योगेश दीवान
कितना आश्चर्यजनक है कि अचानक मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री पानी बाबा की तर्ज पर ''जैविक बाबा'' हो जाते हैं और मुख्यमंत्री जैविक प्रदेश घोषित करने के लिये धन्यवाद के पात्र। ये वहीं मुख्मंत्री और कृषि मंत्री हैं जो कुछ दिन पहले तक और अभी भी प्रदेश की खेतिहर जमीन को बड़ी ही सामंती उदारता से बड़ी-बड़ी कंपनियों को बांटते हुए फोटो खिंचा रहे थे। इसे परंपरागत जैविक के एकदम खिलाफ ''एग्रो बिजनिस मीट'' कहा गया। भोपाल, इंदौर, जबलपुर और खजुराहो में ऐसे ही एग्रो बिजनिस के बड़े-बड़े दरबार लगाये गये। अब इसमें कितने एम.ओ.यू. पर काम बढ़ा और कितने को लाल फीते ने रोका ये समय ही बतायेगा। पर मुख्यमंत्री उस समय अचानक ही एग्रो बिजनिस के कारण कार्पोरेट घरानों के चहेते बन बैठे थे। आने वाले महीने में फिर से प्रदेश की जमीनों की नीलामी का ऐसा उत्सव एग्रो बिजनिस मीट होने वाला है। जिसमें बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को न्यौता गया है। इतना ही नहीं, खेती को विकास का मॉडल बनाने के लिये म.प्र. विधानसभा का विषेश सत्र भी बुलाया गया है। जिसमें कंपनीकरण में बाधक नियम-कानून बदले जा सकें। थोड़ा और पीछे जाये ंतो ए.ई.जेड. (एग्रीकल्चरल इकॉनामिक जोन) जो निर्यात योग्य खेती के लिये बनाये गये थे या एस.ई.जेड (स्पेशल इकॉनामिक जोन) भी बड़ी चर्चा में थे। जिसमें सीलिंग जैसे सभी कायदे-कानूनों को एक तरफ रखकर डंडे के बल पर किसानों (सीमांत और छोटे) की जमीन पर कब्जा किया गया। जैविक ईधन एक और हल्ला था जिसमें प्रदेश की सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन को औने-पौने दामों और छोटे-छोटे अनुदान के लालच में किसानों से छीना गया। प्रदेश के कृषि विष्वविधालयों की जीनयांत्रिक (जी. एम.) प्रयोगों के लिये भरपूर अनुदानों के साथ मोंन्सैन्टो जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिये खोला गया। अगर भाजपा की सत्ता के षुरूआती दौर में जायें ंतो 2003-04 का समय सोया चौपाल, मंडी कानूनों में परिवर्तन, ठेका खेती को बढ़ावा, पष्चिमी मध्यप्रदेश में बी.टी. कॉटन की षुरूआत, देषी-विदेषी बड़ी कंपनियों को अनाज खरीदी में संरक्षण, इंडियन टोबेको कंपनी (आई.टी.सी.) ऑस्टे्रलियन बीट बोर्ड (ए.डब्ल्यू.बी.) रिलांयस, कारगिल, यू.नी.लीवर, महिन्द्रा, धानूका, महिको, मोंन्सैन्टो जैसी भारी-भरकम और खतरनाक कंपनियों को पलक-पांवड़े बिछाकर गांव-गांव में पहुंचा दिया गया। सोया चौपाल, किसानी बाजार, रिलायंस फ्रेश, महिन्द्रा षुभ-लाभ, हरित बाजार जैसे लुभावने नारे दुकानों, सुपर मार्केट और चमाचम विज्ञापन लोगों को लुभाने और लूटने लगे। इसके साथ ही तथाकथित् विकास के नाम पर कई सारे पॉवर हाऊस (थर्मल-हाईडल) परमाणु बिजलीघर, कारखाने (स्वंय मुख्यमंत्री के क्षेत्र में) सड़क, नेशनल पार्क, बांध, सेंचुरी आदि तो काफी तेज रफ्तार में बन ही रहे हैं जिसमें न सिर्फ लोग उजड़ रहे हैं बल्कि उपजाऊ जमीन भी खत्म हो रही है। पर्यावरण और प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा भी निपट रही है।
