खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Wednesday, May 3, 2017

मक्का की उपज अधिक धूप के कारण बढ़ी है



आम तौर पर मानकर चला जाता है कि पिछले तीन दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में मक्का की उपज में जो वृद्धि हुई है वह नई कृषि तकनीकों के कारण हुई है। इनमें बेहतर बीज तथा रासायनिक उर्वरक प्रमुख घटक रहे हैं। मगर ताज़ा अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि मक्का की उपज में वृद्धि का एक बड़ा कारण वहां धरती पर पड़ने वाली धूप की मात्रा में वृद्धि भी है। गौरतलब है कि पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग कार्बन डाईऑक्साइड और पानी से कार्बोहाइड्रेट बनाने में करते हैं। इसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। इस प्रक्रिया की कार्य क्षमता कई कारकों के अलावा प्रकाश की मात्रा पर भी निर्भर होती है।
नेचर क्लाइमेट चेंज नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 1984 से 2013 के बीच यूएस के मक्का उत्पादक क्षेत्र में उपज में वृद्धि का कम से कम 27 प्रतिशत हिस्सा प्रकाश की मात्रा में वृद्धि के फलस्वरूप हुआ है। यह बात कई शोधकर्ता कहते आए हैं कि पश्चिमी देशों में कृषि उपज में वृद्धि का एक कारण यह रहा है कि वहां धरती तक पहुंचने वाली धूप में वृद्धि हुई है। धूप की मात्रा में वृद्धि का कारण यह बताते हैं कि 1980 के दशक से इन देशों में स्वच्छ हवा सम्बंधी कानून लागू किए गए थे जिसकी वजह से यहां की हवा में निलंबित कणों (एयरोसॉल) की मात्रा में कमी आई है। ऐसे निलंबित कण सूर्य के प्रकाश को सोखते हैं या छितरा देते हैं जिसकी वजह से ज़मीन पर पर्याप्त प्रकाश नहीं पहुंच पाता।
इस उपज वृद्धि में एक समस्या भी छिपी है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुमान लगाते समय यह माना जाता है कि जब तापमान बढ़ेगा तो कृषि उपज बढ़ेगी किंतु वह तो पहले ही बढ़ चुकी है। इसलिए शायद जलवायु परिवर्तन के विभिन्न मॉडल्स द्वारा उपज में जितनी वृद्धि के अनुमान लगाए जा रहे हैं वह वास्तव में नहीं होगी। (रुाोत फीचर्स)

