स्थिति में क्या किसान की जमीन वापस की जाएगी? प्राय: यह धोखा ही साबित हुआ है, ऐसा होंडा मामले में हम देख ही चुके हैं।डॉ वन्दना शिवा, मेधा पाटकर, डा बनवारीलाल शर्मा, जनता दल यू। और वामदलों का भी यह मानना है कि केंद्र सरकार ने शायद नंदीग्राम से कोई सबक नहीं लिया हैं वह पूरी तरह अपने विदेशी मित्रों की दलाल बन चुकी है। केंद्र को यह भी दिखाई नहीं दे रहा है कि इन फ़ैसलों से हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरा होगा। बड़ी मात्रा में लोग खेती से बाहर हो जाएँगे। रोजगार और आजीविका तो खत्म ही हो जाएगी। लेकिन मामला सिर्फ़ बेरोजगारी और लोगों के बेघर होने तक ही सीमित नहीं है। सेज के माध्यम से देश के अंदर विदेशी इलाका बनाया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा सेज को परिभाषित किया गया है कि ''सेज विस्तार से वर्णित शुल्क मुक्त एंक्लेव है और व्यापार क्रियाकलापों, शुल्कों और सीमाकरों की दृष्टि से उन्हें विदेशी इलाका माना जाएगा।'' संसद द्वारा सेज एक्ट-2005 का सेक्शन-53 कहता है ''सेज एक नियत दिन और उसके बाद से एक ऐसा क्षेत्र माना जाएगा जो भारत के सीमा शुल्क क्षेत्र से बाहर हो।'' 250 वर्ष पहले अंग्रेजों की कोठियों और फैक्ट्रियों में जैसी व्यवस्था चलती थी, कुछ वैसी ही व्यवस्था सेज के लिए बनाई गई हैं। कोठियों और फैक्ट्रियों में रहने वाले अंग्रेजों के लिए 1782 में कंपनी गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने अलग न्याय प्रणाली और 1793 में अलग सिविल सेवाओं और पुलिस की व्यवस्था बना दी थी। सेज देश के अंदर एक नये किस्म के विदेशी अड्डे होंगे, जहां देशी-विदेशी व्यापारी वैसी ही सुख-सुविधाएं पा सकेंगे जैसी विकसित देशों में मिलती हैं। यहाँ होने वाले विवादों के संबंध में देश की कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था किसीे काम नहीं आएगी, क्योंकि इनके मामलों के निपटारे के लिए तो अलग न्यायालयों का गठन किया जाएगा। राज्य या केंद्र की तो पुलिस भी यहाँ प्रवेश नहीं कर सकतीं। ऐसे में हमारी न्याय व प्रशासनिक व्यवस्था के बेमानीपन पर केंन्द्र की सहमती ही मानी जानी चाहिए।यहाँ सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय संसद को अधिकार है कि वह देश के अंदर विदेशी अड्डे कानून बनाकर स्थापित कर सकती है? भारत की संप्रभुता जनता में निहित है या इन संस्थाओं में? मसला सिर्फ़ यह ही नहीं है कि सेज कृषि योग्य जमीन पर बने या बंजर जमीन पर। जमीन सरकार ले या सीधे कंपनियां? हिंद महासागर में गार्सिया टापू पर अमेरिकी कब्जा क्या देश की सुरक्षा को खतरा नहीं हैं, जब दूर टापू पर विदेशी कब्जे से देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिह्व लग सकता है, तो देश के अंदर विदेशियों के आकर बैठ जाने से देश की सुरक्षा कैसे प्रभावित नहीं होगी?सच तो यह है कि सेज के लिए जमीन 5000 हेक्टेअर हो या उससे कम; किसानों को मुँहमांगा दाम भी मिल जाए; पर जो भी सेज बनेगा वह ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही काम करेगा। क्या यह देश की जनता को मंजूर होगा? समस्या का हल सेज कानून में संशोधन नहीं बल्कि इसे पूरी तरह रद्द करना है।

Monday, November 19, 2007

नन्दीग्राम की शहादत से उठे बुनियादी सवाल

[इन्डोनेशिया के सालेम ग्रुप द्वारा नन्दीग्राम में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की योजना का क्षेत्रीय किसान और बटाईदार विरोध कर रहे हैं।नन्दीग्राम का विधान-सभा में प्रतिनिधित्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का है।बंगाल में पंचायती राज में दलीय आधार पर चुनाव लड़ा जाता है और नन्दीग्राम के प्रखण्ड स्तर के प्रतिनिधियों में(वार्ड सदस्य,ग्राम-प्रधान,ब्लॉक समिति व जिला परिषद सदस्य) मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का ही बोलबाला है।किसानों द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये जाने के विरोध में जो संघर्ष समिति बनी है उस में माकपा समर्थक किसान और बटाईदार अच्छी तादाद में हैं ।बुद्धदेब दासगुप्त कहते हैं कि वे आने वाली पूँजी का रंग नहीं देखेंगे। यह दान की बछिया वाला भाव उन्होंने तब प्रकट किया जब यह ध्यान दिलाया गया कि सालेम कम्पनी के हाथ इन्डोनेशिया में कम्युनिस्टों के कत्ल के ख़ून से रंगे हैं। सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ाने के प्रस्तावों पर सांसदों में जितनी एकता हो जाती है उतनी एकजुटता के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून संसद में मंजूर हुआ था ।ऐसे में नदीग्राम में बहे किसानो-मजदूरों के खून से जो बुनियादी सवाल उठने चाहिए उन्हें यहाँ दिया जा रहा है ।शहीद किसानों के संघर्ष की बुनियाद में जो मसायल हैं,उन्हें नजरांदाज करना अन्याय होगा।समाजवादी जनपरिषद के १६-१८ मार्च को बरगढ़ , उड़ीसा में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित आर्थिक प्रस्ताव के नीचे लिखे अंश इन सवालों को उठाते हैं ।]
सरकार की देशविरोधी , जनविरोधी , दिवालिया नीतियों का सबसे बड़ा उदाहरण पिछले समय विशेष आर्थिक क्षेत्रों के रूप में सामने आया है । अभी तक सरकार २६७ विशेष आर्थिक क्षेत्रों को मंजूरी दे चुकी है । इन क्षेत्रों को विकसित करने वाली कम्पनियों और इनके अन्दर लगने वाली इकाइयों को लगभग सारे करों व शुल्कों से छूट होगी । इन्हें कम्पनियों के लिए करमुक्त स्वर्ग कहा जा सकता है । इसलिए देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की होड़ व लूट मची है ।ज्यादातर विशेष आर्थिक क्षेत्र महानगरों के आसपास पहले से विकसित इलाकों में ही लग रहे हैं । राज्य सरकारें इसमें पूरा सहयोग कर रही हैं और सस्ती दरों पर जमीन अधिग्रहीत करके कम्पनियों को दे रही हैं । जमीन-जायदाद और निर्माण का धन्धा करने वाली बहुत-सी कम्पनियाँ भी इसमें कूद पड़ी हैं । जमीन के विशाल घोटाले भी इस खेल में हो रहे हैं ।
निर्यात और विदेशी पूँजीनिवेश बढ़ाने के नाम पर शुरु किए गए इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों से देश का विकास और औद्योगीकरण नहीं होगा , बल्कि औद्योगिक विनाश होगा । विशेष आर्थिक क्षेत्रों के बाहर की औद्योगिक इकाइयों को करों में छूट नहीं होने से वे प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पायेंगी और या तो बन्द हो जायेंगी या विशेष आर्थिक क्षेत्रों में स्थानान्तरित हो जायेंगी । नतीजा यह होगा कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों में तो प्रगति और समृद्धि दिखायी देगी , लेकिन बाकी विशाल देश में मक्खियाँ उड़ेंगी । क्षेत्रीय असंतुलन तेजी से और बढ़ेगा। पहले पिछड़े इलाकों में उद्योगों को रियायतें , मदद व प्रोत्साहन देने की सरकार की नीति होती थी। अब ठीक उल्टी दिशा में सरकार जा रही है ।
विशेष आर्थिक क्षेत्रों, कई हिस्सों में बड़े कारखानों और नई खदानों से एक बड़ा सवाल देश में खड़ा हो गया है, वह है जमीन का सवाल। बहुत तेजी से खेती , चरागाह तथा जंगल की भूमि इन कम्पनियों को जा रही है , विस्थापन की बाढ़ आ गयी है तथा कई जगह विरोध में प्रबल आन्दोलन भी खड़े हो गये हैं । सवाल सिर्फ किसानों को पर्याप्त मुआवजे एवं पुनर्वास का नहीं है वह तो होना ही चाहिए । सवाल यह भी नहीं कि ये क्षेत्र एवं कारखाने , उपजाऊ या दो-फसली भूमि पर नही बनाए जाएँ , क्योंकि तब पिछड़े पठारी व आदिवासी इलाकों में विस्थापन सही मान लिए जाएंगे । सवाल यह है कि जो जमीन इस देश में करोड़ों ग्रामीण परिवारों की एकमात्र सम्पत्ति और सहारा है , वह बहुत तेजी से देशी-विदेशी कम्पनियों और बड़े पूँजीपतियों के पास जा रही है । इस मामले में भी देश को पीछे ले जाया जा रहा है। जमींदारी उन्मूलन और भूमि हदबन्दी कानून इस देश के आजादी आन्दोलन की महत्वपूर्ण विरासत थी । अब एक नए किस्म की जमींदारी देश में कायम हो रही है । रिलायन्स(या अम्बानी) आज इस देश में बहुमूल्य जमीन का सबसे बड़ा मालिक व जमींदार बन गया है ।
सवाल यह भी है कि बड़े पैमाने पर जमीन को खेती से हटा लिए जाने पर हमारे कृषि उत्पादन और खाद्य-सुरक्षा का क्या होगा ? यह भी तथ्य सामने आ रहा है कि आधुनिक औद्योगीकरण और आधुनिक सभ्यता की प्राकृतिक संसाधनों की भूख जबरदस्त है, जिससे नए-नए संकट खड़े हो रहे हैं । जल-जंगल-खनिज का इतना बड़ा शोषण , दोहन एवं विनाश इस आधुनिक विकास में निहित है , यह अनुभव और अहसास आज बहुत स्पष्ट रूप से हो रहा है ।
कलिंगनगर , दादरी , सिंगुर और नन्दीग्राम के संघर्षों और विवादों ने यह जाहिर कर दिया है कि देश की सारी प्रमुख पार्टियों और सरकारों की नीतियाँ और सोच एक ही हैं, एवं तथाकथित वामपंथ ने भी आज पूरी तरह पलटी खा ली है । जो कम्युनिस्ट कल तक हर मामले में कारण-अकारण टाटा-बिड़ला को गाली देते थे , उन्हीं की सरकार आज टाटा के साथ गले में हाथ डालकर खड़ी है और किसानों-मजदूरों-बटाईदारों पर लाठी-गोली चला रही है । लेकिन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने एक सवाल खड़ा किया है, जिसका जवाब आज के भारत को खोजना होगा । उन्होंने तथा माकपा ने कहा है कि सिर्फ खेती से सबको रोजगार नहीं दिया जा सकता और उन्नति नहीं हो सकती है । उन्होंने यह भी कहा है कि किसान जब तक किसान रहेगा , खुशहाल नहीं होगा । उन्होंने ने पूछा है कि क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा ? उन्हों यह भी पूछा है कि सिंगुर-नन्दीग्राम का विरोध करने वाले क्या बंगाल का औद्योगीकरण और विकास नहीं चाहते ? इस सवाल का जवाब ममता बनर्जी और नक्सलियों को भी देना होगा । इस सवाल का जवाब साम्यवादी और पूँजीवादी दोनों विचारधाराओं में नहीं है । यह जवाब गाँधी-लोहिया के दर्शन में ही मिलेगा । यह सही है कि सिर्फ खेती में सबको रोजगार नहीं मिल सकता । लेकिन खेती करने वाला किसान खुशहाल क्यों नहीं हो सकता । गाँव-खेती के शोषण का अन्त क्यों नहीं हो सकता । खेती देश की अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख और केन्द्रीय गतिविधि हो सकती है , लेकिन देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को , ग्रामीण आबादी के भी बड़े हिस्से को , विकेन्द्रित छोटे-ग्रामीण उद्योगों लगाना होगा । इस तरह का औद्योगीकरण ही भारत जैसे देशों के लिए विकास का एकमात्र रास्ता है ।
कई प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव और विकृतियाँ सामने आने के बावजूद भारत सरकार वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की आत्मघाती नीतियों पर आगे बढ़ती जा रही है । अर्थव्यवस्था के सारे दरवाजे विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोलने के निर्णय लिए गए हैं । खुदरा व्यापार में पहले ही कई देशी कम्पनियाँ कूद चुकी हैं और शहरों में बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल आ रहे हैं । वॉल मार्ट जैसी विदेशी कम्पनियों को पूरी छूट मिलने पर यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ेगी । खुदरा व्यापार भारत के बेरोजगारों की आखिरी शरणस्थली है । इस अन्तिम शरणस्थली पर हमला शुरु हो गया है।
स्पष्ट है कि तथाकथित वैश्वीकरण और आधुनिक विकास की नीति फिर से इस देश को गुलाम और बरबाद करने तथा लूटने की नीति है । इस देश को वापस उपनिवेश बनाया जा रहा है औए ढ़ाई सौ साल पहले ले जाया जा रहा है । ऐसी हालत में , इसका पूरी ताकत से विरोध करना देश के हर सचेत और देशभक्त नागरिक का कर्तव्य है। साम्राज्यवाद के विरुद्ध १८५७ के पहले विद्रोह के डेढ़ सौ वर्ष पूरा होने के मौके पर समाजवादी जनपरिषद इसी का आह्वान करती है ।

