Friday, November 16, 2007
ठेका, संविदा या कॉन्ट्रेक्ट खेती
भले ही संविदा, ठेका या कॉन्ट्रेक्ट खेती की सोच या विचार आज समय की मांग हो। पर हमारे देष में स्थानीय का रूप परंपरा से चला आ रहा है। बटाई, सिकमी, अधिया या खोट जैसे नामों से अलग-अलग क्षेत्रों में पुकारी जाने वाली इस खेती का मूल मकसद एक अवधि विषेष के लिये खेती को खरीद लेना ही है। मूलत: षहरों में रहने वाले अनुपस्थित जमीदांर, नवाब, जोतदार, बड़े किसान, मालगुजार या दीवान अपनी खेती छोटे-छोटे किसानों से इसी पध्दति से कराते आये हैं। इनकी षर्ते और तरीके भी कम षोषणकारी और अमानवीय नहीं होते थे। बस फर्क इतना था कि ये स्थानीय और स्वदेषी होते थे बहुराष्ट्रीय नहीं। ये सांमत मारते तो थे पर मरने नहीं देते थे, पर आज की ये कंपनियां छोटे-मोटे किसानों को भी भिखमंगा बनाकर आत्म हत्या की और पहुंचा रही है। दूसरे स्तर पर साधनों के अभाव में छोटे-मोटे किसान भी अपनी जमीन सिकमी (ठेका) पर दे देते थे। और धीरे-धीरे सिकमी देते हुये ये जमीन उनके हाथ से भी निकल जाती थी। सिकमी का समझौता प्राय: जमीन की पैदावार, दूरी, सिंचाई और दोनों पक्षों की आपसी समझ के हिसाब से होता था।असल में हमारे यहां खेती जीविका और जीवन का एक हिस्सा जरूर थी, पर वस्तु, बाजार या व्यवसाय नहीं थी। आज की कंपनियों की पहली षर्तें खेती को वस्तु बनाकर व्यवसाय के लिये बाजार तक पहुंचाना है। इसलिये आज की ठेका खेती का मूल सोच ही लाभ पर आधारित है। इसके लिये हमारी सरकार ने डब्लू,टी.ओ. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय दवाब में नई कृ्रषि नीतियों की घोषणा की है। सबसे खतरनाक तो हमारे सीलिंग या भूमि हदबंदी कानूनों को समाप्त करना है। जो हजार, दो हजार एकड़ के फार्मो के लिये जरूरी है। कृषि नीति कहती है कि ऐंसी खेती से प्रोद्योगिकी का हस्तांतरण, पूंजी का अंर्तप्रवाह और तिलहन, कपास, चाय, काफी, नारियल तथा फलों का बाजार मजबूत हो सकेगा।संविदा खेती को बढ़ावा देने के लिये कृषि सुधार प्रस्ताव 2004 में केन्द्रीय कृषि मंत्री के नेतृत्व में सारे प्रदेषों के कृषि मंत्रियों की बैठक में इस प्रस्ताव पर लंबी चर्चा हुई। उसके अनुसार कृषि सुधार प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातें हैं, पहला कार्य मंडियों का निजीकरण, दूसरा अनुबंध खेती व लीज की खेती में मौजूद प्रतिबंधात्मक कानून (भूमि हदबंदी कानून) को खत्म करना और तीसरा भूमि षेयर कंपनियों का उदय। इस कानून से भारत में पचास करोड़ से ज्यादा लघु और सीमांत किसानों यानि 3 से 5 एकड़ खेती वाले किसानों के लिए अपनी पुष्तैनी खेती से बेदखल होना पड़ेगा। भारत की नई राष्ट्रीय कृषि नीति के मसौदे में फसलों के विभिन्नीकरण्ा (डायवरसीफिकेषन) की वकालत की गई है। इसके तहत् किसान खाद्यान्न फसलों को पैदा करने के स्थान पर केषक्राप का उत्पादन करेंगे तथा उनके उत्पादित माल का निर्यात होगा। लिहाजा विदेषी मुद्रा में इजाफा होगा, साथ ही कृषकों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। फसल विभिन्नीकरण में बड़ी पूंजी की आवष्यकता