भारत डोगरा
हाल ही में बीटी बैंगन के मुद्दे ने जोर पकड़ा है और इस संदर्भ में जगह-जगह पर जन-सुनवाईयां हुई हैं। कई राज्य सरकारों ने भी बीटी बैंगन के प्रति अपना विरोध जताया है। यह राय सरकारें बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने एक नाजुक समय पर उचित निर्णय लिया। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह मुद्दा केवल बैंगन का नहीं है। जेनेटिक इंजीनियरिंग (जी.ई. या जी.एम.) बदली गई 50 से अधिक फसलों पर तैयारी चल रही है जिसमें चावल जैसी देश की सबसे महत्वपूर्ण फसल भी है। एक बार बीटी बैंगन को हरी झंडी मिल गई तो इसे एक मुख्य आधार बना कर जेनेटिक इंजीनियरिंग की अन्य फसलों को भी मंजूरी दिलाने की तैयारी चल रही है।
इस तरह हमारे देश की खाद्य सुरक्षा व आत्म-निर्भरता पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एक बहुत बड़ा हमला हो रहा है। यह हमला ईस्ट इंडिया कंपनी के हमले से भी खतरनाक हो सकता है। सबकों पता है कि ईस्ट इंडिया का हमला कितना विनाशक था। लार्ड बैंटिक ने स्वयं स्वीकार किया था कि इसके परिणामों के फलस्वरूप भारत के मैदान जुलाहों की हड्डियों से सफेद हो रहे हैं। पर उस समय जो तकनीकें थीं उनकी गलतियों को सुधारना संभव था। इस कारण हम औपनिवेशिक तबाही से फिर उभर सकें। पर जेनेटिक इंजीनियरिंग से जो जेनेटिक प्रदूषण होगा, उससे उभरना बहुत कठिन है और यह फसलें बड़े क्षेत्र में फैल गईं तो फिर कह सकते हैं इस जेनेटिक प्रदूषण से उभरना असंभव है। इस एक महत्वपूर्ण संदर्भ में यह हमला ईस्ट इंडिया कंपनी के हमले से भी अधिक खतरनाक हो सकता है कि इससे उभरना असंभव हो सकता है।
जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेजी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के बहुत से देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जीई फसलों के असर से मुक्त हों। यदि जीई फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाजार छिन जाएगा। एक बार जेनेटिक प्रदूषण फैल जाए तो फिर उसका नियंत्रण असंभव या बहुत कठिन हो सकता है। स्टारकार्न नाम की मक्का की जीई फसल को लौटाने के लिए लाखों डॉलर खर्च करने पड़े तो भी पूरी सफलता नहीं मिली। निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीई फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की चर्चित पुस्तक 'जेनेटिक रुलेट (जुआ)' के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीई फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है व जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।
जीई फसलों के इन खतरों को देखते हुए विभिन्न देशों में कम से कम किसी फसल के जन्म विविधता क्षेत्रों में इन फलों से परहेज किया जाता है। पर भारत में जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं उससे लगता है बैंगन के विविधता क्षेत्र में बरतने वाली सावधानी की भी अवहेलना हुई है। भारत में बैंगन की सैकड़ों देशी किस्में हैं पर उनकी अवहेलना कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की बीटी किस्म को आगे बढ़ाने में सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे कुछ व्यक्ति लगे हुए हैं। इस प्रश्न का कोई संतोषजनक जवाब अब तक नहीं मिल सका है कि इस किस्म को आगे बढ़ाने पर इतना ध्यान क्यों दिया जा रहा है। कीटनाशक का उपयोग कम होने का दावा किया जाता है जबकि पिछले अनुभव बताते हैं कि यह दावा गलत है।
भारत में जीई फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पीवी सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्रप्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली व सैकडाें भेंड़ें कॉटन खेती में चरने के बाद मर गईं। पर वर्ष 2006 में बीज का केन्द्रीयकरण कर ऐसी स्थिति उत्पन्न की गई जिसमें ऐसा संकरित बीज बाजार में मिलना कठिन हो गया जो जीई मुक्त है।
कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टैक्नोलॉजी मात्र लगभग छ:-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केंद्रित हैं। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देश व विशेषकर संयुक्त राय अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है। एक समय ऐसा था जब इन मामलों में भारत के सजग स्वाभिमानी तेवर विकासशील देशों को साम्रायवादी ताकतों का सामना करने के लिए प्रेरणा देते थे। आज अंतरराष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में चर्चा इस बात की होती है कि भारत का कृषि मंत्रालय और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद किस हद तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे झुक चुके हैं, वह भी उन कंपनियों के आगे जिनके भ्रष्टाचार, अनैतिक तौर-तरीकों, जोर-जबरदस्ती आदि पर इतनी सामग्री उपलब्ध है कि बहुत मोटा पोथा इसी पर लिखा जा सकता है। कांग्रेस पार्टी का साम्रायवाद विरोध का इतिहास रहा है। उसे तो यह सोचना चाहिए कि उसकी सत्ता के समय में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से कृषि की कितनी स्थाई क्षति हो रही है। केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश की सरकारें इस मामले में बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने बीटी बैंगन को अनुमति देने से इंकार कर दिया है। जीएम फसलों से जुड़ी बड़ी कंपनियों ने यह प्रचार किया है कि इन फसलों से उत्पादकता बढ़ती है। इस प्रचार का उत्तर डॉ. जैक ए. हनीमेन ने दिया है, जो कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूजीलैंड) में पढ़ाते हैं व जिन्हें विभिन्न जीएम फसलों के मूल्यांकन का एक दशक का अनुभव है। उन्होंने कहा कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व वे इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती है, दूसरे रूप में नहीं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती हैं, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। डॉ. हनीमेन ने यह भी कहा है कि जीएम फसलों को सुरक्षित करने के लिए प्राय: जिन अध्ययनों व आंकड़ों को आधार बनाया जाता है उनकी गुणवत्ता बहुत कम होती है व भारत में तो यह गुणवत्ता जीएम फसलों के संदर्भ में और भी कम पाई गई।
3 comments:
भारत जी, और जानकारी चाहिए। ऐसी जानकारी जो हमारे आस पास के अनुभवों से जुड़ी हो जिसे पढ़कर आज के हम भोपूं पत्रकारों को कुछ समझ में आ सके। विविधता क्या होती है ये सब नहीं समझ सकते। अच्छी तरह से याद है गांव में चावल पकता था तो सुगंध दस घरों तक जाती थी। अब घर में ही पक जाता है और पता नहीं चलता। ऐसे न जाने कितने वेरायटी खतम हो गए।
विचारपरक लेख -आभार
अब रवीश जी ने जिस उद्देश्य से भी लिखा हो, एक बात तो जरूर है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत को लूटने निकली हैं, मुखौटा बदलकर. यदि फसलों के बारे में देखना है तो हाइब्रिड टमाटर और हाइब्रिड खीरा एक ओर रखें दूसरी ओर देसी टमाटर और देसी खीरा. खाने पर स्वत फर्क पता चलता है.
Post a Comment