समय समय पर हुए तमाम अध्ययनों से दो बातें सामने आती रही हैं। एक तो है कि
लोग खेती के ज़रिए अपनी आज़ीविका नहीं चला पा रहे हैं मसलन वे खेती छोड़ रहे हैं
और दूसरा हर साल शहरों में बस्तियों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है। यद्यपि इन
दोनों तरह के अध्ययनों के बीच के सम्बन्ध को जानना थोड़ा मुश्किल हैं क्योंकि
यह बात तो सामने आती है कि बस्तियों में रहने वाले लोगों का जीवन कैसे चल रहा है।
उनके प्रमुख रोजगार क्या है इत्यादि। लेकिन इस बात को लेकर मुझे कोई अध्ययन
नहीं दिखाई दिया जो यह बताए कि बस्तियों में आने वाले नए लोग कौन हैं ? वे शहर की इस मुश्किल जिन्दगी
को कम से कम खुशी-खुशी तो स्वीकार नहीं ही कर सकते। यानी ये वे लोग हैं जो कि
बस्तियों में आने से पहले अपने जीवन के संघर्षों से हारे हुए लोग हैं और विकल्प
की तलाश में इस तरह के जटिल हालातों में हैं।
खैर खेती छोड़कर शहरी बस्तियों में आकर मज़दूरी करने वाली बात को हम सीधे तौर
पर स्वीकार न भी करें तो भी इस बात से नहीं नकारा जा सकता है कि खेती पर संकट है।
वर्तमान खेती-किसानी के विकल्प तलाशना फिलहाल किसानों की मजबूरी है। चूँकि खेती
दरअसल केवल एक रोजगार ही नहीं है बल्कि वह एक जीवनशैली है। और जीवनशैली होने के
कारण खेती से बाहर जाना किसानों के लिए खुशी की बात नहीं होती। पर यदि हम खेती पर
पड़ते दबाबों को देखें तो असल में खेती से बाहर जाना ही खेती को सशक्त करने का एक
तरीका हो सकता है। हम जानते हैं कि खेती का रकबा आए दिन कम हो रहा है और खेती पर
दबाब लगातार बढ़ता जा रहा है। पर असल में खेती को छोड़कर रोजगार के अच्छे अवसर
उपलब्ध कराने की महत्ती आवश्यकता है जिस पर अभी कोई खास काम नहीं हो पा रहा है।
मैं एक खबर पड़ रहा था जिसमें एक अध्ययन के हवाले से कहा गया है कि 2014 में
खेतीहर व्यवसाय में रोजगार के ज्यादा अवसर उपलब्ध होंगे। हालांकि इस बात को
समझना भी जरूरी है कि ये खेतीहर व्यवसाय किस तरह के होंगे और क्या वे
खेती-किसानी से जुड़े तबके को रोजगार के अवसर मुहैया करा पाने में समर्थ होंगे ? खैर जो भी हमें शायद इस दिशा में सोचने की इस समय आवश्यकता
है कि खेती के इतर रोजगार के मौके अधिक से अधिक कैसे उपलब्ध कराए जा सकते हैं और
वह भी बिना शहरी बस्तियों में रहने वाले लोगों की संख्या में इजाफा किए?
आप सभी को नए साल की शुभकामनाएं।
शिवनारायण गौर
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