गौरतलब है कि सन् 2000 में भारत सरकार के तात्कालीन कृषिमंत्री श्री नीतिश कुमार ने नयी कृषि नीति को घाषित किया था। 2000 के बाद से कोई कृषि नीति नहीं बनी है। हां राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी नीति से संबंधित अनुशंसाएँ जरूरी जारी की हैं। संसद में पेश यह नीति मूलत: अंग्रेजी में तैयार हुई हैं, और हिन्दी मसविदे पर अनुवाद की छाया, अटपटे शब्दों व भाषा की कृत्रिमता बहुत स्पष्ट है। अंग्रेजी में राष्ट्रीय कृषि नीति का बनना स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसी हर नीति सरकार में बैठे अफसर व विशेषज्ञ ही तैयार करते हैं, जिनकी भाषा अंग्रेजी ही होती है। अब तो अफसरों व विशेषज्ञों के ऊपर उनके मालिक विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व व्यापार संगठन ही सारी नीतियां लिखवा रहे हैं, उनकी भी भाषा अंग्रेजी ही है। राष्ट्रीय कृषि नीति पर भी विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन की मुहर बहुत स्पष्ट है।नई राष्ट्रीय कृषि नीति के प्रारंभिक पांच पैराग्राफ तो सही व निर्दोष प्रतीत होते हैं। इनमें भारतीय जीवन में खेती का स्थान, कृषि विकास की कमियां, बढ़ती विषमताओं, भूमंडलीकरण से पैदा हुई जलिटताओं, खेतिहर समुदायों की दयनीय स्थिति, पर्यावरणीय असंतुलन आदि को स्वीकार करते हुए कृषि नीत के उद्देश्यों को बताया गया है। उद्देश्य भी ऐसे हैं जिनसे असहमति की गुंजाइश कम है, जैसे कृषि उत्पादन में 4 प्रतिशत से अधिक वृध्दि की दर, जल-जमीन-जैव विविधता की सुरक्षा एवं संसाधनों के समुचित उपयोग पर आधारित विकास, समतामूलक विकास, मांग आधारित विकास (इस पर कुछ सवाल हो सकते है) और टिकाऊ विकास। कुल मिलाकर यदि राष्ट्रीय कृषि नीति के मसविदे का प्रथम पांच पैरा पढ़ें तो कृषिमंत्री बहुत क्रांतिकारी, जनवादी व पर्यावरणवादी सोच के आदमी मालूम पड़ते है।लेकिन इसके बाद आगे पढ़ने पर कृषि नीति का असली चेहरा और असली इरादा सामने आता है। इधर-उधर की लफ्फाजियों को निकाल दें तो राष्ट्रीय कृषि नीति बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद, भूमंडलीकरण, कथित उदारीकरण और निजीकरण के एजेंडा को ही आगे बढ़ाती है। असली सवालों से जी चुराते हुए यह नीति वे ही समाधान पेश करती है जो समस्याओं के मूल में है।उदाहरण के लिए दूसरे पैरा में ही इसमें स्वीकार किया गया है कि नब्बे के दशक में कृषि के विकास में ढील आई है। क्या यही एक स्वाकारोक्ति अपने आप में नब्बे के दशक में अपनायी गई आर्थिक नीतियों पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा करती है? कृषि नीति के दस्तावेज में ढील के कारण बताये गये हैं - उपयुक्त पूंजी की कमी तथा आधारभूत संरचनाओं का अभाव, बाजार में उत्पादों की मांग की सीमाएं, कृषि उत्पादों के आवागमन, रखरखाव एवं बिक्री पर नियंत्रण आदि। कृषि नीति घोषणा भी करती है कि ''कृषि उत्पादों'' के घरेलू बाजार का पूर्ण उदारीकरण कर दिया जाएगा और कृषि उत्पादों की आवाजाही पर प्रतिबंध धीरे-धीरे समाप्त कर दिये जाएँगे।इसी प्रकार कृषि उपज की मांग बढ़ाने के लिए इस कृषि नीति में एक ही फारमूला है - निर्यात। पूरे मसविदे में कम से कम एक दर्जन बार ''निर्यात'' शब्द आता है। लेकिन ''निर्यातोन्मुखी विकास'' पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं, उन्हें यह नीति बिलकुल नजरअंदाज करती है। सच तो यह है कि दुनिया के गरीब देशों को निर्यात बढ़ाने का उपदेश देने वाले अमीर देशों का दुनिया के व्यापार पर इतना नियंत्रण है कि वे अपने किसानों और उद्योगों को बाहरी प्रतिस्पर्धा से पूरी सुरक्षा देते हैं, उत्पादन व निर्यात के लिए भारी अनुदान देते हैं, और उन्हीं वस्तुओं को अपने देश में आने देते हैं जिनकी उन्हें जरूरत है। लेकिन निर्यात बढ़ाने के लिए बैचेन गरीब देश आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं और इस चक्कर में अपनी पैदावार बहुत सस्ते दामों पर अमीर देशों के अमीर उपभोक्ताओं की सेवा में पेश करते रहते हैं।