पिछले कुछ वर्षों में जेनेटिक्स और
जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई तरक्की ने यह संभव बना दिया है कि वैज्ञानिक मानव
जीनोम (यानी जेनेटिक संरचना) में चुन-चुनकर फेरबदल कर सकें। जहां इसे एक
महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है वहीं चिकित्सा व अन्य क्षेत्रों में इसके
निहितार्थों को देखते हुए इसके नैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं पर विचार करना भी ज़रूरी हो गया है। इसी
ज़रूरत के मद्देनज़र इस शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया था।
मानव जीनोम संपादन के इस
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़, चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ और यूके की
रॉयल सोसायटी द्वारा संयुक्त रूप से वॉशिंगटन में किया गया। इसमें भारत समेत 20
देशों के वैज्ञानिक प्रतिनिधि शरीक हुए।
सम्मेलन के आयोजकों में से एक
कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वायरस वैज्ञानिक डेविड बाल्टीमोर ने
बताया है कि जीनोम में फेरबदल की नई तकनीक के चलते यह विचार-विमर्श अनिवार्य हो
गया था ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इससे जुड़े मुद्दों को सामने रखा जा सके और कुछ
समझ बनाई जा सके। यह विचार-विमर्श तब और भी आवश्यक हो गया था जब ऐसी अफवाहें थीं
कि कुछ प्रयोगशालाओं में मानव भ्रूण में फेरबदल किए भी जा चुके हैं। खास तौर से इस
वर्ष अप्रैल में चीन के वैज्ञानिकों ने घोषणा की थी कि उन्होंने CRISPR–Cas9
नामक नवीनतम तकनीक का उपयोग करके मानव भ्रूण की
जेनेटिक संरचना को सफलतापूर्वक संशोधित किया है। वैसे चीनी टीम ने जिन भ्रूणों का
उपयोग इस प्रयोग में किया था वे जीवन-क्षम नहीं थे यानी उनके आगे विकास की संभावना
नहीं थी। मगर इस प्रयोग ने संभावनाएं तो खोल ही दी हैं।
हालांकि सम्मेलन में इस
विषय पर कुछ सहमति बनी है मगर आयोजकों को इतना स्पष्ट है कि इस सम्बंध में किसी भी
कारगर सहमति पर पहुंचने से पहले सिर्फ वैज्ञानिकों के बीच नहीं बल्कि समाज के सारे
तबकों के बीच विचार-विमर्श ज़रूरी होगा जिसमें चिकित्सा से जुड़े लोग, आम समाज के लोग शामिल होंगे। इस दृष्टि से आयोजक
स्वीकार करते हैं कि यह सम्मेलन तो पहला कदम भर है। (स्रोत, भोपाल)
No comments:
Post a Comment