फिर जैविक खेती के लिये भी तो कंपनियों के गले मे ही गलबैंया डाली जा रही हैं। पिछली एग्रो मीट में आयी कई कंपनियां जैविक खेती का प्रस्ताव लेकर घूम रही ही थीं। कई कंपनियां पिछली कांग्रेस सरकार के दौर से ही प्रदेश में जैविक खेती का धंधा कर रही हैं। असल मे आज प्रदेश में ही नहीं देश और दुनिया में भी जैविक खेती अथवा उससे पैदा हुआ खाद्य पदार्थ मुनाफे का धंधा है। इसलिये चाहे कंपनी हो, व्यापारी हो बड़ा किसान हो, सिविल सोसाईटी ग्रुप हो या सरकारें सभी जैविक की नारेबाजी में लगी हैं। हांलाकि अभी भी जैनेटिक या आधुनिक खेती के मुकाबले जैविक का धंधा कमजोर ही है। पर यूरोप-अमरीका में बढ़ती जैविक खाद्य पदार्थों की मांग और जैनेटिक के खिलाफ खड़े आंदोलन जैविक खेती की संभावना को बढ़ाते ही हैं। इसलिये सिविल सोसाईटी, एन.जी.ओ. अथवा सामाजिक धार्मिक संगठन भी इस समय बढ़-चढ़कर जैविक के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। उनकी दाता संस्थाओं की तिजोरी जैविक की टोटकेबाजी के लिये खुली हुई हैं। उनको परहेज नहीं है किसी तरह के विचार, सोच और समझ से। उनको अपने मुद्दे पर किसी भी सत्ता या संगठन की दलाली करने से जरा भी संकोच नही है। वे किसी भी कट्टरवादी, फासिस्ट, साधु-संत और संघ के गले में हाथ डालकर घूम सकते हैं। तभी तो बाबा रामदेव जैसों की जैविक के लिये अपील उन्हें ''मास अपील'' लगती है। महेश भट्ट (जैविक पर ''पायजन आन द प्लेटर'' नामक फिल्म बनाकर) की बंबईया फिल्मी चकाचौंध उन्हें अपने मुद्दे के हक में खड़ी दिखती है। पष्चिम से घूम फिर कर आई देषी बीज बचाने और परंपरागत खेती की समझ की माला जपने से अघाते नही हैं। असल में ऐसे तथाकथित् सिविल सोसाईटी या एन.जी.ओ. की प्राथमिकता फंड होती है। वो किस मुद्दे, क्षेत्र और काम के लिये है उनके लिये ये ज्यादा महत्वपूर्ण है। तभी तो हरित क्रांति के दौर में फंडिंग के माध्यम से ऐसे एन.जी.ओ. (उस समय के सामाजिक-स्वंयसेवी संगठन) हाई ब्रिड बीज और केमिकल बंटवाकर आधुनिक खेती के हित और पक्ष में खड़े थे। बाद के दौर में जापान के कृषि वैज्ञानिक ''मासानेव फुकुओका'' की ''वन स्टार रेव्यूलेशन'' (एक तिनके की क्रांति) को गीता/बाईबिल मानकर ढेर सारे एन.जी.ओ. ऋषि खेती करने लगे थे। जिसके लिये बहुत सारा फंड आने लगा था। स्वतंत्रता के एकदम बाद नारू रोग को बहाना बनाकर कुंए, बाबड़ी, पोखर और तालाब को निपटाने का काम भी कभी फंडिंग के चक्र में फंसी एन.जी.ओ. रूपी बिरादरी ने किया था। आज परंपरागत स्रोतों को बचाने की नारेबाजी और हायतौबा भी यही कर रहा है। पी.पी.पी. यानी पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरषिप यानी सार्वजनिक निजी-भागीदारी के तहत् जल-जंगल-जमीन, षिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण की ओर ढकेलने का काम भी यही चतुर-चालाक हमारे एन.जी.