अफलातून

Sunday, November 18, 2007

नंदीग्राम पीड़ितों के लिए मुआवज़ा

कोलकाता : कोलकाता हाई कोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया है कि वह नंदीग्राम में 14 मार्च की पुलिस गोलीबारी और हिंसा की जांच जारी रखे और एक महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट पेश करे। चीफ जस्टिस एस. एस. निज्जर और जस्टिस पिनाकी चंद घोष की बेंच ने कहा कि उस दिन की पुलिस कार्रवाई को अदालत में सही नहीं ठहराया जा सकता है। अदालत ने कहा कि राज्य सरकार को 14 मार्च को नंदीग्राम में मारे गए, घायल हुए लोगों तथा बलात्कार और यौन दुर्व्यवहार की शिकार महिलाओं के लिए मुआवजे का पैकेज जारी करना चाहिए। बेंच ने कहा कि मारे गए लोगों के परिजन को कम से कम 10 लाख रुपये और घायलों के नजदीकी रिश्तेदार को कम से कम 5 लाख रुपये दिए जाने चाहिए। इसी तरह बलात्कार का शिकार हुई महिलाओं को कम से कम 8 लाख रुपये तथा यौन दुर्व्यवहार की पीड़ा झेलने वाली महिलाओं को कम से कम 2 लाख रुपये दिए जाएं। चीफ जस्टिस ने 14 मार्च की घटना के बाद सुओ मोटो लेते हुए मामला शुरु किया था और सीबीआई से पुलिस गोलीबारी तथा हिंसा की जांच करने तथा एक सप्ताह के भीतर रिपोर्ट पेश करने को कहा था। तब से इस मामले में 10 और जनहित याचिकाएं दाखिल की गईं और उन पर सुनवाई जुलाई में पूरी हुई। प्रदेश सरकार ने अदालत में हलफनामा दाखिल किया था जिसमें उसने नंदीग्राम में पुलिस गोलीबारी को उचित ठहराया था। हलफनामा दाखिल करने के बाद राज्य सरकार ने नंदीग्राम की घटना की बर्दवान के डिप्टी कमिश्नर से प्रशासनिक जांच कराने का आदेश दिया था। मुआवजे के बारे में हाई कोर्ट के आदेश के बारे में पूछे जाने पर गृह विभाग के सचिव पी. आर. राय ने कहा, 'सरकार को मुआवजे पर अदालत के आदेश का पालन करना होगा।' यह बताए जाने पर कि अदालत ने पुलिस गोलीबारी के बारे में प्रदेश सरकार की दलीलें खारिज कर दी हैं उन्होंने कहा, 'हमें आदेश की प्रति नहीं मिली है।' प्रदेश सरकार ने मारे गए 14 लोगों के परिजन के लिए 8 नवंबर को 2-2 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की थी लेकिन घायलों को मुआवजा देने से इनकार कर दिया था।

Friday, November 16, 2007

नंदीग्राम के लोग

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध। नंदीग्राम को फतह कर लिया गया है। 11 नवंबर को बंगाल और भारतीय वामपंथी राजनीति के इतिहास में एक और रक्त दिवस के रूप में याद किया जाएगा। लाल रंग सीपीएम का रंग है और बांग्ला में लाल को रोक्तो ही कहा जाता है. सीपीएम के राज्य नेता और मंत्री श्यामलाल चक्रवर्ती ने कहा है कि अब वहां शांति स्थापित हो चुकी है और लोग वहां की ताजा हवा में सांस ले सकते हैं. खून की गंध से भरी नंदीग्राम की हवा बहुत दिनों तक उनका पता पूछती रहेगी जो सीपीएम के इस क्रांतिकारी कब्जा अभियान में मारे गए. यहां बताना नामुमकिन है कि कितने कत्ल हुए और कितनी औरतों के साथ बलात्कार हुआ. नंदीग्राम पर सीपीएम की घेराबंदी इतनी जबर्दस्त थी कि सीआरपीएफ को भी 11 नवंबर को लौट जाना पड़ा. पुलिस नंदीग्राम पहुंच नहीं पा रही है या उसे मना कर दिया गया है. आखिर इतने सालों से राज्य पुलिस सीपीएम की अनुचरी बनी रही है और यह भूल चुकी है कि उसका स्वतंत्र कर्तव्य क्या है. पत्रकारों का नंदीग्राम के भीतर जाना कठिन था और उनकी गाड़ियों पर सीपीएम के लोगों ने हमला किया और उन्हें लौटने पर मजबूर कर दिया. नंदीग्राम में सीपीएम के हमलों में घायल ग्रामवासियों में से अनेक का अपहरण कर लिया गया है. कई लापता हैं. उनका पता कैसे चले यह एक बड़ी समस्या है. ज्योति बसु पहले से कहते चले आ रहे हैं कि नंदीग्राम में अब शांति आने ही वाली है और अब शांति से उनका तात्पर्य बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है. लेकिन सीपीएम के इस खूनी कब्जे के बाद नंदीग्राम से भगा दिए गए प्रतिरोधी गांववालों के पुनर्वास का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है. सीपीएम के लोग यह कह रहे हैं कि किसी पर कोई जुल्म नहीं होगा. सभी साथ-साथ रह सकते हैं और अपने राजनीतिक विचारों का पालन कर सकते हैं. लेकिन बंगाल को जानने वाला कोई भी अच्छी तरह यह जानता है कि यह दूसरी किसी जगह भले संभव हो, बंगाल में तो असंभव है. अगर बंगाल की राजनीतिक संस्कृति ऐसी होती तो नंदीग्राम की यह परिणति नहीं होती. सीपीएम जनता का पूरा समर्पण चाहती रही है. हमें ऐसे किस्से मालूम हैं कि शादी ब्याह जैसे नितांत निजी प्रसंगों में भी पार्टी की रजामंदी के बिना कोई कदम उठाना खतरनाक हो सकता है. विरोधी दल वालों के गांवों में रिश्ते नहीं किए जा सकते और ऐसा न होने देने के लिए सड़कें काट दी जाती हैं और गड्ढे खोद दिए जाते हैं. जमीन खरीद-बिक्री आदि में तो पार्टी का फैसला निहायत जरूरी है. बंगाल में लोकतांत्रिक स्वभाव का खात्मा हो चुका है इसलिए राजनीतिक विरोधियों की सह पाने की क्षमता भी जाती रही है. इस व्याधि के शिकार सीपीएम के अलावा और दल भी हैं. (अपुर्वानंद)

