अनाज के गोदाम भरे रहने के बावजूद देश के कई इलाकों में भूख से होने वाली मौतों पर सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी से एक बार फिर रकारी रीति-नीतियों की कलई खुली है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार के मामले में दाखिल एक याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने देश को गरीब और अमीर में बांटने के कुत्सित प्रयासों की सख्त आोचना की। जजों ने कहा कि एक तरफ हम मजबूत अर्थव्यवस्था की दुहाई देते हुए खुद को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने का दावा करते हैं, दूसरी ओर कुपोषण और भूख के कारण लोगों के मरने की खबरें अक्सर आती रहती हैं। दरअसल, कुपोषण और गरीबी से निपटने का पूरा नजरिया ही विरोधाभासी है। जब भी खाद्य पदार्थों की आसमान छूती कीमतों के मद्देनजर अनाज की उपलब्धता को लेकर सवाल उठाए जाते हैं, सरकार दावा करती है कि खाद्यान्न की कमी नहीं है, गोदाम भरे पड़े हैं। मगर सवाल है कि वह आम लोगों की पहुंच या बहुत ारे गरीबों की खरीद क्षमता से बाहर क्यों होता जा रहा है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के रूप में रिाती दर पर अनाज खरीदने की जो एकमात्र ुविधा बची हुई है उे भी खुद रकार की ओर से लगातार कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। एक तरफ गोदाम में अनाज सड़ रहा होता है, वहीं बेहद गरीब इलाकों में लोगों को एक वक्त का भोजन मिलना भी दूभर है। भूख स ेहोने वाली मौतों की खबरें आने के बाद उन्हें बीमारी के कारण हुई मौत बताकर संबंधित अधिकारी अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि अगर सरकार अनाज को सड़ने से नहीं बचा सकती तो वह उसे गरीबों के बीच मुफ्त बांट दे। लेकिन समस्या पर काबू पाने के बजाय रकार इका हल मीडिया और अदालातों में पिफ इस रूप में पेश करती है कि देश में गरीबों की ंख्या में कमी आई है1 मलन, योजना आयोग ने एक बार फिर अपनी ताजा रपट में बताया है कि गरीबों की तादाद में पांच फीसद से ज्यादा की कमी दर्ज की गई है। और अब यह आंकड़ा गिर कर बत्ती फीद पर आ गया है। इ पर अदालत ने पूछा कि 1991 की जनंख्या के आधार पर 2011 में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों की संख्या त करने के क्या पैमाने हैं। हाल ही में अदालत ने यह कहते हुए रकार को आड़े हाथों लिया था कि आज ग्रामीण इलाकों में बारह रुपए और शहरों में सत्रह रुपए रोजाना आय को गरीबी रखा के निर्धारण का पैमाना बनाने को कैसे वाजिब ठहराया जा सकता है। विडंबना ह है कि एक ओर राज्यों के हलफनामों में गरीबी रेखा से नीचे के यानी बीपीएल परिवारों की तादाद में बढ़ोत्तरी की बात कही जाती हैं और दूसरी ओर योजना आयोग फरमान जारी करता है कि राज्य इनकी संख्या छत्तीस फीसद के नीचे रखें। गरीबों की दशा में सुधार के लिए आय के स्रोत मुहैया कराने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की गड़बडि़यों को दुरुस्त करने के बजाय ऐेसे फरमान क्या समस्याओं से निपटने में अपनी अक्षमता छिपाने की कोशिश नहीं हैं ? यह समझना मुश्किल है कि जो काम सरकारों को खुद संजीदगी से निपटाने चाहिए उनके लिए अदालतों से बार-बार फटकार मिलने के बाद भी उनकी नींद क्यों नहीं खुलती!
साभार: सम्पादकीय जनसत्ता
1 comment:
यह समझना मुश्किल है कि जो काम सरकारों को खुद संजीदगी से निपटाने चाहिए उनके लिए अदालतों से बार-बार फटकार मिलने के बाद भी उनकी नींद क्यों नहीं खुलती!
वो जानते है कर क्या लोगो आप ?
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