ओ. भाई ही कर रहे हैं। अब जैविक खेती के लिये भी ऐसी ही भागीदारी की बात की जा रही है। सवाल उठता है जैविक के लाभ-लागत और उत्पादन का जिसका कोई आंकड़ा तथ्य-तर्क किसी के पास नही है । आज के दोर मे अगर हम एक या दो ढाई एकड के किसान को जैविक करने लिये प्रेरित करते हैं तो क्या वह अपना और अपने परिवार का जीवन इस पध्दति से चला सकता है। और बडे मझले किसानों के लिये जैविक या देषी खेती या तो शगल है या मुनाफे का धंधा। 20 रूपये रोज भी न कमा सकती हो उससे जैविक की बात करना या उससे जैविक उत्पाद खाने की बात कहना बेमानी ही है।
एक वैष्विक जानकारी के अनुसार सन् 2000 में जैविक उत्पादों का सलाना विश्व बाजार 18 अरब डालर का था जो एक साल पहले सन् 2009 में 486 अरब डालर का हो गया। यूरोप, अमेरिका और जापान मे इसका व्यापार बढ रहा है। असल मे साजिश वही है जो अभी तक होती आई है। यानि मांग सात समुन्दर पार होगी और उत्पादक भारत जैसे देश या तीसरी दुनिया के छोटे और गरीब किसान क्योंकि यहां की भौतिक और प्राकृतिक परिस्थितियां की इस तरह खेती के अनुकूल है। जैविक खेती की मार्केटिंग करने वाले संगठन '' इंटरनेशनल कार्पोरेट सेंटर फार आर्गेनिक एग्रीकल्चर के अनंसार 2007- 2008 में इस खेती का रकबा 15 लाख हैक्टेयर तक पहुच गया है और जैविक उत्पादों का निर्यात भी इस दौरान चार गुना हो गया है। वहीं हमारे देश मे महज पांच साल मे ही इसका रकबा सात गुना से भी ज्यादा हो गया है। एैसा माना जाता रहा है कि भविष्य मे जैविक उत्पादों के मामले मे भारत, चीन, ब्राजील जैसे देश सबसे आगे होगें पर उपभोग के मामले मे कोई ओर होगा।
सिर झुका कर, हाथ जोडे सत्ता की तारीफ में नारे लगाते, मुख्यमंत्री के दरबार में पहुंची एक बड़ी संख्या इसी एन.जी.ओ. रूपी दलाल की थी, बाकी संघ के सिपाही थे। क्योंकि मुख्य आयोजन आर.एस.एस. के संगठनों का ही था। बैनर, पोस्टर प्रेस कटिंग, मिनिट्स, रिपोर्ट आदि से दाता संस्था को साधनेवाले एन.जी.ओ. के लिये षायद ये एडवोकेसी या जन-अदालत का एक तरीका था। कभी-कभी 25-50 लोगों के साथ सड़क पर आने को ''राईट बेस'' लड़ाई (अधिकार आधारित) भी कहा जाता है। इनसे थोड़ा कड़वा या कर्कश सवाल पूछने का मन भी होता है कि यदि खुदा न खास्ता (भगवान न करे यदि है! तो) कल मध्यप्रदेश में भी कुछ साल पहले का मोदी का गुजरात दोहराया जाता है तो ये चतुर-चालाक चहेते (संघी विचार के) एन.जी.ओ. कहां खड़े होंगे? गुजरात का अनुभव तो काफी डरावना और कंपकपी पैदा करनेवाला है। जहां गांधीयन संस्थाओं तक के दरवाजे सांप्रदायिक सद्भाव की आवाज उठाने गई मेधा पाटेकर के लिये बंद हो जाते हैं और उसे पिटने के लिये अकेला छोड़ दिया जाता है। जहां आठवले का पानी बचाने और जैविक खेती करनेवाला स्वाध्याय संगठन या सेल्फ-हैल्प ग्रुप बनानेवाली इला भट्ट की ''सेवा'' या कई सारे छोटे-बड़े गांधीयन एन.जी.ओ. संस्थाएं सद्भाव की नहीं किसी और (षायद मोदी की) दिषा में खड़े दिखाई दिये थे। पूछने का मन होता है कि आखिर इनकी जैविक खेती, वाटर षेड, स्वंय सहायता समूह या ''तथाकथित'' विकास आधारित काम किसके लिये है? क्या उस हत्यारे समाज-विचार या सत्ता के लिये, अगर हां, तो मुझे कुछ नहीं कहना?