समकालीन जनमत

राष्ट्रीय कृषि नीति का विश्लेषण

गौरतलब है कि सन् 2000 में भारत सरकार के तात्कालीन कृषिमंत्री श्री नीतिश कुमार ने नयी कृषि नीति को घाषित किया था। 2000 के बाद से कोई कृषि नीति नहीं बनी है। हां राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी नीति से संबंधित अनुशंसाएँ जरूरी जारी की हैं। संसद में पेश यह नीति मूलत: अंग्रेजी में तैयार हुई हैं, और हिन्दी मसविदे पर अनुवाद की छाया, अटपटे शब्दों व भाषा की कृत्रिमता बहुत स्पष्ट है। अंग्रेजी में राष्ट्रीय कृषि नीति का बनना स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसी हर नीति सरकार में बैठे अफसर व विशेषज्ञ ही तैयार करते हैं, जिनकी भाषा अंग्रेजी ही होती है। अब तो अफसरों व विशेषज्ञों के ऊपर उनके मालिक विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व व्यापार संगठन ही सारी नीतियां लिखवा रहे हैं, उनकी भी भाषा अंग्रेजी ही है। राष्ट्रीय कृषि नीति पर भी विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन की मुहर बहुत स्पष्ट है।नई राष्ट्रीय कृषि नीति के प्रारंभिक पांच पैराग्राफ तो सही व निर्दोष प्रतीत होते हैं। इनमें भारतीय जीवन में खेती का स्थान, कृषि विकास की कमियां, बढ़ती विषमताओं, भूमंडलीकरण से पैदा हुई जलिटताओं, खेतिहर समुदायों की दयनीय स्थिति, पर्यावरणीय असंतुलन आदि को स्वीकार करते हुए कृषि नीत के उद्देश्यों को बताया गया है। उद्देश्य भी ऐसे हैं जिनसे असहमति की गुंजाइश कम है, जैसे कृषि उत्पादन में 4 प्रतिशत से अधिक वृध्दि की दर, जल-जमीन-जैव विविधता की सुरक्षा एवं संसाधनों के समुचित उपयोग पर आधारित विकास, समतामूलक विकास, मांग आधारित विकास (इस पर कुछ सवाल हो सकते है) और टिकाऊ विकास। कुल मिलाकर यदि राष्ट्रीय कृषि नीति के मसविदे का प्रथम पांच पैरा पढ़ें तो कृषिमंत्री बहुत क्रांतिकारी, जनवादी व पर्यावरणवादी सोच के आदमी मालूम पड़ते है।लेकिन इसके बाद आगे पढ़ने पर कृषि नीति का असली चेहरा और असली इरादा सामने आता है। इधर-उधर की लफ्फाजियों को निकाल दें तो राष्ट्रीय कृषि नीति बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद, भूमंडलीकरण, कथित उदारीकरण और निजीकरण के एजेंडा को ही आगे बढ़ाती है। असली सवालों से जी चुराते हुए यह नीति वे ही समाधान पेश करती है जो समस्याओं के मूल में है।उदाहरण के लिए दूसरे पैरा में ही इसमें स्वीकार किया गया है कि नब्बे के दशक में कृषि के विकास में ढील आई है। क्या यही एक स्वाकारोक्ति अपने आप में नब्बे के दशक में अपनायी गई आर्थिक नीतियों पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा करती है? कृषि नीति के दस्तावेज में ढील के कारण बताये गये हैं - उपयुक्त पूंजी की कमी तथा आधारभूत संरचनाओं का अभाव, बाजार में उत्पादों की मांग की सीमाएं, कृषि उत्पादों के आवागमन, रखरखाव एवं बिक्री पर नियंत्रण आदि। कृषि नीति घोषणा भी करती है कि ''कृषि उत्पादों'' के घरेलू बाजार का पूर्ण उदारीकरण कर दिया जाएगा और कृषि उत्पादों की आवाजाही पर प्रतिबंध धीरे-धीरे समाप्त कर दिये जाएँगे।इसी प्रकार कृषि उपज की मांग बढ़ाने के लिए इस कृषि नीति में एक ही फारमूला है - निर्यात। पूरे मसविदे में कम से कम एक दर्जन बार ''निर्यात'' शब्द आता है। लेकिन ''निर्यातोन्मुखी विकास'' पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं, उन्हें यह नीति बिलकुल नजरअंदाज करती है। सच तो यह है कि दुनिया के गरीब देशों को निर्यात बढ़ाने का उपदेश देने वाले अमीर देशों का दुनिया के व्यापार पर इतना नियंत्रण है कि वे अपने किसानों और उद्योगों को बाहरी प्रतिस्पर्धा से पूरी सुरक्षा देते हैं, उत्पादन व निर्यात के लिए भारी अनुदान देते हैं, और उन्हीं वस्तुओं को अपने देश में आने देते हैं जिनकी उन्हें जरूरत है। लेकिन निर्यात बढ़ाने के लिए बैचेन गरीब देश आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं और इस चक्कर में अपनी पैदावार बहुत सस्ते दामों पर अमीर देशों के अमीर उपभोक्ताओं की सेवा में पेश करते रहते हैं।दूसरी ओर निर्यात पर जोर देने के चक्कर में एक नुकसान यह हो रहा है कि हम अपने देश की सौ करोड़ आबादी की जरूरतों को पूरा करने की बजाए अमीर देशों के अमीर उपभोक्ताओं की विलासितापूर्ण जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे है। ''खाद्य सुरक्षा'' की बात राष्ट्रीय कृषि नीति के पहले पैरे में आयी है, लेकिन उसके बाद वे भूल गए हैं कि देश की विशाल आबादी का पेट भरना हमारी कृषि नीति का पहला व प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए। यह आबादी यदि गरीबी व कुपोषण को कुचक्र से बाहर निकलेगी, तो खाद्यान्नों व कृषि उपज की मांग भी बढ़ेगी और कृषि उत्पादन में भी तेजी आएगी।पहले पैरे में ही यह भी कहा गया है '' कृषि का विकास खाद्य क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता के लिए तो जरूरी है ही.........''। लेकिन जिस ढंग से विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के तहत खाद्यान्न व कृषि उपज के आयात को भारत सरकार द्वारा खुली छूट दी जा रही है उससे तो आत्मनिर्भरता की बात अतीत की हो गयी है। सबसे बढ़िया उदाहरण तो खाद्य तेलों का है। तिलहनों का उत्पादन बढ़ाते-बढ़ाते हम नब्बे के दशक के प्रारंभ में लगभग आत्मनिर्भरता पर पहुंच गये थे। आयात मात्र तीन प्रतिशत रह गया था। लेकिन पिछले दो वर्षों से खाद्य तेलों के आयात को खुली छूट देने से देश में अमरीका के सोया-तेल और मलेशिया के पाम-आईल की बाढ़ आ गयी है।भारतीय खेती पर आयात के सबसे बड़े संकट पर राष्ट्रीय कृषि नीति आश्चर्यजनक रूप से मौन है। सत्ताइसवें पैरे में जाकर यह मात्र दो-तीन पंक्तियों में इतना कहती है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार की लगातार समीक्षा की प्रणाली विकसित की जाएगी और करों को समुचित सुरक्षा प्रदान की जायेगी। लेकिन खाद्य तेलों के अनुभव से स्पष्ट है कि मात्र आयात शुल्क बढ़ाने से आयात कम नहीं होते, क्योंकि उन वस्तुओें के निर्यातक देशों की अनुदान देने की क्षमता असीमित है।विश्व व्यापार संगठन की गुलामी राष्ट्रीय कृषि नीति में भी निर्लज्जता से स्वीकार की गयी है, जहां यह कहा गया है कि ट्रिप्स समझौते के तहत फसलों की नई किस्मों पर शोध तथा प्रजनन को प्रोत्साहन देने के लिए पौधों की सुरक्षा का कानून बनाया जाएगा (पैरा 23)। इस कारण से कंपनियों को अपने नए बीजों के विषय में पेटेंट जैसा ही एकाधिकार स्थापित करने की सुरक्षा मिलेगी। उनके मुनाफे बढ़ जाएँगे। वास्तव में मोनसेन्टो जैसी अनेक बदनाम कंपनियां भारत में अपना कारोबार शुरू करने के लिए इसी कानून की राह देख रही हैं।बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समर्पित इस कानून की ज्यादा आलोचना होने लगी तो इसके नाम से ''किसानों के अधिकार'' को भी जोड़ दिया। लेकिन कानून के वर्तमान मसौदे की 89 धाराओं में मात्र एक धारा किसानों के लिए है और उसमें भी किसानों के अधिकार के नाम पर यह कहा गया कि किसान कंपनियों के रजिस्टर्ड बीज से पैदा उपज को बेचने या रखने के लिए स्वतंत्र होंगे, लेकिन उसको ''बीज'' के रूप में बेच नहीं पाएँगे। यह अधिकार है या मजाक? उपज तो किसान बेचेंगे ही, नहीं तो बीज का इस्तेमाल ही क्यों करेंगे?इस नए कानून के साथ भारत की खेती में जैव टेक्नालॉजी और जीन-इंजीनियरिंग का बड़े पैमाने पर प्रवेश होगा, जो आज दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सबसे बड़े और फलते-फूलते धंधों में से एक है। राष्ट्रीय कृषि नीति में कम से कम चार जगह इसके उपयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। लेकिन इसका स्वागत करने से पहले जीन-संशोधित बीजों और प्रजातियों पर पूरी दुनिया में जो सवाल उठ रहे हैं उन पर भी गौर कर लेना चाहिए।कृषि नीति में जीन-संशोधित प्रजातियों के अलावा अन्य कई प्रकार से आधुनिक टेक्नोलॉजी का सहारा लेने की बात कही गयी है। ग्रीनहाउस, शीत घरों की श्रृंखला, बूंदाबांदी या टपक सिंचाई, कंप्यूटरीकरण, मछली पकड़ने की नावों के मशीनीकरण, गहरे समुद्र में मछली उद्योग के तंत्र आदि की चर्चा इसमें है।इस कृषि नीति का एक हिस्सा ''खतरा प्रबंधन'' को समर्पित है। एक प्रकार से यह स्वीकार किया है कि भारतीय खेती में जोखिम और खतरे बढ़े हैं। इसके लिए इस कृषि नीति में एक ही दवा है, वह है राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना। लेकिन फसल बीमा योजना का अभी तक का अनुभव बहुत खराब रहा है, और उससे किसानों को कोई मदद नहीं मिली है, सिर्फ बीमा कंपनियों का धंधा बढ़ा है।

( विकास संवाद के लिए तैयार एग्री पैक का हिस्सा - शिवनारायण )

ठेका, संविदा या कॉन्ट्रेक्ट खेती

भले ही संविदा, ठेका या कॉन्ट्रेक्ट खेती की सोच या विचार आज समय की मांग हो। पर हमारे देष में स्थानीय का रूप परंपरा से चला आ रहा है। बटाई, सिकमी, अधिया या खोट जैसे नामों से अलग-अलग क्षेत्रों में पुकारी जाने वाली इस खेती का मूल मकसद एक अवधि विषेष के लिये खेती को खरीद लेना ही है। मूलत: षहरों में रहने वाले अनुपस्थित जमीदांर, नवाब, जोतदार, बड़े किसान, मालगुजार या दीवान अपनी खेती छोटे-छोटे किसानों से इसी पध्दति से कराते आये हैं। इनकी षर्ते और तरीके भी कम षोषणकारी और अमानवीय नहीं होते थे। बस फर्क इतना था कि ये स्थानीय और स्वदेषी होते थे बहुराष्ट्रीय नहीं। ये सांमत मारते तो थे पर मरने नहीं देते थे, पर आज की ये कंपनियां छोटे-मोटे किसानों को भी भिखमंगा बनाकर आत्म हत्या की और पहुंचा रही है। दूसरे स्तर पर साधनों के अभाव में छोटे-मोटे किसान भी अपनी जमीन सिकमी (ठेका) पर दे देते थे। और धीरे-धीरे सिकमी देते हुये ये जमीन उनके हाथ से भी निकल जाती थी। सिकमी का समझौता प्राय: जमीन की पैदावार, दूरी, सिंचाई और दोनों पक्षों की आपसी समझ के हिसाब से होता था।असल में हमारे यहां खेती जीविका और जीवन का एक हिस्सा जरूर थी, पर वस्तु, बाजार या व्यवसाय नहीं थी। आज की कंपनियों की पहली षर्तें खेती को वस्तु बनाकर व्यवसाय के लिये बाजार तक पहुंचाना है। इसलिये आज की ठेका खेती का मूल सोच ही लाभ पर आधारित है। इसके लिये हमारी सरकार ने डब्लू,टी.ओ. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय दवाब में नई कृ्रषि नीतियों की घोषणा की है। सबसे खतरनाक तो हमारे सीलिंग या भूमि हदबंदी कानूनों को समाप्त करना है। जो हजार, दो हजार एकड़ के फार्मो के लिये जरूरी है। कृषि नीति कहती है कि ऐंसी खेती से प्रोद्योगिकी का हस्तांतरण, पूंजी का अंर्तप्रवाह और तिलहन, कपास, चाय, काफी, नारियल तथा फलों का बाजार मजबूत हो सकेगा।संविदा खेती को बढ़ावा देने के लिये कृषि सुधार प्रस्ताव 2004 में केन्द्रीय कृषि मंत्री के नेतृत्व में सारे प्रदेषों के कृषि मंत्रियों की बैठक में इस प्रस्ताव पर लंबी चर्चा हुई। उसके अनुसार कृषि सुधार प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातें हैं, पहला कार्य मंडियों का निजीकरण, दूसरा अनुबंध खेती व लीज की खेती में मौजूद प्रतिबंधात्मक कानून (भूमि हदबंदी कानून) को खत्म करना और तीसरा भूमि षेयर कंपनियों का उदय। इस कानून से भारत में पचास करोड़ से ज्यादा लघु और सीमांत किसानों यानि 3 से 5 एकड़ खेती वाले किसानों के लिए अपनी पुष्तैनी खेती से बेदखल होना पड़ेगा। भारत की नई राष्ट्रीय कृषि नीति के मसौदे में फसलों के विभिन्नीकरण्ा (डायवरसीफिकेषन) की वकालत की गई है। इसके तहत् किसान खाद्यान्न फसलों को पैदा करने के स्थान पर केषक्राप का उत्पादन करेंगे तथा उनके उत्पादित माल का निर्यात होगा। लिहाजा विदेषी मुद्रा में इजाफा होगा, साथ ही कृषकों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। फसल विभिन्नीकरण में बड़ी पूंजी की आवष्यकता होगी जिसकी निजी क्षेत्र से आपूर्ति की जायेगी। अत: बड़ी कंपनियों, क्रेडिट सप्लायर (बैंक) तथा विषेषज्ञों के गठजोड़ से संविदा खेती षुरू की जायेगी। किसानों के साथ एक एग्रीमेन्ट होगा जिसके तहत् पूर्व निर्धारित दरों पर उन्हे अपना उत्पाद कंपनियों को बेचना पड़ेगा। फिलहाल संविदा खेती का कोई कानून नहीं बनाया गया है। अत: किसान व अन्य पक्ष अदालत से न्याय प्राप्त करने में असमर्थ होगे। दूसरा दुखद पहलु यह है कि एक तरफ देष के संसाधन विहीन गरीब किसान होगे तथा दूसरी तरफ धन/सुविधा संपन्न कंपनियां। क्या इस खेल के खिलाड़ी समान हैसियत रखते है और क्या खेल का मैदान समान धरातल पर है?पहले अनुबंध कृषि व कारपोरेट कृषि केवल वृक्षारोपण कार्यक्रम और बेकार पड़ी जमीन के विकास तक ही सीमित थे। लेकिन 2000 में नई कृषि नीति (पहली) की घोषणा के बाद बुनियादी क्षेत्र में भी इसे अमल में लाया जा रहा है। कृषि क्षेत्र से जुड़ी निजी कंपनियों के सामने कृषि पैदावार की गुणवत्ता बरकरार रखने की बड़ी चुनौती थी क्योंकि इसका निर्धारण खरीदार करते हैं। इसके अलावा दूसरा महत्वपूर्ण मसला गुणवत्ता बरकरार रखते हुए समय पर आर्डर पूरा करना था। पेप्सीको ने इस सिलसिले में महत्वपूर्ण पहल करते हुए अनुबंध कृषि को नया आयाम दिया। कंपनी ने पंजाब के सगरूर जिले में संसाधनों पर आधारित अनुबंध के तहत कृषि समझौता किया। कंपनी ने किसानों को बाजार मुहैया कराने के साथ पैदावार की समीक्षा के अलावा पैदावार में सुधार के उपाय सुझाए। इसके जरिए किसानों को अच्छे खरीदार भी मिल गए और उन्हें अपनी पैदावार का उचित मूल्य मिलने लगा। इसी तरह टे्रक्टर का उत्पादन करने वाली प्रमुख कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने भारतीय किसानों को ध्यान में रखते हुए षुभ-लाभ सेवा की षुरूआत की। इसके तहत दो बातों पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया। जिसमें पहला सामुदायिक कृषि को बढ़ावा देना और दूसरा एक ही केन्द्र पर किसानों की आवष्यकताओं के अनुरूप जरूरी सभी सुविधाएं उपलब्ध कराना।1980 के दषक से भारतीय कृषि को विष्व बाजार से जोड़ने की मुहिम षुरू हुई। कृषि व्यवसाय वाली कंपनियां 1990 के दषक से जोरदार ढंग से आगे आईं। सरकार ने 'वाषिंगटन आम राय' पर आधारित भूमंडलीकरण को स्वीकार कर उन्हें बढ़ावा दिया। इसे बड़ी कंपनियों और विष्व खाद्य और कृषि संगठन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का पुरजोर समर्थन मिला है। यह नुस्खा है 'कांट्रेक्ट फार्मिग' या ठेके पर खेती का। विष्व खाद्य और कृषि संगठन के चार्ल्स ईंटन और एंडयू डब्लू षेफर्ड ने 'कांट्रेक्ट फार्मिग पार्टनरषिप्स फॉर ग्रोथ' नामक पुस्तक में इस नुस्खे पर विस्तार से प्रकाष डाला है। इसके अंतर्गत किसानों और ठेके पर खेती करने की इच्छुक कंपनियों के बीच करार होगा। किसान अपनी जमीन उन्हें बेच देंगे या लगान की तय दर पर दे देंगे। चाहें तो ऐसा करने वाले किसान कंपनियों के फार्मो पर मजदूर के रूप में काम करेंगे। इस प्रकार कृषि पारिवारिक न होकर पूरी तरह पूंजीवादी हो जाएगी। पैदावार संबंधी सारे फैसले क्या उगाएं, कैसे उगाएं और किनके लिए उगाएं कंपनियां करेंगी। दूसरे षब्दों में, फसलों के चुनाव, खेती के तौर-तरीकों, निवेष और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल और बाजार के बारे में निर्णय कंपनियां ही लेंगी। इन सब निर्णयों का आधार मुनाफा बढ़ाना ही होगा। मुनाफे को अधिकतम करने के लिए लागत को कम से कम करने का प्रयास होगा। इस प्रकार कृषि का उद्देष्य रोजगार के अवसर बढ़ाना कतई नहीं होगा। नगरों में संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर न मिलने पर वे अनौपचारिक (इन्फार्मल) क्षेत्र में लगेंगे।कहा जा रहा है कि अनुबंध या ठेका-खेती (कांट्रेक्ट फार्मिग) अपनाने से ही भारतीय गांव और किसान सुखी होंगे। इस ओर पहला कदम पंजाब ने 1980 के दषक में बढ़ाया जब पेप्सी फूड्स लि. ने वहां बाईस करोड़ रूपयों की लागत से टमाटर से विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए कारखाना लगाया। चूंकि टमाटर पूरी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहा था इसलिए 'पेप्सीको' नामक उससे जुड़ी कंपनी ने अनुबंध-खेती षुरू की और 1990 के दषक में बासमती चावल, मिर्च, मूंगफली और आलू भी उगाना षुरू कर दिया।संसद में दी गई जानकारी के अनुषार मध्यप्रदेष में अंनुबंध (ठेका) खेतीवैज-ओ फे्रष लि. इंदौर फ्रिटो ले इंण्डियाआलू ब्राऊनपैप्सीको इण्डिया लि. बीकानेर वाला फूड्सप्याज, लहसुनजैन सिंचाई जलगांव, उद्योग मंदसौर (मध्यप्रदेष)धनियाराजस्थान इंटरनेषनल इंदौर कन्नान व कं. इंदौर मैरिकोक्ुसुमरालिस, डाबरगेंहू दवाइयां, प्लांट्स और हर्बलहंस, अगस्त 2006 से प्राप्त जानकारीशुरुआत में वर्ष 2000 में, मध्यप्रदेष की दिग्विजय सिंह सरकार ने आंषिक रूप से 1970 के राज्य कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में संषोधन किया। इस संषोधन से निजी खरीदारों को मंडी प्रांगण के बाहर खरीदी केंद्र स्थापित करने के लिये मंडी समितियों द्वारा लाइसेंस देने का प्रावधान बन गया। इसके लिये एक वक्त में ही रू. 10,000 लाइसेंस शुल्क देने व कुछ सुरक्षा निधि जमा कराने का प्रावधान बनाया गया। 9 सितंबर 2003 को केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारों के परामर्ष से एक मॉडल कानून का अंतिम प्रारूप तैयार किया। जिसे नाम दिया गया 'राज्य कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 2003' इस मॉडल अधिनियम के तहत देष में कृषि बाजारों के प्रबंधन व विकास में सार्वजनिक व निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने, निजी मंडियां व सीधे खरीदी केंद्र कायम करने के प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों में देष में अनुबंध खेती की व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन देने व नियंत्रित करने के कानून एवं अधिनियम भी शामिल हैं। यह कानून मौजूदा कृषि उपज मंडी समिति की भूमिका को भी पुनर्भाषित करता है। ताकि इसका नई विपणन व्यवस्था तथा अनुबंध खेती के साथ ठीक तालमेल बैठ जाए।