होगी जिसकी निजी क्षेत्र से आपूर्ति की जायेगी। अत: बड़ी कंपनियों, क्रेडिट सप्लायर (बैंक) तथा विषेषज्ञों के गठजोड़ से संविदा खेती षुरू की जायेगी। किसानों के साथ एक एग्रीमेन्ट होगा जिसके तहत् पूर्व निर्धारित दरों पर उन्हे अपना उत्पाद कंपनियों को बेचना पड़ेगा। फिलहाल संविदा खेती का कोई कानून नहीं बनाया गया है। अत: किसान व अन्य पक्ष अदालत से न्याय प्राप्त करने में असमर्थ होगे। दूसरा दुखद पहलु यह है कि एक तरफ देष के संसाधन विहीन गरीब किसान होगे तथा दूसरी तरफ धन/सुविधा संपन्न कंपनियां। क्या इस खेल के खिलाड़ी समान हैसियत रखते है और क्या खेल का मैदान समान धरातल पर है?पहले अनुबंध कृषि व कारपोरेट कृषि केवल वृक्षारोपण कार्यक्रम और बेकार पड़ी जमीन के विकास तक ही सीमित थे। लेकिन 2000 में नई कृषि नीति (पहली) की घोषणा के बाद बुनियादी क्षेत्र में भी इसे अमल में लाया जा रहा है। कृषि क्षेत्र से जुड़ी निजी कंपनियों के सामने कृषि पैदावार की गुणवत्ता बरकरार रखने की बड़ी चुनौती थी क्योंकि इसका निर्धारण खरीदार करते हैं। इसके अलावा दूसरा महत्वपूर्ण मसला गुणवत्ता बरकरार रखते हुए समय पर आर्डर पूरा करना था। पेप्सीको ने इस सिलसिले में महत्वपूर्ण पहल करते हुए अनुबंध कृषि को नया आयाम दिया। कंपनी ने पंजाब के सगरूर जिले में संसाधनों पर आधारित अनुबंध के तहत कृषि समझौता किया। कंपनी ने किसानों को बाजार मुहैया कराने के साथ पैदावार की समीक्षा के अलावा पैदावार में सुधार के उपाय सुझाए। इसके जरिए किसानों को अच्छे खरीदार भी मिल गए और उन्हें अपनी पैदावार का उचित मूल्य मिलने लगा। इसी तरह टे्रक्टर का उत्पादन करने वाली प्रमुख कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने भारतीय किसानों को ध्यान में रखते हुए षुभ-लाभ सेवा की षुरूआत की। इसके तहत दो बातों पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया। जिसमें पहला सामुदायिक कृषि को बढ़ावा देना और दूसरा एक ही केन्द्र पर किसानों की आवष्यकताओं के अनुरूप जरूरी सभी सुविधाएं उपलब्ध कराना।1980 के दषक से भारतीय कृषि को विष्व बाजार से जोड़ने की मुहिम षुरू हुई। कृषि व्यवसाय वाली कंपनियां 1990 के दषक से जोरदार ढंग से आगे आईं। सरकार ने 'वाषिंगटन आम राय' पर आधारित भूमंडलीकरण को स्वीकार कर उन्हें बढ़ावा दिया। इसे बड़ी कंपनियों और विष्व खाद्य और कृषि संगठन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का पुरजोर समर्थन मिला है। यह नुस्खा है 'कांट्रेक्ट फार्मिग' या ठेके पर खेती का। विष्व खाद्य और कृषि संगठन के चार्ल्स ईंटन और एंडयू डब्लू षेफर्ड ने 'कांट्रेक्ट फार्मिग पार्टनरषिप्स फॉर ग्रोथ' नामक पुस्तक में इस नुस्खे पर विस्तार से प्रकाष डाला है। इसके अंतर्गत किसानों और ठेके पर खेती करने की इच्छुक कंपनियों के बीच करार होगा। किसान अपनी जमीन उन्हें बेच देंगे या लगान की तय दर पर दे देंगे। चाहें तो ऐसा करने वाले किसान कंपनियों के फार्मो पर मजदूर के रूप में काम करेंगे। इस प्रकार कृषि पारिवारिक न होकर पूरी तरह पूंजीवादी हो जाएगी। पैदावार संबंधी