ये सही है कि अपने फंड के कारण एन.जी.ओ. तो हमेषा वर्तमान में जीते हैं, पर सरकार का तो इतिहास को जाने बिना काम नहीं चलता। अगर जैविक बाबा(कृषि मंत्री) या जैविक राज्य के लिये धन्यवाद बटोरने वाली षिवराज सरकार अपने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कागज-पत्तर पलटें तो जैविक का राज वहां छुपा हुआ मिलेगा। और फिर षिवराज की पदवी छिन भी सकती है। क्योंकि जैविक की जिस बादषाहत का दावा वे आज कर रहे हैं वो काम दिग्विजय सिंह ने कई साल पहले हर जिले में जैविक गांव बनाकर कर दिया था और ऐसे ही तात्कालिक वाह वाही लूटी थी। एन.जी.ओ. और कंपनियां उस समय भी उनके पीछे थीं। खंडवा जिले के छैगांव माखन ब्लाक का मलगांव ऐसा ही एक जैविक के लिये चर्चित गांव था। जहां नीदरलैंड की बहुराष्ट्र्र्रीय कंपनी स्काल इंटरनेशनल ने अपनी देषी कंपनी ''राज ईको फार्मस'' के माध्यम से किसानों के साथ उत्पादन से खरीदी तक का समझौता किया था। कंपनी का पूरा मॉडल ढेर सारी शर्तों के साथ कॉर्पोरेट खेती या ठेका (कान्टे्र्र्रक्ट) खेती के आधार पर ही था। किसान इस जैविक खेती में एक तरह से बंधुआ बन चुका था। कीमत में या लाभ में किसान को बी.टी.कॉटन की अपेक्षा भले ही थोड़ा ज्यादा मूल्य मिले पर उसके जैविक कपास से बने टी-शर्ट की कीमत (विदेषी बाजार) 25 हजार रूपये होती थी, जो कंपनी के हिस्से का लाभ था। म.प्र. में ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। अगर इन्हें जाने बिना हमारी सरकार, तथाकथित् एन.जी.ओ. और संघ गिरोह अपने देषी-स्वदेषी, स्थानीय या जैविक प्रेम को प्रदेश के भोले-भाले किसानों पे थोपतें है तो निष्चित ही प्रदेश की खेती के कंपनीकरण को कुपोषित बच्चों की मौतों को (जिसमे प्रदेश कई सालों से सबसे उपर है) और बढती हुई। किसानों की आत्महत्या (इसमे प्रदेश तीसरे पायदान पर है) को कोई नहीं रोक सकता। षायद आज बड़ी जरूरत है जैविक और जैनेटिक, देषी विदेषी या परंपरागत खेती के नारों विवादों को प्रोजेक्ट फंडिंग या धंधे के चष्मे से बाहर निकल कर देखने की उसके तर्क तथ्य, आंकड़े और विज्ञान ( लोगों की जमीन -झोपडी के हक मे ) को जनता के हित में सोचने की। सिर्फ विदेश के लिये (निर्यात ) विदेशी पैसे और कंपनी के कहने पर हमारे छोटे-सीमांत निरीह किसानों को हांकना निष्चित ही एक वडा सिन (बाईबल का वाक्य) या पाप है।
फिर जैविक खेती के लिये भी तो कंपनियों के गले मे ही गलबैंया डाली जा रही हैं। पिछली एग्रो मीट में आयी कई कंपनियां जैविक खेती का प्रस्ताव लेकर घूम रही ही थीं। कई कंपनियां पिछली कांग्रेस सरकार के दौर से ही प्रदेश में जैविक खेती का धंधा कर रही हैं। असल मे आज प्रदेश में ही नहीं देश और दुनिया में भी जैविक खेती अथवा उससे पैदा हुआ खाद्य पदार्थ मुनाफे का धंधा है। इसलिये चाहे कंपनी हो, व्यापारी हो बड़ा किसान हो, सिविल सोसाईटी ग्रुप हो या सरकारें सभी जैविक की नारेबाजी में लगी हैं। हांलाकि अभी भी जैनेटिक या आधुनिक खेती के मुकाबले जैविक का धंधा कमजोर ही है। पर यूरोप-अमरीका में बढ़ती जैविक खाद्य पदार्थों की मांग और जैनेटिक के खिलाफ खड़े आंदोलन जैविक खेती की संभावना को बढ़ाते ही हैं। इसलिये सिविल सोसाईटी, एन.