कुछ खास बिन्दु निजीकरण के

सारी दुनिया में खेती एक जिंस बन गई है। इससे भारतीय खेती में भी कंपनी या निजी क्षेत्र की घुसपैठ काफी बढ़ी है। नतीजा यह है कि भारतीय खेती का ढांचा बहुत तीव्र बदलावों के दौर से गुज़र रहा है। इस बदलाव के 4 प्रमुख बिन्दु हैं: 1। केन्द्र और राज्य के स्तर पर सरकारें कृषि क्षेत्र में कंपनियों के निवेश को सक्रिय सहयोग दे रही हैं और मौजूदा कानूनी प्रावधानों को भी बदल कर उनके प्रवेश को आसान बना रही हें। 2। आमतौर पर समूचे किसान समुदाय और खास तौर पर छोटे खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिए बनाई गई सार्वजनिक एजेंसियों ने अपने निर्धारित लक्ष्यों को बहुत ही कम हासिल किया है। बहुत सारी संस्थाओं व निकायों ने अपने आपको नाकाबिल व भ्रष्ट साबित किया है। इन संस्थाओं व निकायों की इज्जत सरकार और मीडिया की निगाहों में तो गिरी ही है, साथ ही इन संस्थाओं से लाभान्वित होने वाले किसान समुदाय के बीच भी इनकी कोई साख नहीं है। यदि इन सार्वजनिक संस्थाओं को दुरूस्त करने के मजबूत उपाय नहीं किए जाते, तो निजी कंपनियों के लिए खुला मैदान छोड़कर ये पूरी तरह खत्म हो जाएंगी। 3। पूंजीवादी (अमीर) किसानों की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लॉबी, जो पहले पंजाब और हरियाणा में उभरी थी, अब पूरे हिंदुस्तान में फैल रही है। इनको बड़े कॉर्पोरेट घरानों का भी अच्छा-खासा आर्थिक समर्थन हासिल है। आखिरकार कॉपोरेट क्षेत्र ऐसी जगह पर घुसपैठ नहीं कर सकता, जहां उनकी मेहमानवाजी करने को भी कोई न हो और जहां पर्याप्त अतिशेष मौजूद न हो। 4. जैसा कि हमेशा, हर जगह इतिहास में होता आया है, पूंजीवादी वाली खेती के बढ़ने से अनगिनत छोटे किसानों ने अपनी जमीनें गंवाई हैं और सर्वहारा वर्ग की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। इनमें महज किसान ही नहीं, बल्कि भूमिहीन खेत मजदूर, छोटे-छोटे दस्तकार, छोटे व्यापारी और अन्य छोटे-छोटे बिचौलियों के काम करने वाले लोग भी शामिल हैं। सर्वहारा की इस नई उभरती हुई भीड़ के पास कोई रोजगार नहीं है, कहीं और तो पहले भी नहीं था, अब खेती में भी नहीं बचा। बिलकुल साफ है कि यह बेदखल होते छोटे और सीमांत (हाशिए के) किसानों और किसानी से जुड़े इसी तरह के छोटे खिलाड़ी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए कुछ उत्पादक अवसर तभी पा सकते हैं, जब बाजार की जारी प्रक्रिया में राज्य और सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा भारी-भरकम हस्तक्षेप किया जाए। लेकिन विडंबना यह है कि इन असंगठित और बिखरे हुए लोगों को राजसत्ता के भीतर अपनी जायज जगह हासिल करने का कोई तजुर्बा नहीं है और इसीलिए वे उस जगह को भी नहीं देख पाते, जो सैध्दान्तिक रूप से उनके लिए मौजूद है। यह परिस्थिति कुछ निडर और रचनात्मक कदम उठाए जाने की मांग करती है। ताकत और इच्छाशक्ति खो चुकीं सार्वजनिक एजेंसियों को फिर से वैसे ही खड़ा करने का कोई फायदा नहीं होने वाला। हमें संपूर्ण पुर्नरचना के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत है। ( विकास संवाद के लिए तैयार एग्री पैक का हिस्सा - शिवनारायण )

