नोटबंदी को लगभग महीना भर गुजर गया है। अब स्थितियां पहले
से बेहतर हुई हैं। एटीएम पर लाइन पहले से थोड़ी छोटी हो गई है। हालांकि इस बात को
भी नहीं भुलाया जा सकता कि महीने भर के दौर में लगभग 55 लोगो की जान चली गई। और ये
आंकड़ा बकौल मीडिया की खबरों के आधार पर है यानी इसकी वास्तविक संख्या इससे
ज़्यादा भी हो सकती है। इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि इसकी भरपाई किसी भी तरह
से नोटों के ज़रिए कर पाना सम्भव नहीं है। नौकरीपेशा व्यक्ति को इस मुश्किल से
गुज़रना पड़ रहा है कि वे अपने ही पैसे नहीं निकाल पा रहे हैं लेकिन वे इस बात से
तो निश्चिंत हैं कि उनके पैसे उनके बैंकों में सुरक्षित हैं। थोड़े दिनों के
संघर्ष के बाद उनके हालात लगभग ठीक-ठाक हो जाएंगे। पर दरअसल असल संकट किसानों के
सामने हैं। उनके हालात ठीक होना थोड़ा कठिन हैं। जो नुकसान उन्हें आज हो रहा है
उसकी भरपाई कल नहीं हो सकती।
खासतौर पर यदि देखा
जाए तो सब्जी जैसी सीजनल फसलों के लिए तो स्थिति और भयानक बनी। देश के कई
हिस्सों में टमाटर जैसी फसलों को भाव न मिलने के कारण फेंक देने से खराब होने की खबरें
इस दौरान सुनाई दी। यदि हम ऐसे किसान जिनकी फसलें समय पर नहीं बिक पाईं या
औने-पौने दामों में बेचना पड़ा है, वे कम से कम एक साल तो पीछे चले ही गए हैं। यह कोई प्राकृतिक आपदा भी
नहीं है इसलिए वे फसल बीमा से अपना घाटा पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं। एकाध
किसान के बारे में ज़रा विस्तार से बात करके और किसी एकाध इलाके की परिस्थिति का
विश्लेषण करके हम थोड़ा हालात को समझने का प्रयास कर सकते हैं।
बैतूल जि़ले के
मुलताई ब्लाक के कुछ गांव हैं जहां किसान पत्ता गोभी की फसल पैदा करते हैं। पिछले
तीन साल से फसल अच्छी नहीं हो रही थी लेकिन इस साल फसल अच्छी पैदा हुई थी। इसलिए
किसानों को उम्मीद थी कि पिछले सालों की भरपाई इस बार हो पाएगी। मुलताई की पत्ता
गोभी के लिए देश के कई प्रदेशों मसलन पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश,
बिहार, दिल्ली, उड़ीसा
के अलावा मध्य प्रदेश के भी कई शहरों से व्यापारी आते है। ज़्यादातर व्यापार नकदी
के सहारे ही होता है। जब फसल खेत में होती है तब ही व्यापारी फसल की गुणवत्ता को
देखते हुए सौदा करते हैं और फिर फसल पैदा होने पर खरीदकर ले जाते हैं। पत्ता गोभी की फसल
अगस्त से नवम्बर के बीच होती है। इस फसल के पैदा होने का समय नवम्बर का महीना ही
होता है। और इसी महीने की शुरुआत में नोट बंदी का फैसला हुआ था।
मुलताई के दतोरा
गांव के किसान दिनेश यशवंतराव धोटे बताते हैं कि उनके गांव के 80 प्रतिशत किसान
पत्तागोभी की खेती करते हैं। दिनेश ने खुद भी इस साल अपनी ढाई एकड़ जमीन में पचार
हज़ार की लागत लगाकार पत्ता गोभी लगाई थी। फसल अच्छी भी पैदा हुई लेकिन जब बिक्री
का समय आया तो नोटबंदी के चलते बाहर के व्यापारियों ने फसल नहीं खरीदी। कुछ
व्यापारी किसानों को कुछ अग्रिम पैसा भी दे गए थे। पर नोटबंदी के चलते उन्होंने
फसल ली ही नहीं। 12 रुपए किलो के भाव से बिकने वाली पत्तागोभी की यह फसल नोटबंदी
के चार दिन तो बिकी ही नहीं और फिर लगातार उसके दाम गिरते गए। कुछ ही दिनों बाद वह
1 रुपए किलो तक पहुँच गए। ऐसी स्थिति में किसानों ने फसल को काटने की बजाय खेत में
रोटावेटर चलाकर फसल नष्ट कर देना उचित समझा ताकि रबी के सीज़न की गेहूँ की फसल के
लिए खेत की तैयार किया जा सके। हालांकि उसमें भी नकदी का न होना बड़ा संघर्ष है।
बात केवल पत्तागोभी की नहीं
है। यदि हम पिछले महीने भर में सब्जी के दामों पर नज़र डालें तो हम देख सकते हैं
कि दरअसल सब्जी की खेती करने वाले किसानों को बहुत प्रभावित होना पड़ा है। एक खबर
के मुताबिक फरीदाबाद में सब्जी के दाम 40 से 80 प्रतिशत गिर गए। हालांकि दाम गिरने
से बाज़ार में सब्जी खरीददारों की भीड़ भी जुटी लेकिन इससे भी किसानों को ही खामियाजा
भुगतना पड़ा है।
कालाधन को बाहर लाने में नोटबंदी की भूमिका को पूरी
तरह से खारिज तो नहीं किया जा सकता लेकिन इसके चलते आम लोगों को जो समस्याएं हो
रही है उसके बारे में विचार किया जाना भी
ज़रूरी है। खासतौर खेती-किसानी से जुड़े लोग या फिर मज़दूरी या छोटे-मोटे धन्धे में
लगे लोगों के लिए यह एक महीना बहुत ही कठिन दौर का रहा है। सरकार को कुछ वैकल्पिक
व्यवस्था के बारे में सोचना था। वैकल्पिक सुझाव में जब आनलाईन ट्राजेक्शन की बात
होती है तो इस बात को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि इस सबके लिए टेक्नॉलाजी का
इस्तेमाल करने की तैयारी होना ज़रूरी है। पर ग्रामीण अंचल में रह रहे किसान-मज़दूर
इस सबसे अभी दूर हैं। और उन पर ही सबसे ज़्यादा मार भी पड़ रही है।