जी.ओ. अथवा सामाजिक धार्मिक संगठन भी इस समय बढ़-चढ़कर जैविक के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। उनकी दाता संस्थाओं की तिजोरी जैविक की टोटकेबाजी के लिये खुली हुई हैं। उनको परहेज नहीं है किसी तरह के विचार, सोच और समझ से। उनको अपने मुद्दे पर किसी भी सत्ता या संगठन की दलाली करने से जरा भी संकोच नही है। वे किसी भी कट्टरवादी, फासिस्ट, साधु-संत और संघ के गले में हाथ डालकर घूम सकते हैं। तभी तो बाबा रामदेव जैसों की जैविक के लिये अपील उन्हें ''मास अपील'' लगती है। महेश भट्ट (जैविक पर ''पायजन आन द प्लेटर'' नामक फिल्म बनाकर) की बंबईया फिल्मी चकाचौंध उन्हें अपने मुद्दे के हक में खड़ी दिखती है। पष्चिम से घूम फिर कर आई देषी बीज बचाने और परंपरागत खेती की समझ की माला जपने से अघाते नही हैं। असल में ऐसे तथाकथित् सिविल सोसाईटी या एन.जी.ओ. की प्राथमिकता फंड होती है। वो किस मुद्दे, क्षेत्र और काम के लिये है उनके लिये ये ज्यादा महत्वपूर्ण है। तभी तो हरित क्रांति के दौर में फंडिंग के माध्यम से ऐसे एन.जी.ओ. (उस समय के सामाजिक-स्वंयसेवी संगठन) हाई ब्रिड बीज और केमिकल बंटवाकर आधुनिक खेती के हित और पक्ष में खड़े थे। बाद के दौर में जापान के कृषि वैज्ञानिक ''मासानेव फुकुओका'' की ''वन स्टार रेव्यूलेशन'' (एक तिनके की क्रांति) को गीता/बाईबिल मानकर ढेर सारे एन.जी.ओ. ऋषि खेती करने लगे थे। जिसके लिये बहुत सारा फंड आने लगा था। स्वतंत्रता के एकदम बाद नारू रोग को बहाना बनाकर कुंए, बाबड़ी, पोखर और तालाब को निपटाने का काम भी कभी फंडिंग के चक्र में फंसी एन.जी.ओ. रूपी बिरादरी ने किया था। आज परंपरागत स्रोतों को बचाने की नारेबाजी और हायतौबा भी यही कर रहा है। पी.पी.पी. यानी पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरषिप यानी सार्वजनिक निजी-भागीदारी के तहत् जल-जंगल-जमीन, षिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण की ओर ढकेलने का काम भी यही चतुर-चालाक हमारे एन.जी.ओ. भाई ही कर रहे हैं। अब जैविक खेती के लिये भी ऐसी ही भागीदारी की बात की जा रही है। सवाल उठता है जैविक के लाभ-लागत और उत्पादन का जिसका कोई आंकड़ा तथ्य-तर्क किसी के पास नही है । आज के दोर मे अगर हम एक या दो ढाई एकड के किसान को जैविक करने लिये प्रेरित करते हैं तो क्या वह अपना और अपने परिवार का जीवन इस पध्दति से चला सकता है। और बडे मझले किसानों के लिये जैविक या देषी खेती या तो शगल है या मुनाफे का धंधा। 20 रूपये रोज भी न कमा सकती हो उससे जैविक की बात करना या उससे जैविक उत्पाद खाने की बात कहना बेमानी ही है।