Thursday, November 15, 2007

राष्ट्रीय कृषि नीति एवं कान्ट्रेक्ट खेती - डा बद्री विशाल त्रिपाठी

कान्ट्रैक्ट खेती क्या है ?भारत सरकार ने कृषि विकास हेतु व्यापक परिप्रेक्ष्य में सन् 2000 में राष्ट्रीय कृषि नीति घोषित की। राष्ट्रीय कृषि नीति में कान्ट्रेक्ट खेती का भी प्रावधान किया गया है। यह उल्लेख किया गया है कि कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को कान्ट्रेक्ट खेती और पट्टे पर भूमि देने की व्यवस्था द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा। कान्ट्रेक्ट खेती को प्रसंस्करण एवं विपणन फर्मों तथा कृषकों के मध्य समझौते के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है। कान्ट्रेक्ट खेती के अनुसार कृषक अपनी जोत पर कान्ट्रेक्ट करने वाली कम्पनी द्वारा बताई गई फसल बोयेगा तथा कान्ट्रेक्ट करने वाली फर्म द्वारा बीज, खाद उर्वरक एवं तकनीक की आपूर्ति की जायेगी। कृषक की सम्पूण उपज ठेकेदार कम्पनी द्वारा खरीद ली जायेगी। इससे प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और पूंजी का अंतर्प्रवाह बढ़ेगा तथा तिलहन, कपास और फल की फसलों के लिये सम्यक बाजार उपलब्ध हो सकेगा। ऐसा दावा कृषि नीति में किया गया है। इस प्रकार यह कृषकों और कम्पनियों के बीच अग्रिम करार के अंतर्गत कृषि अथवा बागवानी उपजों के उत्पादन तथा आपूर्ति की एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था की विशेषता यह है कि इसमें कृषक निश्चित प्रकार की कृषि-उपज पूर्वत: निश्चित कीमत और समय पर पैदा करने के लिए वचनबध्द होता है। पूर्वत: निर्धारित कीमत, फसल की गुणवत्ताा और मात्रा/एकड़ तथा समय कान्ट्रेक्ट खेती के प्रमुख तत्व होते हैं। कंपनियों, कृषकों एवं फसलों के विभिन्न प्रकार कान्ट्रेक्ट की पृथक-पृथक शर्तें तथा विभिन्न क्षेत्रों की सामाजिक दशा में अंतर के कारण कान्ट्रेक्ट खेती के स्वरूप में भी स्थान-स्थान पर अंतर पाया जाता है। अत: कान्ट्रेक्ट खेती के स्वरूप का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है। उसका स्वरूप विभिन्न घटकों की क्रियाशीलता के कारण परिस्थिति सापेक्ष होता है। परन्तु कुछ अंतर्निहित तत्व सभी स्थानों पर पाये जाते हैं।
इस प्रक्रिया में कृषकों और पट्टेदार के बीच कृषि जोत को लेकर कान्ट्रेक्ट होगा। कान्ट्रेक्ट अवधि के लिये जोत लगान पर या पट्टे पर कम्पनियों को दी जा सकती है। कान्ट्रेक्ट के अनुसार कृषक को अपनी भूमि पर कान्ट्रेक्ट करने वाली फर्म की फसल उगाना पड़ता है। कान्ट्रेक्ट भूमि की उपज कृषक पूर्व निर्धारित कीमत पर कान्ट्रेक्टर को देता है। कान्ट्रेक्टर व्यक्ति या फर्म कृषक को प्राविधिक जानकारी सहित अन्य सभी आगतें उपलब्ध कराता है। कृषक अपनी भूमि और श्रम देता है। भूमि पर उगायी जाने वाली फसलों की प्रकृति, प्रयुक्त तकनीक तथा खेती में होने वाले बदलावों के अनुसार कान्ट्रेक्ट की शर्ते व प्रकृति बदलती है। यह तर्क दिया जाता है कि कृषकों को बहुधा लाभदायक कीमतें नहीं मिल पाती है और कभी-कभी उन्हें अत्यन्त नीची कीमतों पर अपना उत्पाद बेचना पड़ जाता है। दूसरी ओर कृषि आधारित उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में गुणवत्ताा युक्त कृषि उत्पाद नहीं मिल पाता है। कृषि परिदृश्य का यह विरोधाभास कान्ट्रेक्ट कृषि की अवधारणा को बल देता है। इससे खेत बाजार में सम्यक सह सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। बड़े कृषि फार्मों पर पूंजी प्रधान उन्नत कृषि विधियों, उन्नत कृषि उपकरणें और आगतों के प्रयोग से उचित मूल्य वाली फसलों का उत्पादन और पौध संरक्षण विधियों का प्रयोग होने से उत्पादन बढ़ेगा। खेती का निगमीकरण हो जायेगा खेती सम्बन्धी सभी निर्णय तथा फसलों के चयन कृषि के तौर-तरीके, प्रौद्योगिकी के प्रयोग और कृषि निवेश सम्बन्धी निर्णय तथा बाजार सम्बन्धी निर्णय बड़ी कृषि कम्पनियों द्वारा लिये जायेंगे।
बड़ी कम्पनियों की विशेष दिलचस्पी कुछ उदाहरणकृषि नीति, के विविध प्रावधानों में से कान्ट्रेक्ट खेती से सम्बन्धित प्रावधान के प्रति बड़ी कम्पनियों में अत्यधिक उत्साह है। कम्पनियाँ कान्ट्रेक्ट खेती की ओर अग्रसर हैं। पेप्सी कम्पनी इस दिशा में पहले से ही अग्रसर है। पेप्सी फूड्स लि. कम्पनी से जुड़ी पेप्सी कोला नामक कम्पनी ने 1989 में पंजाब के होशियारपुर जिले के जाहरा गांव में 20 करोड़ रुपये की लागत से टमाटर का प्रसंस्करण करने का संयंत्र लगाया और पंजाब में कान्ट्रेक्ट खेती आरम्भ की। कम्पनी ने इससे उत्साहित होकर पंजाब के जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर और संगरूर जिलों तथा पश्चिमी उत्तार प्रदेश के कुछ भाग में बासमती चावल, आलू और मूंगफली की खेती भी आरंभ की। अपाची काटन कम्पनी ने वर्ष 2002 में तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले के कि नाथकडाऊ विकास खंड में कृषकों को कपास बोने के लिये सहमत किया। उत्तारी कर्नाटक में कृषक गन्ना की फसल पर केन्द्रित थे। गन्ने की बार-बार सिंचाई होने के कारण भूमि क्षारीय हो रही थी। इसका लाभ उठाकर न्यूगार शुगर वक्र्स लिमिटेड ने कृषकों को जौ की खेती के लिये प्रोत्साहित किया। उसे अपनी कम्पनी के लिये जौ की आवश्यकता थी। इससे कम्पनी को आस-पास जौ मिलने लगा तथा उत्तार भारत से जौ मंगाने पर लगने वाली अधिक यातायात लागत बच गयी। मध्य प्रदेश में हिन्दुस्तान लीवर, रल्लीज और आई.सी.आई.सी.आई द्वारा सम्मिलित रूप से गेहूँ की खेती कराई जा रही है। इस व्यवस्था में रल्लीज कृषि और प्राविधिक सलाह और आई.सी.आई.सी.आई कृषि साख उपलब्ध करता है। हिन्दुस्तान लीवर उनकी उपज खरीदती है। इससे कृषकों को सुनिश्चित बाजार, हिन्दुस्तार लीवर को गुणवत्ता युक्त उत्पादन तथा रल्लीज एवं आई.सी.आई.सी.आई को सुनिश्चित ग्राहक मिल जाते हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तार प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात में कई स्थानों पर संविदा कृषि होने लगी है। दक्षिण भारत में कई स्थानों पर मसाले के उत्पादन हेतु कान्ट्रेक्ट खेती की जा रही है। रिलायंस कम्पनी कान्ट्रेक्ट फार्मिंग के आधार पर अनाज फल, मसाले, सब्जियां आदि की खेती के लिये हरियाणा में अग्रसर है। पश्चिम बंगाल और असम में चाय की कान्ट्रेक्ट खेती आरंभ की है।
कांट्रेक्ट खेती का विज्ञापनकान्ट्रेक्ट खेती वस्तुत: बहुराष्ट्रीय निगमों की कृषि प्रणाली के समान है। इसमें भूमि का नाम मात्र का स्वामित्व कृषकों के पास रहेगा। निर्णय का असली अधिकार कम्पनी के पास हो जायेगा। कृषि कार्य आधुनिक कृषि यंत्रों की सहायता से किराये के श्रमिकों द्वारा किया जायेगा। अधिकांश उत्पादन बाजार के लिए होता है, विशेष रूप से व्यापारिक फसलों का उत्पादन किया जाता है। उपज को बाजार एवं उपभोग योग्य बनाने के लिए प्रसंस्करण्ा इकाइयाँ होती हैं। अत: इन निगमों का कृषि फार्म एक कृषि और औद्योगिक संस्थान होता है। उपयुक्त मशीनें और अन्य उत्पादन के साधन प्राप्त हो जाते हैं। फलत: कृषि परम्परावादी नहीं रह जाती है। एक स्थान पर मुख्य रूप से एक विशेष फसल का उत्पादन होता है जिससे उस फसल के गुण और मात्रा में वृध्दि हो जाती है और बड़े पैमाने की कृषि के समस्त लाभ प्राप्त हो जाते हैं। कृषि विकास एवं नवीनीकरण की सम्भावना बनी रहती है और भूमि का अधिकतम दोहन होता है। कृषि में उन्नत तरीकों को प्रोत्साहन मिलता है। बाजार में विस्तार, उद्योगों के विस्तार को प्रोत्साहित करेगा तथा यातायात और संचार के साधनों में सुधार होगा। कृषि कार्य अब अधिक पूंजी की अपेक्षा करने लगा है। नवीन कृषि निवेशों के लिये अधिक पूंजी की आवश्यकता होने लगी है। अत: कम्पनियों की कृषि प्रणाली उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने के लिये उपयोगी है। परन्तु वास्तविक एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में कान्ट्रेक्ट खेती में गंभीर विसंगतियां हैं जिनके कारण इसे कृषि प्रणाली के रूप में अंगीकृत नहीं किया जा सकता है।
कान्ट्रेक्ट खेती से खेती और किसानों को हानियाँइस प्रणाली में कृषि उत्पादन मुख्यत: व्यापारिक फसलों का होगा। फसल प्रारूप एवं फसल संरचना में अभी ही व्यपारिक फसलों के अंतर्गत क्षेत्र बढ़ने लगा है, यह प्रवृत्तिा बढ़ेगी। भारत में खाद्य पदार्थों की अत्यधिक आवश्यता बनी रहती है। यदि देश की अधिकांश भूमि पर व्यापारिक फसलों का ही उत्पादन होगा तो हमारी खाद्य समस्या अधिक जटिल हो जायेगी और अनाज के लिये पुन: हमें विदेशों पर निर्भर रहना पड़ेगा। कान्ट्रेक्ट खेती में भूमि के स्वामी कृषक को कृषि क्षेत्र पर कार्य के बदले मात्र कीमत मिलती है। युनाइटेड प्राविन्सेज की जमींदारी उन्मूलन समिति में भी इस प्रणाली की इन्हीं आधारों पर अनुपयुक्तता बताई गई थी। वह पध्दति जो किसानों को उनके वास्तविक अधिकारों से वंचित कर देती है, उन्हें औद्योगिक श्रमिक की स्थिति में घटा कर ला देती है और उन्हें पूँजीवादी शोषण का विषय बना देती है, वह विचार योग्य नहीं। कान्ट्रेक्ट खेती का लक्ष्य उत्पादन एवं लाभ को अधिकतम करना होता है। वह भूमि की उर्वरा शक्ति का अधिकतम शोषण करता है जिससे भूमि के स्वाभाविक गुण धर्म में ह्वास होता है। वर्तमान कृषि प्रणाली का यह भी दायित्व है कि आगामी पीढ़ी के लिये समुन्नत भूमि संसाधन हस्तांतरित करे जो भूमि संसाधन के अतिशोषण के कारण सम्भव न हो सकेगा।
ऍंग्रेजी शासन का कटु अनुभवअंग्रेजों के शासनकाल में कम्पनियों द्वारा कृषि चाय बागानों, कहवा और रबर बागानों तथा नील की खेती के रूप में आरंभ हुई। चाय बागानों के मजदूरों की खराब दशा पश्चिम बंगाल और असम में देखी जा सकती है। नील की खेती के लिये अंग्रेजों ने 'तिनकठिया व्यवस्था' लागू की थी जिसके अनुसार प्रत्येक कृषक को अपनी भूमि के 3/20 भाग पर नील की खेती अवश्य करनी था। अत्याचार के भय से कृषक इससे अधिक भाग पर ही नील की खेती करते थें नील की खेती करने वालों की दुर्दशा और निलहों की कार्यशैली पर व्यंग करते हुये 1860 में दीनबन्धु मित्रा ने 'नील दर्पण' नामक नाटक लिखा था। महात्मा गांधी ने दक्षिणी अफ्रीका से लौटने के बाद चम्पारन जिले में नील के काश्तकारों और मजदूरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठायी और वहीं से देश के स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुये। कम्पनी कृषि के अनुभव अत्यन्त खराब रहे हैं।यदा कदा यह पाया गया है कि कान्ट्रेक्ट खेती से कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया, उन्हें स्थायी आय के स्रोत प्राप्त हुये। रोजगार के अधिक अवसर सृजित हुये तथा कृषकों को कृषि की नवीन एवं अधिक कुशल तकनीक ज्ञात हुयी। परन्तु सामान्य रूप से कान्ट्रेक्ट खेती के परिणाम हानिकारक रहे हैं। यह पाया गया है कि कान्ट्रेक्ट की शर्तें पक्षपात पूर्ण एवं बहुधा कृषक विरोधी होती हैं और उन्हें कड़ाई के साथ लागू किया जाता है। कम्पनियां कृषि उपज की नीची और अपनी सेवाओं की ऊँची कीमतें निर्धारित करती हैं। उपज की कीमत भुगतान करने में विलंब करती हैं। प्राकृतिक आपदा, प्रतिकूल मौसम एवं अन्य कारणों से कृषि में नुकसान की कम्पनियां क्षतिपूर्ति नहीं करती है। भू-गर्भ जल का अतिदोहन, मिट्टी में क्षारीयता बढ़ना, भूमि की उर्वरता में ह्वास, पारिस्थितिक ह्वास एवं संसाधनों का बर्बर दोहन कान्ट्रेक्ट खेती प्रणाली की सामान्य बात है। कान्ट्रेक्टेड भूमि की उर्वरता कम हो जाने और क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो जाने के बाद कान्ट्रेक्टर फर्में नये क्षेत्रों में कान्ट्रेक्ट करती हैं। कृषकों की सौदा करने की शक्ति कम होती है। अत: कान्ट्रेक्ट खेती में अधिक लाभ फर्मों को प्राप्त होता है। कृषि साख एवं अन्य कृषि आगतों की प्राप्ति के लिये कृषक पराश्रित हो जाते हैं। कृषक एवं कान्ट्रेक्ट फर्मों में आरंभ में सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण होते हैं परन्तु कुछ समय बाद ही उनमें कटुता उत्पन्न हो जाती हैं।
बड़ी कंपनियों में जमीन पर कब्जा करने की होड़वस्तुत: निगमीय कृषि करने वाली कम्पनियाँ राष्ट्रीय कृषि नीति के शब्दों का पालन कर रही हैं, उसकी भावना का नहीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनआकांक्षाओं, आंदोलनों और कार्यक्रमों को ध्यान में रख कर आर्थिक न्याय की दृष्टि से जमींदारी उन्मूलन एवं जोत सीमाबन्दी के कानून विभिन्न राज्यों मे पारित किये गये। आज उन कानूनों को राज्य सरकारों द्वारा बदला जा रहा हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना की रिर्पोट में कहा गया है कि हाल की अवधि में राज्य सरकारों ने भूमि कानूनों को उदार बनाने की पहल की है ताकि निगमीय कृषि को बढ़ावा दिया जा सके। भूमि पर पूंजीपतियों का स्वामित्व क्रमश: बढ़ रहा है। छोटे किसानों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। अब तो व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनाने और उपनगर बनाने के लिये औद्योगिक घराने लाखों एकड़ भूमि खरीद रहे हैं। उनकी भूमि-क्षुधा अत्यन्त तेजी से बढ़ रही है। विकास के नाम पर खेती वाली जमीन गैर-कृषि प्रयोग में हस्तांतरित हो रही है। भूमि बैंक बन रहे हैं। कृषि क्षेत्र में पिछले दस वर्षों से गतिहीनता की दशा बनी है। कम्पनियां भूमि ग्रहण के प्रति अत्यन्त जल्दी में हैं। उनमें परस्पर प्रतिद्वन्दिता बढ़ रही है। भूमि को लेकर अतीत में समाज में कलह और राष्ट्रों में युध्द होते थे। भूमि आज भी विवादों का एक प्रमुख कारण है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) और विशेष कृषि आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना की घोषणा के बाद इस प्रवृति को अधिक बल मिला है। विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना, अवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, आवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, सड़क निर्माण आदि के लिये व्यावसायिक घराने एवं कम्पनियाँ लाखों एकड़ भूमि खरीदने को आतुर हैं। रिलायंस इन्डस्ट्रीज, टाटा समूह, बाबा कलयानी, सहारा, महिन्द्रा ग्रुप, अंसल, इन्फोसिस, इंडिया बुल्स आदि नगरों में या उसके निकट बड़े-बड़े भू-भाग खरीदने को आतुर हैं। टाटा समूह ने भारत में कहीं भी 3 एकड़ से 2500 एकड़ तक भूमि निजी स्वामियों से खरीदने का विज्ञापन दिया है। कान्ट्रेक्ट खेती तात्कालिक आधार पर लाभदायक प्रतीत हो सकती है, उत्पादन वृध्दि कर सकती है, परन्तु सतत विकास की दृष्टि से यह प्रणाली उपयोगी नही है। पट्टे पर जमीन देना स्वतंत्रता से पूर्व कृषि प्रणाली का अंतर्निहित अंग रहा है। इस व्यवस्था में जमींदार पट्टे पर स्वामित्व विहीन कृषकों को जमीन देते थे जिसमें निष्ठुर लगान व्यवस्था सामान्य थी। भूमि व्यवस्था का यह अत्यन्त विवादास्पद स्वरूप था। अब प्रतिवर्ती पट्टे की दशायें उत्पन्न हो रही है। अब पट्टे पर काश्तकार जमीन दे रहे हैं जो अन्तत: कृषक और कृषि दोनों के लिए हानिकारक हैं।
पी एन एन से साभार

