पिछले दिनों इंदौर के सजीव कृषि मेले में उत्तराखंड के देसी बीजों का स्टाल लगा हुआ है। इन बीजों को मैंने अपने हाथ में लेकर देखा तो देखते ही रह गया। देर तक रंग-बिरंगे बीजों के सौंदर्य को निहारते रहा। धान, राजमा, मंडुवा (कोदा), मारसा (रामदाना), झंगोरा, गेहूं, लोबिया, भट्ट, राजमा और दलहन-तिलहन की कई प्रजातियां छोटी पालीथीन में चमक रही थीं। इन्हें बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े विजय जडधारी लेकर आए थे।
चिपको आंदोलन से निकले विजय जड़धारी पिछले कई बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए हैं। सत्तर के दषक में यहां पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अनूठा चिपको आंदोलन हुआ था जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के लिए देश-दुनिया में मिसाल पेश की थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह आंदोलन देश-दुनिया में प्रेरणा का स्त्रोत बना।
विजय जड़धारी इसी आंदोलन से जुड़े हुए थे। चूंकि वे गांव में रहते हैं इसलिए उन्होंने बहुत जल्द ही रासायनिक खेती के खतरे को भांप लिया और खेती बचाने के लिए देसी बीजों की परंपरागत खेती को पुनर्जीवित किया। उन्होंने कहा कि रासायनिक खेती की शुरूआत में कृषि विभाग के लोग मुफ्त में बीज किट दिया करते थे। उसमें रासायनिक खाद भी होता था। उससे उपज तो बढी, लेकिन बढ़ने के बाद क्रमशः धीरे-धीरे कम होती गई। जब हमने देसी बीजों की तलाश की तो हमें नहीं मिले। लेकिन हमारी देसी बीजों की तलाश जारी रही। अंततः हमें ऐसे किसान मिले जो मिलवां या मिश्रित खेती करते थे। बारहनाजा यानी बारह तरह के अनाज एक साथ बोते थे।
बारहनाजा में बारह अनाज ही हों, यह जरूरी नहीं। इसमें ज्यादा भी हो सकते हैं। दरअसल, बारहनाजा भोजन की सुरक्षा व पोषण के लिए तो उपयोगी है ही। साथ में खेती और पशुपालन के रिष्ते को भी मजबूत बनाता है। फसलों के अवषेष जो ठंडल, चारा व भूसा के रूप में बचते हैं, वे पशुओं के आहार बनते हैं। गाय-बैल के गोबर से ही भूमि की उर्वर शक्ति बढ़ती है।
यहां बारहनाजा में कौन-कौन से अनाज बोते हैं, यह जानना भी उचित होगा। कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू, ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भटट, रैयास, उड़द, सुंटा, रगडवास, गुरूंया, तोर, मूंग, भंजगीर, तिल, जख्या, सण, काखड़ी आदि।
बारहनाजा का एक फसलचक्र है। यहां की लगभग 13 प्रतिशत भूमि सिंचित है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित भूमि में ज्यादा विविधता नहीं है। जबकि असिंचित भूमि में विविधतायुक्त बारहनाजा दलहन, तिलहन आदि की विविधतापूर्ण खेती होती है। इसमें मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। इसलिए फसल कटाई के बाद वे खेत को पड़ती छोड़ देते हैं। जमीन को पुराने स्वरूप में लाने की कोशिश की जाती थी। अब तो एक वर्ष में तीन-तीन चार फसलें ली जा रही हैं। मिट्टी-पानी का बेहिसाब दोहन किया जा रहा है।
इसी प्रकार की मिश्रित फसलें मध्यप्रदेश के सूखा क्षेत्रों में प्रचलित हैं। हो्शंगाबाद की जंगल पट्टी में बिर्रा या उसका संशोधित रूप उतेरा प्रचलित है। इसमें किसान मक्का, उड़द, अरहर, सोयाबीन, ज्वार आदि लगाते हैं। एक साथ फसल बोने की पद्धति को उतेरा कहा जाता है। खेती के इस संकट के दौर में सतपुड़ा जंगल के सूखे और असिंचित इलाके में खा़द्य सुरक्षा को बनाए रखने की उतेरा पद्धति प्रचलित है। इसे गजरा के नाम से भी जाना जाता है। इसमें चार-पांच फसलों को एक साथ बोया जाता है। इसका एक संशोधित रूप बिर्रा ( गेहू-चना दोनों मिलवां ) है जिसकी रोटी बुजुर्ग अब भी खाना पसंद करते है।
उतेरा में एक साथ बोने वाले अनाज जैसे धान, ज्चार, कोदो, राहर और तिल्ली। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। उतेरा की खास बात यह भी है कि इसमें मिट्टी का उपजाऊपन खत्म नहीं होता। कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियोंवाली फसलें बोने से नत्रजन आधारित बाहरी निवेषों की जरूरत कम पड़ती है। फसलों के डंठल तथा पुआल उन मवेशियों को खिलाने के काम आते हैं जो जैव खाद पैदा करते है। इस प्रकार मनुष्यों को खेती से अनाज, पशुओं को भोजन और मिट्टी का उपजाऊपन भी उतेरा अक्षुण्ण है।
बाबा मायाराम
1 comment:
जानकारीप्रद लेख के लिए आभार।
घुघूती बासूती
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