सारे फैसले क्या उगाएं, कैसे उगाएं और किनके लिए उगाएं कंपनियां करेंगी। दूसरे षब्दों में, फसलों के चुनाव, खेती के तौर-तरीकों, निवेष और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल और बाजार के बारे में निर्णय कंपनियां ही लेंगी। इन सब निर्णयों का आधार मुनाफा बढ़ाना ही होगा। मुनाफे को अधिकतम करने के लिए लागत को कम से कम करने का प्रयास होगा। इस प्रकार कृषि का उद्देष्य रोजगार के अवसर बढ़ाना कतई नहीं होगा। नगरों में संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर न मिलने पर वे अनौपचारिक (इन्फार्मल) क्षेत्र में लगेंगे।कहा जा रहा है कि अनुबंध या ठेका-खेती (कांट्रेक्ट फार्मिग) अपनाने से ही भारतीय गांव और किसान सुखी होंगे। इस ओर पहला कदम पंजाब ने 1980 के दषक में बढ़ाया जब पेप्सी फूड्स लि. ने वहां बाईस करोड़ रूपयों की लागत से टमाटर से विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए कारखाना लगाया। चूंकि टमाटर पूरी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहा था इसलिए 'पेप्सीको' नामक उससे जुड़ी कंपनी ने अनुबंध-खेती षुरू की और 1990 के दषक में बासमती चावल, मिर्च, मूंगफली और आलू भी उगाना षुरू कर दिया।संसद में दी गई जानकारी के अनुषार मध्यप्रदेष में अंनुबंध (ठेका) खेतीवैज-ओ फे्रष लि. इंदौर फ्रिटो ले इंण्डियाआलू ब्राऊनपैप्सीको इण्डिया लि. बीकानेर वाला फूड्सप्याज, लहसुनजैन सिंचाई जलगांव, उद्योग मंदसौर (मध्यप्रदेष)धनियाराजस्थान इंटरनेषनल इंदौर कन्नान व कं. इंदौर मैरिकोक्ुसुमरालिस, डाबरगेंहू दवाइयां, प्लांट्स और हर्बलहंस, अगस्त 2006 से प्राप्त जानकारीशुरुआत में वर्ष 2000 में, मध्यप्रदेष की दिग्विजय सिंह सरकार ने आंषिक रूप से 1970 के राज्य कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में संषोधन किया। इस संषोधन से निजी खरीदारों को मंडी प्रांगण के बाहर खरीदी केंद्र स्थापित करने के लिये मंडी समितियों द्वारा लाइसेंस देने का प्रावधान बन गया। इसके लिये एक वक्त में ही रू. 10,000 लाइसेंस शुल्क देने व कुछ सुरक्षा निधि जमा कराने का प्रावधान बनाया गया। 9 सितंबर 2003 को केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारों के परामर्ष से एक मॉडल कानून का अंतिम प्रारूप तैयार किया। जिसे नाम दिया गया 'राज्य कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 2003' इस मॉडल अधिनियम के तहत देष में कृषि बाजारों के प्रबंधन व विकास में सार्वजनिक व निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने, निजी मंडियां व सीधे खरीदी केंद्र कायम करने के प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों में देष में अनुबंध खेती की व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन देने व नियंत्रित करने के कानून एवं अधिनियम भी शामिल हैं। यह कानून मौजूदा कृषि उपज मंडी समिति की भूमिका को भी पुनर्भाषित करता है। ताकि इसका नई विपणन व्यवस्था तथा अनुबंध खेती के साथ ठीक तालमेल बैठ जाए।
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