Monday, November 12, 2007

नंदीग्रामः स्थिति गंभीर, सीआरपीएफ़ तैनात

पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल की तैनाती के बावजूद अभी भी स्थिति गंभीर और तनावपूर्ण बनी हुई है.
उधर मंगलवार को वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी सहित कुछ एनडीए नेता भी नंदीग्राम पहुँच रहे हैं.
नंदीग्राम में मौजूद बीबीसी संवाददाता ने बताया कि मंगलवार की सुबह से सीआरपीएफ़ के जवानों ने नंदीग्राम के गांवों और अंदरूनी इलाकों में जाना शुरू कर दिया है.
हालांकि स्थिति अभी भी तनावपूर्ण बनी हुई है और मार्क्सवादी पार्टी के समर्थक पूरे नंदीग्राम में फैले हुए हैं.
संवाददाता के मुताबिक एनडीए नेताओं की नंदीग्राम पहुँचने की घोषणा के मद्देनज़र भी सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम किए गए हैं.
इससे पहले सोमवार को सीपीएम पोलित ब्यूरो की दिल्ली में बैठक के बाद महासचिव प्रकाश करात ने कहा था विपक्षी पार्टियाँ ग़ैर लोकतांत्रिक तरीक़ों से सीपीएम को सत्ता से हटाना चाहती हैं, लेकिन ताक़त के दम पर हमें नहीं हटाया जा सकता.
उन्होंने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस नंदीग्राम में माओवादियों की मदद कर रही है.
नंदीग्राम पर 'कब्ज़ा'
हालांकि बीबीसी संवाददाता ने बताया कि सोमवार की दोपहर तक ही मार्क्सवादी समर्थक पूरे नंदीग्राम को अपने प्रभाव में ले चुके थे इसलिए संघर्ष की स्थिति बदली है.
सोमवार की दोपहर नंदीग्राम के मुख्य इलाके में सीपीएम समर्थकों की एक रैली भी निकली. हालांकि कुछ गांववालों से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें डरा-धमकाकर रैली में शामिल होने के लिए बाध्य किया गया.
नंदीग्राम में सोमवार को कई जगहों पर 11 महीने बाद सीपीएम के लाल झंडे लहराते हुए नज़र आए.
सीआरपीएफ़ की तैनाती नंदीग्राम के अंदरूनी इलाकों में सोमवार तक नहीं हो सकी थी और तबतक सीपीएम समर्थक अपना काम पूरा कर चुके थे यानी पूरे नंदीग्राम को अपने प्रभाव में ले चुके थे.
नंदीग्राम पर निंदा
पर वाम गठबंधन के घटक दलों सहित कई सामाजिक संगठनों, मानवाधिकार संस्थाओं, रंगकर्मियों, बुद्धिजीवियों और विपक्षी दलों ने नंदीग्राम की स्थिति के लिए सीपीएम को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उनकी भर्त्सना की है.
लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एनडीए नेताओं का एक प्रतिनिधि मंडल नंदीग्राम जा रहा है
नंदीग्राम में जारी हिंसा के विरोध में पश्चिम बंगाल में विपक्षी दलों ने सोमवार को राज्यव्यापी बंद का आहवान किया था जिसका राज्यभर में सामान्य जनजीवन पर असर पड़ा.
कुछ दलों ने 24 घंटे से ज़्यादा अवधि के बंद का आहवान किया था पर छठ पूजा और लोगों को हो रही असुविधा को देखते हुए इसे वापस ले लिया गया है.
उधर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी नंदीग्राम की स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए राज्य सरकार को आदेश दिया है कि अगले दो सप्ताह में अपनी रिपोर्ट पेश करे.
राज्य में सत्तारूढ़ वाम गठबंधन की प्रमुख घटक, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को अब अपने सहयोगियों के भी विरोध का सामना करना पड़ा.
स्थिति यह है कि सीपीएम के सहयोगी दल सीपीआई, आरएसपी और फ़ॉरवर्ड ब्लॉक भी नंदीग्राम में बिगड़े हालातों का ठीकरा सीपीएम के सिर ही फोड़ रहे हैं। आरएसपी की इस सिलसिले में मंगलवार को एक बैठक भी हो रही है.