दूसरी ओर निर्यात पर जोर देने के चक्कर में एक नुकसान यह हो रहा है कि हम अपने देश की सौ करोड़ आबादी की जरूरतों को पूरा करने की बजाए अमीर देशों के अमीर उपभोक्ताओं की विलासितापूर्ण जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे है। ''खाद्य सुरक्षा'' की बात राष्ट्रीय कृषि नीति के पहले पैरे में आयी है, लेकिन उसके बाद वे भूल गए हैं कि देश की विशाल आबादी का पेट भरना हमारी कृषि नीति का पहला व प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए। यह आबादी यदि गरीबी व कुपोषण को कुचक्र से बाहर निकलेगी, तो खाद्यान्नों व कृषि उपज की मांग भी बढ़ेगी और कृषि उत्पादन में भी तेजी आएगी।पहले पैरे में ही यह भी कहा गया है '' कृषि का विकास खाद्य क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता के लिए तो जरूरी है ही.........''। लेकिन जिस ढंग से विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के तहत खाद्यान्न व कृषि उपज के आयात को भारत सरकार द्वारा खुली छूट दी जा रही है उससे तो आत्मनिर्भरता की बात अतीत की हो गयी है। सबसे बढ़िया उदाहरण तो खाद्य तेलों का है। तिलहनों का उत्पादन बढ़ाते-बढ़ाते हम नब्बे के दशक के प्रारंभ में लगभग आत्मनिर्भरता पर पहुंच गये थे। आयात मात्र तीन प्रतिशत रह गया था। लेकिन पिछले दो वर्षों से खाद्य तेलों के आयात को खुली छूट देने से देश में अमरीका के सोया-तेल और मलेशिया के पाम-आईल की बाढ़ आ गयी है।भारतीय खेती पर आयात के सबसे बड़े संकट पर राष्ट्रीय कृषि नीति आश्चर्यजनक रूप से मौन है। सत्ताइसवें पैरे में जाकर यह मात्र दो-तीन पंक्तियों में इतना कहती है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार की लगातार समीक्षा की प्रणाली विकसित की जाएगी और करों को समुचित सुरक्षा प्रदान की जायेगी। लेकिन खाद्य तेलों के अनुभव से स्पष्ट है कि मात्र आयात शुल्क बढ़ाने से आयात कम नहीं होते, क्योंकि उन वस्तुओें के निर्यातक देशों की अनुदान देने की क्षमता असीमित है।विश्व व्यापार संगठन की गुलामी राष्ट्रीय कृषि नीति में भी निर्लज्जता से स्वीकार की गयी है, जहां यह कहा गया है कि ट्रिप्स समझौते के तहत फसलों की नई किस्मों पर शोध तथा प्रजनन को प्रोत्साहन देने के लिए पौधों की सुरक्षा का कानून बनाया जाएगा (पैरा 23)। इस कारण से कंपनियों को अपने नए बीजों के विषय में पेटेंट जैसा ही एकाधिकार स्थापित करने की सुरक्षा मिलेगी। उनके मुनाफे बढ़ जाएँगे। वास्तव में मोनसेन्टो जैसी अनेक बदनाम कंपनियां भारत में अपना कारोबार शुरू करने के लिए इसी कानून की राह देख रही हैं।बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समर्पित इस कानून की ज्यादा आलोचना होने लगी तो इसके नाम से ''किसानों के अधिकार'' को भी जोड़ दिया। लेकिन कानून के वर्तमान मसौदे की 89 धाराओं में मात्र एक धारा किसानों के लिए है और उसमें भी किसानों के अधिकार के नाम पर यह कहा गया कि किसान कंपनियों के रजिस्टर्ड बीज से पैदा उपज को बेचने या रखने के लिए स्वतंत्र होंगे, लेकिन उसको ''बीज'' के रूप में बेच नहीं पाएँगे। यह अधिकार है या मजाक? उपज तो किसान बेचेंगे ही, नहीं तो बीज का इस्तेमाल ही क्यों करेंगे?इस नए कानून के साथ भारत की खेती में जैव टेक्नालॉजी और जीन-इंजीनियरिंग का बड़े पैमाने पर प्रवेश होगा, जो आज दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सबसे बड़े और फलते-फूलते धंधों में से एक है। राष्ट्रीय कृषि नीति में कम से कम चार जगह इसके उपयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। लेकिन इसका स्वागत करने से पहले जीन-संशोधित बीजों और प्रजातियों पर पूरी दुनिया में जो सवाल उठ रहे हैं उन पर भी गौर कर लेना चाहिए।कृषि नीति में जीन-संशोधित प्रजातियों के अलावा अन्य कई प्रकार से आधुनिक टेक्नोलॉजी का सहारा लेने की बात कही गयी है। ग्रीनहाउस, शीत घरों की श्रृंखला, बूंदाबांदी या टपक सिंचाई, कंप्यूटरीकरण, मछली पकड़ने की नावों के मशीनीकरण, गहरे समुद्र में मछली उद्योग के तंत्र आदि की चर्चा इसमें है।इस कृषि नीति का एक हिस्सा ''खतरा प्रबंधन'' को समर्पित है। एक प्रकार से यह स्वीकार किया है कि भारतीय खेती में जोखिम और खतरे बढ़े हैं। इसके लिए इस कृषि नीति में एक ही दवा है, वह है राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना। लेकिन फसल बीमा योजना का अभी तक का अनुभव बहुत खराब रहा है, और उससे किसानों को कोई मदद नहीं मिली है, सिर्फ बीमा कंपनियों का धंधा बढ़ा है।
( विकास संवाद के लिए तैयार एग्री पैक का हिस्सा - शिवनारायण )
No comments:
Post a Comment