एक वैष्विक जानकारी के अनुसार सन् 2000 में जैविक उत्पादों का सलाना विश्व बाजार 18 अरब डालर का था जो एक साल पहले सन् 2009 में 486 अरब डालर का हो गया। यूरोप, अमेरिका और जापान मे इसका व्यापार बढ रहा है। असल मे साजिश वही है जो अभी तक होती आई है। यानि मांग सात समुन्दर पार होगी और उत्पादक भारत जैसे देश या तीसरी दुनिया के छोटे और गरीब किसान क्योंकि यहां की भौतिक और प्राकृतिक परिस्थितियां की इस तरह खेती के अनुकूल है। जैविक खेती की मार्केटिंग करने वाले संगठन '' इंटरनेशनल कार्पोरेट सेंटर फार आर्गेनिक एग्रीकल्चर के अनंसार 2007- 2008 में इस खेती का रकबा 15 लाख हैक्टेयर तक पहुच गया है और जैविक उत्पादों का निर्यात भी इस दौरान चार गुना हो गया है। वहीं हमारे देश मे महज पांच साल मे ही इसका रकबा सात गुना से भी ज्यादा हो गया है। एैसा माना जाता रहा है कि भविष्य मे जैविक उत्पादों के मामले मे भारत, चीन, ब्राजील जैसे देश सबसे आगे होगें पर उपभोग के मामले मे कोई ओर होगा।
सिर झुका कर, हाथ जोडे सत्ता की तारीफ में नारे लगाते, मुख्यमंत्री के दरबार में पहुंची एक बड़ी संख्या इसी एन.जी.ओ. रूपी दलाल की थी, बाकी संघ के सिपाही थे। क्योंकि मुख्य आयोजन आर.एस.एस. के संगठनों का ही था। बैनर, पोस्टर प्रेस कटिंग, मिनिट्स, रिपोर्ट आदि से दाता संस्था को साधनेवाले एन.जी.ओ. के लिये षायद ये एडवोकेसी या जन-अदालत का एक तरीका था। कभी-कभी 25-50 लोगों के साथ सड़क पर आने को ''राईट बेस'' लड़ाई (अधिकार आधारित) भी कहा जाता है। इनसे थोड़ा कड़वा या कर्कश सवाल पूछने का मन भी होता है कि यदि खुदा न खास्ता (भगवान न करे यदि है! तो) कल मध्यप्रदेश में भी कुछ साल पहले का मोदी का गुजरात दोहराया जाता है तो ये चतुर-चालाक चहेते (संघी विचार के) एन.जी.ओ. कहां खड़े होंगे? गुजरात का अनुभव तो काफी डरावना और कंपकपी पैदा करनेवाला है। जहां गांधीयन संस्थाओं तक के दरवाजे सांप्रदायिक सद्भाव की आवाज उठाने गई मेधा पाटेकर के लिये बंद हो जाते हैं और उसे पिटने के लिये अकेला छोड़ दिया जाता है। जहां आठवले का पानी बचाने और जैविक खेती करनेवाला स्वाध्याय संगठन या सेल्फ-हैल्प ग्रुप बनानेवाली इला भट्ट की ''सेवा'' या कई सारे छोटे-बड़े गांधीयन एन.जी.ओ. संस्थाएं सद्भाव की नहीं किसी और (षायद मोदी की) दिषा में खड़े दिखाई दिये थे। पूछने का मन होता है कि आखिर इनकी जैविक खेती, वाटर षेड, स्वंय सहायता समूह या ''तथाकथित'' विकास आधारित काम किसके लिये है? क्या उस हत्यारे समाज-विचार या सत्ता के लिये, अगर हां, तो मुझे कुछ नहीं कहना?