बी बी सी की खबर

Tuesday, November 6, 2007

भारत में कृषि संकट -डा. कृपाशंकर

किसान की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह स्वंय अपने द्वारा उत्पादित वस्तु का मूल्य निर्धारण नहीं करता। अकेला किसान ही ऐसा उत्पादक है। अब तक अन्य वस्तुओं के उत्पादक तो लागत से कई गुना मुनाफा कमाते हैं। परन्तु किसान के लिये लागत निकालना ही कठिन पड़ जाता है। फसल तैयार होने पर बहुत सी देनदारियों के लिये अपनी उपज तुरन्त बेचना उसकी मजबूरी रहती है। सभी किसानों द्वारा एक साथ बाजार में बेचने की विवशता के कारण मूल्य धराशायी हो जाता है।
यदि किसानों की संगठित सहकारी क्रय-विक्रय समितियाँ होतीं और गाँव-गाँव में उनके अपने गोदाम होते तो किसान अपनी उपज को इन गोदामों में रख कर उनकी जमानत पर बैंकों से अग्रिम धन पा सकता था ताकि वह अपनी तुरन्त की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और व्यापारियों के हाथ सस्ते मूल्य पर अपने उत्पाद को उसे न बेचना पड़े।
ऐसी सहकारी क्रय-विक्रय समितियों का गठन करना बहुत कठिन काम नहीं था। इसकी पहली शर्त थी कि व्यापक पैमाने पर ग्रामीण गोदामों का निर्माण किया जाय। पंचायत भवन तो बने लेकिन गोदामों का निर्माण नहीं हुआ। यह आकस्मिक नहीं था। यदि सहकारिता के आधार पर ऐसी व्यवस्था की जाती तो किसानों की व्यापारियों पर निर्भरता समाप्त हो जाती। क्रय विक्रय समितियाँ उत्पाद पर कुछ मुनाफा लेकर बेचती जिस कारण कृषि उपज के मूल्यों में वृध्दि हो जाती जो सरकार को स्वीकार नहीं है। सरकार सार्वजनिक प्रणाली के लिये गेहूँ चावल जिस मूल्य पर खरीदती है उसमें उत्पादन लागत ही शामिल होती है मुनाफे के लिये कोई प्रावधान नहीं होता। तब भी किसान वहाँ अपना उत्पादन इस कारण बेचते है कि वह व्यापारी द्वारा लिये गये मूल्य से अधिक होता है। हाल ही में स्वामीनाथन समिति ने यह स्वीकार किया है कि सरकार किसानो की लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत मुनाफा देकर खाद्यान्नों को खरीदे परन्तु सरकार ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया है।
भारत वर्ष सस्ते कच्चे माल और सस्ती मजदूरी के बल पर वैश्वीकरण के दौर में संसार के बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सकता है। सभी विकसित देशों ने मूल्यों के जरिये किसानों का शोषण करके ही औद्योगीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। भारत वर्ष भी उसी राह पर चल रहा है।
परन्तु यदि किसान को समुचित मूल्य नहीं मिलेगा तो न केवल उसके सामने जीविका का संकट रहेगा वरन् वह कृषि में कोई निवेश नहीं कर सकेगा जिसके अभाव में उत्पादन में वृध्दि नहीं हो सकेगी। देश में 70 प्रतिशत किसानों के पास आधा हेक्टेयर से कम भूमि है। एक हेक्टेयर में सकल कृषि उपज का मूल्य 30,000 रु. अनुमानित है। अत: लगभग तीन चौथाई किसान परिवार 15,000 रु. वार्षिक आमदनी पर जीवन यापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा 21,000 रु. मानी गई है। गरीब किसान मजदूरी करके आय में कुछ वृध्दि करते हैं। परिवार में कुल लोग यदि बाहर चले गये है या किसी अन्य काम में लग गये है तो उनकी आय में कुछ वृध्दि होती है। परन्तु एक परिवार यदि कृषि पर ही निर्भर रहे तो उसके पास कम से कम 1 हेक्टेयर सिंचित भूमि होनी ही चाहिए ताकि वह गरीबी रेखा के ऊपर रह सके। देश में 80 प्रतिशत किसान परिवार के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है।
अन्य देशों में विकास के साथ-साथ कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या घटी पर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है। स्वतन्त्रता के बाद से किसानों की संख्या ढाई गुना बढ़ी है जबकि बोये गये क्षेत्र में नाममात्र की वृध्दि हुई है। इस समय किसानों की संख्या में लगभग 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष वृध्दि हो रही है, प्रति कृषक बोया गया क्षेत्र घट रहा है। सिंचाई के क्षेत्र में कोई विस्तार नहीं हो रहा है यद्यपि केन्द्र और राज्य सरकारें 25,000 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष सिंचाई पर खर्च कर रही हैं। प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष अनाज का उत्पादन घट कर 174 किलोग्राम हो गया है तथा दालों का उत्पादन मात्र 12 किलोग्राम रह गया है। कृषि क्षेत्र में चोटी के 5 प्रतिशत के पास 40 प्रतिशत भूमि है।
इस यथार्थ के परिपेक्ष्य में यदि कृषि संकट को देखा जाय तो यह स्पष्ट होगा कि नीतियों में बगैर मूलभूत बदलाव के इस संकट का मुकाबला नहीं किया सकता।
मुख्य प्रश्न कृषि में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है। केवल चोटी के 2-3 प्रतिशत किसान ही अपनी बचत से कुछ निवेश करने में समर्थ हैं। कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सार्वजनिक निवेश ही हो सकता है, जैसे नहर निकालना या गहरे नलकूपों का निर्माण जिसमें गरीब देश में तो प्रथम चरण में कार्य सार्वजनिक निवेश से ही निवेश के गतिरोध को दूर किया जा सकता है। अत: सार्वजनिक निवेश की प्राथमिकता कृषि क्षेत्र में होना चाहिए और इसके अन्तर्गत सिंचाई, मृदा एवं जल संरक्षण पर भी सबसे अधिक बल दिया जाना चाहिए।
अपने देश में जिस विकास की बात की गई, उसमे कृषि एजेन्डा पर नहीं है। कृषि संवर्गीय कार्य जैसे-पशुपालन, जलागम प्रबन्धन, वानकी, कृषि शिक्षा एवं शोध, बीमा, सहकारिता, कृषि विपणन, सिंचाई, ग्रामीण रोजगार पर बजट के 20 प्रतिशत से अधिक का कभी प्रावधान नहीं हुआ। यद्यपि लगभग 60 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिये वर्ष 2007-08 में केन्द्रीय बजट का आकार 6,80,000 करोड़ है परन्तु कृषि कार्य, बीमा, भण्डारण, सहकारिता, पशुपालन, शोध एवं शिक्षा पर 9400 करोड़ का ही प्रावधान है जो कुल बजट का 1.3 प्रतिशत है। कृषि बीमा पर कुल 2500 करोड़ का प्रावधान है। आवश्यकता इस बात की थी कि नाममात्र प्रीमियम पर सभी फसलों का बीमा हो। परन्तु बीमा योजना केवल सांकेतिक ही है। यदि फसल बीमा को सही मानों में लगभग नि:शुल्क चलाया गया होता तो फसल नष्ट होने के कारण प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या न करते। कृषि मंत्री ने कुछ समय पहले लोक सभा में बताया था कि 11,000 किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करते हैं जिसमें भारी संख्या में कर्ज न अदा करने वाले किसान हैं। ऋणग्रस्त किसानों को बिना व्याज के नया ऋण दिया जा सकता था ताकि वे पुराना कर्ज अदा कर दें। बैंकों को यदि थोड़ी ब्याज सब्सिडी दी जाती तो वे बिना ब्याज या बहुत कम ब्याज की दर पर ऋण दे सकते थे। ऐसे ऋणों की गारन्टी भारत सरकार ले सकती थी जैसा कि वह बड़े निकायों के ऋण के सम्बन्ध में करती है। भारत सरकार ने 1,00,000 करोड़ रुपयों की इस प्रकार भी गारन्टी ली है। किसानों को भी ऋण की गारन्टी दी सकती है।
यहां यह स्मरण रहे कि केन्द्र सरकार पुलिस पर लगभग 20,000 करोड़ रूपये व्यय कर रही है जब कि उपरोक्त कृषि कार्यों के लिये इसके आधे का ही प्रावधान होता है। आधी से अधिक भूमि आज भी असिंचित है परन्तु केन्द्रीय बजट में सिंचाई पर इस वर्ष कुल व्यय 872 करोड़ का प्रस्तावित है जो केन्द्रीय पुलिस बजट के बीसवें भाग से भी कम है। सिंचाई पर राज्य सरकारें अधिक व्यय करती हैं। परन्तु सरकारी व्यय का यह आलम है कि केन्द्र एवं राज्य द्वारा सिंचाई पर प्रतिवर्ष 25,000 करोड़ व्यय करने के बावजूद सिंचित क्षेत्र स्थिर है। ऐसा इसलिये है कि विकास के नाम पर बेवजह अफसरों और कर्मचारियों की भर्ती हुई है जिनके वेतन और भत्तो पर ही कृषि बजट का 70 प्रतिशत निकल जाता है।
देश के 80 प्रतिशत किसानों के पास भूमि इतनी कम है कि वह जीविका के लिये पर्याप्त नहीं है। उन्हें कृषि के बाहर काम मिलना चाहिए परन्तु सरकारी नीतियां ऐसी हैं कि संगठित क्षेत्र में रोजगार घट रहा है। 2004 में इसमें 5 लाख की गिरावट आई। परन्तु इस विशाल जन समुदाय को ग्राम की प्राकृतिक सम्पदा के संवर्धन उन्नयन में लगाया जा सकता है। देश में लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। जलागम प्रबन्धन के आधार पर इस भूमि को उपयोगी बनाया जा सकता है। यदि वर्षा के पानी को समुचित ढंग से इकट्ठा किया जाय तो इस भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ सकती है। जहां भूमि बहुत खराब है उसे तालाबों और पोखरों में बदला जा सकता है। जल संचय का प्रावधान न होने के कारण पलामू, जहाँ पंजाब से दूनी वर्षा होती है, सूखा ग्रस्त है। यही हालत देश के बड़े भूभाग की है। अकेले जल प्रबन्धन पर ही तमाम बेरोजगार लोगों को काम पर लगाया जा सकता है और 60 प्रतिशत कृषि भूमि जो असिंचित है उसे सिंचित किया जा सकता है। परन्तु जलागम प्रबंधन के लिये भारत सरकार के बजट में मात्र 1,000 करोड़ रुपये का ही प्रावधान है। देश में जिस प्रकार सुरक्षा के लिये एक सेना है उसी प्रकार भूमि और जलागम प्रबंधन आदि कार्यों के लिये भी एक भूमि सेना खडी की जा सकती है जो भूमि के समतलीकरण, जलसंचय, वृक्षारोपण आदि कार्य में निरन्तर लिप्त रहे। एक व्यक्ति को 30,000 रू. की वार्षिक मजदूरी पर (रु. 100 प्रतिदिन वर्ष में 300 दिन के लिये) 40,000 करोड़ रुपये में 1 करोड़ की स्थाई भूमि-सेना खड़ी की जा सकती है जो एक बहुत ही उत्पादक कार्यक्रम से जुड़ी रहेगी।
संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार ग्राम विकास से सम्बन्धित सारे कार्य ग्राम पंचायतों के माध्यम से होना चाहिए, वहाँ नौकरशाही के लिये कोई स्थान नहीं होगा। परन्तु देश में भ्रष्ट नौकरशाही और राजनेताओं का ऐसा गठबंधन है कि कोई भी राज्य सरकार संविधान के इस निर्देश पर अमल करने के लिये तैयार नहीं है जिसके फलस्वरूप लोगों में उदासीनता है और भ्रष्टाचार का बोलवाला है। ऐसी स्थिति में विकास कार्यों पर बजट बढ़ा देना ही पर्याप्त नहीं है। इसमें लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित किया जाय। फिर भी सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना अपरिहार्य है। साधनों के अभाव में कृषि एवं ग्राम विकास आदि पर बहुत कम खर्च हो रहा है। भारत सरकार ने सभी वर्गों और कम्पनियों की आय आदि पर इतनी छूट दे रखी है कि जितना राजस्व वसूल होता है उसका आधा छूट में निेकल जाता है। इस प्रकार वर्ष 2007-08 में केन्द्रीय बजट के अनुसार 2006-07 में सरकार को 2,35,191 करोड़ रुपयों की हानि हुई। यदि इन छूटों को वापस ले लिया जाय तो कृषि, ग्राम विकास, भूमि एवं जल संसाधन विकास का केन्द्रीय बजट पांच गुना बढ़ाया जा सकता है।
इस दिशा में बैंकों का भी बड़ा योगदान हो सकता है क्योंकि वे 20 लाख करोड़ रु. का ऋण बांटते हैं परन्तु इसमें ग्रामीण क्षेत्र का अंश 10 प्रतिशत ही है। विचित्र बात यह है कि ग्रामीण शाखाओं से प्रतिवर्ष 1,00,000 करोड़ रुपया तथा अर्ध्द नगरीय शाखाओं से 2,00,000 करोड़ रुपया नगरों और महानगरों की ओर प्रवाहित हो जाता है। यदि ग्रामवासियों को बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋण की सरकार गारन्टी ले तो बैंकों को ऋण देने में कोई कठिनाई नहीं होगी। ग्रामवासियों को भी इसी प्रकार की गारन्टी देकर ग्रामीण अंचल की बचत को ग्रामीणों के लिये उपलब्ध किया जा सकता है। बैंक अपने ऋण का एक तिहाई उनको देते हैं जो 25 करोड़ रुपये से अधिक ऋण लेते हैं। यही लोग ऋण वापस नहीं करते। किसान ऋण वापस करने में असमर्थ होने पर आत्महत्या कर लेता है लेकिन नगरों के बड़े घाघ, जिन पर लाख करोड़ रुपयों से ज्यादा बकाया है कभी आत्महत्या नहीं करते। उनके अन्दर कोई नैतिकता नहीं है। उनका करोड़ों का बकाया प्रति वर्ष माफ कर दिया जाता है।
सरकार द्वारा किसान और किसानी की उपेक्षा का लाभ अब देशी और विदेशी बड़ी कम्पनियां उठाना चाहती हैं। वे किसानों से ठेके पर खेती कराकर मुनाफा कमाना चाहती हैं। वे किसानों को खाद, बीज आदि उपलब्ध करायेंगी तथा उनकी उपज को तत्काल खरीद कर कुछ बढ़ा हुआ मूल्य देंगी। परन्तु किसान को वहीं फसल बोना होगा जिसे वे चाहेंगी। इससे किसान को क्षणिक लाभ हो सकता है परन्तु देश की कृषि व्यवस्था का मुनाफाखोरों के हाथ में चला जाना घातक होगा। सरकार भी इसी नीति को बढ़ावा दे रही है क्योंकि स्वयं वह खेती के उध्दार के लिये कुछ नहीं करना चाहती। ऐसी स्थिति में कृषि का संकट और गहन होता जायेगा। इस वर्ष विदेशों से सरकार 1 करोड़ टन गेहूँ का आयात 1300 रु। प्रति टन के हिसाब से करने जा रही है परन्तु अपने किसानों कां 850 रुपये से अधिक देने के लिये तैयार नहीं है। देश का पैसा विदेशों में चला जाये परन्तु अपने किसान को न मिले, यही सरकारी नीति है।

Sunday, November 4, 2007

मध्यप्रदेश की खेती के आंकड़े और सच्चाई

मध्यप्रदेश के कृषि क्षेत्र में वर्ष 1998-99 से 2004-05 तक के सात वर्षों की अवधि में निरंतर 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 1998-99 में राज्य की आय (जी.डी.पी.) में कृषि का योगदान 38.85 प्रतिषत था जो लगातार गिरते हुए 2004-05 में 28.55 प्रतिषत पर आ गया। इसका अर्थ यह हुआ कि किसानों की आमदनी पिछले सात वर्षों में 10 प्रतिषत तक कम हो गई है। किसानों की कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय जो 1998-99 में 4575 रूपए थी, वह आज 2004-05 में घटकर 4120 रूपए रह गई। इसकी तुलना में प्रदेष की प्रति व्यक्ति औसत आय जो 1998-99 में 6584 रूपए थी, वह 2004-05 में बढ़कर 8238 रूपए हो गई है।
प्रदेष के कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय में गिरावट से सबसे ज्यादा प्रभावित वे सीमांत (1 हैक्टेयर से कम) एवं लघु (1 हैक्टेयर से 2 हैक्टेयर तक) कृषक हुए हैं, जो कुल कृषकों के 60 प्रतिषत या 6 लाख के लगभग होते हैं। शेष 40 प्रतिषत कृषक अपने पारिवारिक जीवन निर्वाह के अनुकूल फसल प्राप्त कर लेते हैं। प्रदेष के 203 लाख हैक्टेयर कृषि क्षेत्र का 70 प्रतिषत (142 लाख हैक्टेयर) की खरीफ फसलें मानसून पर निर्भर हैं।
आज प्रदेष के 203 लाख हैक्टेयर के सकल कृषि क्षेत्र का 91.30 प्रतिषत (185.30 लाख हैक्टेयर) भाग खाद्यान, दलहन एवं तिलहन उत्पाद करने के निमित्त उपयोग में आ रहा है। शेष 8.70 प्रतिषत क्षेत्र (17.70 लाख हैक्टेयर) वाणिज्यिक फसलों (गन्ना, कपास) तथा उद्यानिकी फसलों (फल, सब्जी, मसाले आदि के अंतर्गत है)
प्रदेष में खरीफ मौसम में ली जाने वाली फसलों में मुख्यत: सोयाबीन है, जिसका क्षेत्रफल 46 लाख हैक्टेयर है, जो कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 23 प्रतिषत है। यह पूर्णत: मानसून पर ही निर्भर है। प्रदेष के लगभग 10 लाख कृषक सोयाबीन की फसल लेते हैं। इनमें 35 प्रतिषत सीमांत एवं 25 प्रतिषत लघु कृषकों की श्रेणी में आते है। जो कुल सोयाबीन उगाने वाले कृषकों का 60 प्रतिषत या 6 लाख होते हैं। ये 60 प्रतिषत किसान चौपाल व्यवस्था से दूर हैं।
आज भी 85 प्रतिशत छोटे, सीमांत या खेत मजदूरों के पास जमीन का मात्र छोटा सा हिस्सा ही है। जबकि तीन-चौथाई जमीन पर 15 प्रतिषत बड़े किसान के हाथ में है। 1999-2000 के एन.एस.एस.ओ. के आंकड़ें बताते हैं कि मध्य प्रदेश में 17.5 प्रतिषत 0.01 से 0.4 हैक्टेयर के किसान हैं, 27.7 प्रतिशत 0.4 से 1.0 हैक्टेयर के है, 26.6 प्रतिशत 1.0 से 2.0 हैक्टेयर के है, 17.9 प्रतिषत 2.0 से 4.0 हैक्टेयर के है और 9.1 प्रतिषत 4 हैक्टेयर से अधिक के किसान हैं।
(कृषि विभाग की जानकारी के विश्लेषण पर आधारित )
शिवनारायण गौर

Saturday, November 3, 2007

मध्य प्रदेश के 50 फीसदी किसान कर्ज के जाल में उलझे हैं

भोपाल, 7 सितंबर
मध्य प्रदेश, जहां करीब 73 फीसदी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है, में करीब 50 फीसदी किसान कर्ज के जाल में उलझे हुए हैं। एक नए अध्ययन से इसकी पुष्टि होती है। नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन ने यह निष्कर्ष निकाला है।
कर्ज जाल में उलझे किसानों पर इस संगठन द्वारा किए गए ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य के कुल 64 लाख किसानों में से 32 लाख किसान कर्जदार बने हुए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों के कर्जदार बनने की उच्च दर की प्रमुख वजह है सरकारी वित्तीय संस्थानों में किसानों का विश्वास खत्म होना। कर्ज लेने के लिए किसानों को जटिल सरकारी औपचारिकताओं से गुजरना पड़ता है। वहीं सरकारी अधिकारी कर्ज की वसूली के लिए उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते रहे हैं। ऐसे में 40 फीसदी से अधिक किसान गैर-सरकारी एजेंसियों से उच्च दर पर कर्ज लेने को बाध्य हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक औसतन हर किसान पर 14,128 रुपये का कर्ज है।
सकल घरेलू उत्पाद में जैसे-जैसे कृषि क्षेत्र का योगदान घटता जा रहा है, किसानों की उपेक्षा बढ़ती जा रही है। 1960-61 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का कुल योगदान 59।9 फीसदी हुआ करता था जो 2001 में घट कर 25.8 फीसदी रह गया। इस अवधि में राज्य में कृषि पर लोगों की निर्भरता में अधिक कमी नहीं आई है। 1960-61 में जहां 79.3 फीसदी लोग कृषि पर निर्भर थे, वहीं 2001 में इसमें मामूली गिरावट आई है। अभी भी 72.9 फीसदी लोग कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं। राइट टु फूड केम्पेन के सचिन जैन कहते हैं कि लगता है सरकार खाद्य उत्पादन को प्रोमोट करने में अधिक दिलचस्पी लेना नहीं चाहती और न ही उसे किसानों की परवाह है। उन्होंने कहा कि सरकार की दिलचस्पी इसमें है कि किसान अधिक पैमाने पर व्यावसायिक खेती करें। वे किसानों से कपास, सोयाबीन, जत्रोफा आदि की खेती में अधिक दिलचस्पी की उम्मीद करते हैं। यही वजह है कि राज्य में खाद्य उत्पादन का दायरा सिमटता जा रहा है। पिछले तीन वर्षों में घटिया किस्म के बीजों के कारण हजारों किसानों की आजीविका पर असर पड़ा है।

Thursday, November 1, 2007

खेती की अहमियत और विकल्प की दिशा

मानव समाज में खेती का स्थान तीन कारणों से महत्वपूर्ण रहा है और रहेगा ।
एक , अमरीका-यूरोप में खेती का स्थान गौण हो सकता है , लेकिन तमाम औद्योगीकरण और विकास के बावजूद आज भी मानव जाति का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है और अपनी जीविका के लिए खेती , पशु - पालन , मत्स्याखेट , आदि पर आश्रित है । भारत जैसे देशों में आज भी ७० प्रतिशत से ज्यादा लोग गांवों में निवास करते हैं । भले ही भारत की राष्ट्रीय आय में खेती का हिस्सा २५ प्रतिशत से नीचे जा रहा है , आज भी देश की ६५ प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है । ( यह भी खेती के शोषण का एक सूचक है । ) इसलिए यदि विकास की कोई भी योजना समावेशी होना चाहती है और एकांगी व असंतुलित नहीं है , तो उसे गाँव और खेती को अपने केन्द्र में रखना पड़ेगा । खेती की उपेक्षा करके इस विशाल आबादी को उद्योगों या महानगरों में बेहतरी के सपने दिखाना एक तुगलकी योजना , एक दिवास्वप्न और एक छलावे से अलग कुछ नहीं हो सकता ।
दूसरी बात यह है कि खेती , पशुपालन आदि से ही मनुष्य की सबसे बुनियादी आवश्यकता - भोजन - की पूर्ति होती है । अभी तक खाद्यान्नों का कोई औद्योगिक या गैर खेती विकल्प आधुनिक तकनालाजी नहीं ढूंढ पाई है । भविष्य में इसकी संभावना भी नहीं है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में खाद्य आपूर्ति और खेती का बड़ा महत्व है । जो देश स्वतंत्रता और सम्मान के साथ रहना चाहते हैं , वे खाद्य स्वावलम्बन पर बहुत जोर देते हैं । खाने के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाना चरम लाचारी का द्योतक है । जापान जैसे देश तो भारी अनुदान देकर भी अपनी धान की खेती को कायम रखना चाहते हैं । संयुक्त राज्य अमरीका ने भी अपनी खेती के अनुदान लगातार बढ़ाये हैं , ताकि वह ज्यादा उत्पादन करके दुनिया में खाद्य व अन्य कच्चे माल के बाजार पर अपना नियंत्रण बनाए रख सकें । विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में खेती के मुद्दे पर ही गतिरोध बना हुआ है ।
तीसरी बात यह है कि मानव समाज की आर्थिक गतिविधियों में ( खेती एवं पशुपालन , मछलीपालन आदि ) ही ऐसी गतिविधि हैं , जिसमें वास्तव में उत्पादन एवं नया सृजन होता है । प्रकृति की मदद से किसान बीज के एक दाने से बीस से तीस दाने तक पैदा कर लेता है । उद्योगों में कोई नया उत्पादन नहीं होता , पहले से उत्पादित पदार्थों(कच्चे माल) का रूप परिवर्तन होता है । सेवाएं तो , जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं , परजीवी होती हैं और पहले से सृजित आय के पुनर्वितरण का काम करती हैं । उर्जा या कैलोरी की दृष्टि से भी देखें, तो जहाँ अन्य आर्थिक गतिविधियों में उर्जा की खपत होती है, खेती में ,पशुपालन में उर्जा या कैलोरी का सृजन होता है । इसमें मार्के की बात प्रकृति का योगदान है । खेती में प्रकृति मानव श्रम के साथ मिलकर वास्तव में सृजन करती है ।
इन कारणों से मानव समाज में खेती का अहम स्थान बना रहेगा । विकास या प्रगति की किसी भी योजना में खेती व गाँव को केन्द्र में रखना होगा , तभी वह सही मायने में विकास कहला सकेगा । ऐतिहासिक रूप से चले आ रहे गाँव , खेती व किसानों के शोषण को समाप्त करना होगा और पूँजी के प्रवाह को उलटना पड़ेगा । बुद्धदेव भट्टाचार्य को इस बात का जवाब देना होगा कि आखिर किसान का बेटा किसान ही रहकर खुशहाल क्यों नहीं हो सकता ? अन्न उत्पादन करके मानव जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत पूरी करनेवाला किसान फटेहाल , अशिक्षित और कंगाल क्यों रहे ? वह इस देश का समृद्ध , सुशिक्षित , सम्मानित नागरिक क्यों नहीं हो सकता ?
लेकिन क्या खेती से ही सबको रोजगार मिल जाएगा और औद्योगीकरण की कोई जरूरत नहीं है ? इसका जवाब है बिलकुल नहीं । लेकिन वह बिलकुल अलग किस्म का औद्योगीकरण होगा । आज भारत के गाँव उद्योगविहीन हो गए हैं और वहाँ खेती-पशुपालन के अलावा कोई धंधा नहीं रह गया है । गाँव और खेती एक दूसरे के पर्याय हो गये हैं । दूसरी ओर गांव और उद्योग परस्पर विरोधी हो गये हैं । जहाँ गाँव है , वहाँ उद्योग नहीं है और जहाँ उद्योग है , वहाँ गाँव नहीं है । यह स्थिति अच्छी नहीं है और यह भी औपनिवेशिक काल की एक विरासत है । अँग्रेजी राज के दौरान भारत के सारे छोटे , कुटीर व ग्रामीण उद्योग धन्धों को खतम कर दिया गया । अर्थशास्त्री थॉर्नर दम्पती ने इसे विऔद्योगीकरण या औद्योगिक-विनाश (deindustralisation) का नाम दिया था । उन्होंने जनगणना के आंकड़ों की तुलना करके बताया कि अँग्रेजी राज में कृषि पर निर्भर भारत की आबादी का हिस्सा घटने के बजाए बढ़ा था और उद्योगों पर निर्भर हिस्सा कम हुआ था । देश आजाद होने के बाद भी भारत के गांवों के औद्योगिक विनाश की यह प्रक्रिया कमोबेश चालू रही , हांलाकि अब वह जनगणना की आंकड़ों में उतने स्पष्ट ढंग से नहीं दिखाई देती । सिंगूर , नन्दीग्राम और विशेष आर्थिक क्षेत्रों से यह प्रक्रिया और तेज होगी ।
यदि बंगाल की वामपंथी सरकार वास्तव में बंगाल का विकास करना चाहती है तथा बेरोजगारी दूर करना चाहती है , तो उसे इस प्रक्रिया को उलटना होगा । उसे टाटा और सालेम समूह को बुलाने के बजाय बंगाल के गांवों में लघु व कुटीर उद्योगों का जाल बिछाना होगा । जरूरी नहीं कि ये कुटीर उद्योग पुरातन जमाने की नकल हों । नई परिस्थितियों के मुताबिक नए ढंग के कुटीर उद्योग हो सकते हैं । लेकिन वे गाँव आधारित हों , गाँव के स्वावलम्बन को मजबूत करते हों , कम पूँजी और अधिक श्रम का इस्तेमाल करते हों । इस प्रकार के औद्योगीकरण में किसानों की जमीन छीनने और उन्हें विस्थापित करने की जरूरत नहीं होगी । बड़ी पूँजी लगाने के लिए देशी पूँजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की चिरौरी करने की जरूरत नहीं होगी । गाँवों के निवासियों को नगरों , महानगरों व औद्योगिक केन्द्रों की ओर पलायन नहीं करना पड़ेगा । गांवों और खेती को कंगाल बनाकर उनसे पूँजी खींचने की जरूरत नहीं होगी । इसमें आय , पूंजी व सम्पत्ति का केन्द्रीकरण नहीं होगा । प्रकृति से दुश्मनी और पर्यावरण का नाश भी कम होगा । हां , इसके लिए केन्द्र सरकार और भूमण्डलीकरण की ताकतों से जरूर वास्तव में लोहा लेना होगा । सिर्फ विरोध की रस्म अदायगी से काम नहीं चलेगा ।
इसी प्रकार का विकेन्द्रित और गांव- केन्द्रित औद्योगीकरण तथा विकास ही भारत जैसे देशों के लिए उपलब्ध एकमात्र विकल्प है । आज के सन्दर्भ में समाजवाद का रास्ता भी यही है । इतिहास के अनुभवों की समीक्षा और विश्लेषण करते हुए और अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों को छोड़ते हुए , तमाम वामपंथियों को इसे स्वीकार करना चाहिए । इसमें कुछ गाँधी और शुमाखर की बू आए , मार्क्स , माओ और गांधी का मेल करना पड़े , नारोदनिकों की जीत व लेनिन की हार दिखाई दे , तो होने दें , क्योंकि आम जनता के हित , समाजवाद का लक्ष्य और इतिहास की सच्चाई किसी भी वैचारिक हठ या पूर्वाग्रह से ज्यादा बड़ी चीज है ।


सुनील ,
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, समाजवादी जनपरिषद,
ग्राम/ पोस्ट केसला, वाया इटारसी ,
जिला होशंगाबाद (म.प्र.) ४६१ १११
फोन ०९४२५० ४०४५२