ये सही है कि अपने फंड के कारण एन.जी.ओ. तो हमेषा वर्तमान में जीते हैं, पर सरकार का तो इतिहास को जाने बिना काम नहीं चलता। अगर जैविक बाबा(कृषि मंत्री) या जैविक राज्य के लिये धन्यवाद बटोरने वाली षिवराज सरकार अपने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कागज-पत्तर पलटें तो जैविक का राज वहां छुपा हुआ मिलेगा। और फिर षिवराज की पदवी छिन भी सकती है। क्योंकि जैविक की जिस बादषाहत का दावा वे आज कर रहे हैं वो काम दिग्विजय सिंह ने कई साल पहले हर जिले में जैविक गांव बनाकर कर दिया था और ऐसे ही तात्कालिक वाह वाही लूटी थी। एन.जी.ओ. और कंपनियां उस समय भी उनके पीछे थीं। खंडवा जिले के छैगांव माखन ब्लाक का मलगांव ऐसा ही एक जैविक के लिये चर्चित गांव था। जहां नीदरलैंड की बहुराष्ट्र्र्रीय कंपनी स्काल इंटरनेशनल ने अपनी देषी कंपनी ''राज ईको फार्मस'' के माध्यम से किसानों के साथ उत्पादन से खरीदी तक का समझौता किया था। कंपनी का पूरा मॉडल ढेर सारी शर्तों के साथ कॉर्पोरेट खेती या ठेका (कान्टे्र्र्रक्ट) खेती के आधार पर ही था। किसान इस जैविक खेती में एक तरह से बंधुआ बन चुका था। कीमत में या लाभ में किसान को बी.टी.कॉटन की अपेक्षा भले ही थोड़ा ज्यादा मूल्य मिले पर उसके जैविक कपास से बने टी-शर्ट की कीमत (विदेषी बाजार) 25 हजार रूपये होती थी, जो कंपनी के हिस्से का लाभ था। म.प्र. में ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। अगर इन्हें जाने बिना हमारी सरकार, तथाकथित् एन.जी.ओ. और संघ गिरोह अपने देषी-स्वदेषी, स्थानीय या जैविक प्रेम को प्रदेश के भोले-भाले किसानों पे थोपतें है तो निष्चित ही प्रदेश की खेती के कंपनीकरण को कुपोषित बच्चों की मौतों को (जिसमे प्रदेश कई सालों से सबसे उपर है) और बढती हुई। किसानों की आत्महत्या (इसमे प्रदेश तीसरे पायदान पर है) को कोई नहीं रोक सकता। षायद आज बड़ी जरूरत है जैविक और जैनेटिक, देषी विदेषी या परंपरागत खेती के नारों विवादों को प्रोजेक्ट फंडिंग या धंधे के चष्मे से बाहर निकल कर देखने की उसके तर्क तथ्य, आंकड़े और विज्ञान ( लोगों की जमीन -झोपडी के हक मे ) को जनता के हित में सोचने की। सिर्फ विदेश के लिये (निर्यात ) विदेशी पैसे और कंपनी के कहने पर हमारे छोटे-सीमांत निरीह किसानों को हांकना निष्चित ही एक वडा सिन (बाईबल का वाक्य) या पाप है।
योगेश दीवान, मो. 09827624289
4 comments:
लोगों का जमीर मर चूका है ,लोग लोभ-लालच में अंधे हो गयें हैं / इन्सान हैवान बन चूका है / अब तो मिलकर जमीर को जिन्दा करने का प्रयास करना होगा /
योगेश भाई जिन्दाबाद
बहुत दिनों बाद योगेश भाई का आलेख पड़ने को मिला. उनका लिखा बार बार पड़ने को मन करता है और हर बार पड़कर गुस्सा भी आता है ..आखिर दुनिया और समाज में चल क्या रहा है..हम कहाँ जा रहे हैं
Bahut achchha likhte hain aap.Badhai!!
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