Wednesday, December 28, 2016

नोटबंदी और सब्जी की फसल



  • श‍िवनारायण गौर
नोटबंदी को लगभग महीना भर गुजर गया है। अब स्थि‍तियां पहले से बेहतर हुई हैं। एटीएम पर लाइन पहले से थोड़ी छोटी हो गई है। हालांकि इस बात को भी नहीं भुलाया जा सकता कि महीने भर के दौर में लगभग 55 लोगो की जान चली गई। और ये आंकड़ा बकौल मीडिया की खबरों के आधार पर है यानी इसकी वास्तविक संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है। इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि इसकी भरपाई किसी भी तरह से नोटों के ज़रिए कर पाना सम्भव नहीं है। नौकरीपेशा व्यक्ति‍ को इस मुश्क‍िल से गुज़रना पड़ रहा है कि वे अपने ही पैसे नहीं निकाल पा रहे हैं लेकिन वे इस बात से तो निश्चिंत हैं कि उनके पैसे उनके बैंकों में सुरक्ष‍ित हैं। थोड़े दिनों के संघर्ष के बाद उनके हालात लगभग ठीक-ठाक हो जाएंगे। पर दरअसल असल संकट किसानों के सामने हैं। उनके हालात ठीक होना थोड़ा कठिन हैं। जो नुकसान उन्हें आज हो रहा है उसकी भरपाई कल नहीं हो सकती।
खासतौर पर यदि देखा जाए तो सब्जी जैसी सीजनल फसलों के लिए तो स्थ‍िति‍ और भयानक बनी। देश के कई हिस्सों में टमाटर जैसी फसलों को भाव न मिलने के कारण फेंक देने से खराब होने की खबरें इस दौरान सुनाई दी। यदि हम ऐसे किसान जिनकी फसलें समय पर नहीं बिक पाईं या औने-पौने दामों में बेचना पड़ा है, वे कम से कम एक साल तो पीछे चले ही गए हैं। यह कोई प्राकृतिक आपदा भी नहीं है इसलिए वे फसल बीमा से अपना घाटा पूरा करने की स्थ‍ित‍ि में नहीं हैं। एकाध किसान के बारे में ज़रा विस्तार से बात करके और किसी एकाध इलाके की परिस्थिति का विश्लेषण करके हम थोड़ा हालात को समझने का प्रयास कर सकते हैं।
बैतूल जि़ले के मुलताई ब्लाक के कुछ गांव हैं जहां किसान पत्ता गोभी की फसल पैदा करते हैं। पिछले तीन साल से फसल अच्छी नहीं हो रही थी लेकिन इस साल फसल अच्छी पैदा हुई थी। इसलिए किसानों को उम्मीद थी कि पिछले सालों की भरपाई इस बार हो पाएगी। मुलताई की पत्ता गोभी के लिए देश के कई प्रदेशों मसलन पश्च‍िम बंगाल, उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्ली, उड़ीसा के अलावा मध्य प्रदेश के भी कई शहरों से व्यापारी आते है। ज़्यादातर व्यापार नकदी के सहारे ही होता है। जब फसल खेत में होती है तब ही व्यापारी फसल की गुणवत्ता को देखते हुए सौदा करते हैं और फिर फसल पैदा होने पर खरीदकर ले जाते हैं। पत्ता गोभी की फसल अगस्त से नवम्बर के बीच होती है। इस फसल के पैदा होने का समय नवम्बर का महीना ही होता है। और इसी महीने की शुरुआत में नोट बंदी का फैसला हुआ था।  
मुलताई के दतोरा गांव के किसान दिनेश यशवंतराव धोटे बताते हैं कि उनके गांव के 80 प्रतिशत किसान पत्तागोभी की खेती करते हैं। दिनेश ने खुद भी इस साल अपनी ढाई एकड़ जमीन में पचार हज़ार की लागत लगाकार पत्ता गोभी लगाई थी। फसल अच्छी भी पैदा हुई लेकिन जब बिक्री का समय आया तो नोटबंदी के चलते बाहर के व्यापारियों ने फसल नहीं खरीदी। कुछ व्यापारी किसानों को कुछ अग्र‍िम पैसा भी दे गए थे। पर नोटबंदी के चलते उन्होंने फसल ली ही नहीं। 12 रुपए किलो के भाव से बिकने वाली पत्तागोभी की यह फसल नोटबंदी के चार दिन तो बिकी ही नहीं और फिर लगातार उसके दाम गिरते गए। कुछ ही दिनों बाद वह 1 रुपए किलो तक पहुँच गए। ऐसी स्थिति में किसानों ने फसल को काटने की बजाय खेत में रोटावेटर चलाकर फसल नष्ट कर देना उचित समझा ताकि रबी के सीज़न की गेहूँ की फसल के लिए खेत की तैयार किया जा सके। हालांकि उसमें भी नकदी का न होना बड़ा संघर्ष है।
बात केवल पत्तागोभी की नहीं है। यदि हम पिछले महीने भर में सब्जी के दामों पर नज़र डालें तो हम देख सकते हैं कि दरअसल सब्जी की खेती करने वाले किसानों को बहुत प्रभावित होना पड़ा है। एक खबर के मुताबिक फरीदाबाद में सब्जी के दाम 40 से 80 प्रतिशत गिर गए। हालांकि दाम गिरने से बाज़ार में सब्जी खरीददारों की भीड़ भी जुटी लेकिन इससे भी किसानों को ही खामियाजा भुगतना पड़ा है।
कालाधन को बाहर लाने में नोटबंदी की भूमिका को पूरी तरह से खारिज तो नहीं किया जा सकता लेकिन इसके चलते आम लोगों को जो समस्याएं हो रही है उसके बारे  में विचार किया जाना भी ज़रूरी है। खासतौर खेती-किसानी से जुड़े लोग या फिर मज़दूरी या छोटे-मोटे धन्धे में लगे लोगों के लिए यह एक महीना बहुत ही कठिन दौर का रहा है। सरकार को कुछ वैकल्प‍िक व्यवस्था के बारे में सोचना था। वैकल्प‍िक सुझाव में जब आनलाईन ट्राजेक्शन की बात होती है तो इस बात को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि इस सबके लिए टेक्नॉलाजी का इस्तेमाल करने की तैयारी होना ज़रूरी है। पर ग्रामीण अंचल में रह रहे किसान-मज़दूर इस सबसे अभी दूर हैं। और उन पर ही सबसे ज़्यादा मार भी पड़ रही है।

Tuesday, January 19, 2016

ब्रिटेन के भोजन का ग्रीनहाउस प्रभाव



युरोप के कई देशों और खासकर युनाइटेड किंगडम में कई वर्षों से एक नया रुझान देखा जा रहा है। ये देश जितने भोजन का उपभोग करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा अन्य देशों में उगाया जाता है। इन अन्य देशों में इसकी वजह से जो ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में फैलती हैं उनका हिसाब पहली बार किया गया है। मसलन, युनाइटेड किंगडम की भोजन खपत से सम्बंधित ग्रीनहाउस गैसों में से 64 प्रतिशत का उत्सर्जन अन्य देशों में हुआ।
युनाइडेट किंगडम आजकल अपना लगभग आधा भोजन बाहर से आयात करता है। 1986 से 2009 के दरम्यान युनाइटेड किंगडम के लोगों के लिए भोजन पैदा करने हेतु ज़मीन में 23 प्रतिशत वृद्धि हुई जिसमें से 74 प्रतिशत विदेशों में हुई थी।
इसी प्रकार से पशु चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला सोयाबीन, कोको तथा गेहूं भी अधिकांशत: विदेशी भूमि पर उगाए गए थे। इनके अलावा युनाइटेड किंगडम में उपभोग के लिए फल-सब्ज़ियां भी बढ़ती मात्रा में स्पैन व अन्य देशों से आयात की जा रही हैं।
2008 में युनाइटेड किंगडम की खाद्य आपूर्ति की वजह से 21.9 मेगाटन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ। इस उत्सर्जन में से 18 प्रतिशत दक्षिण अमेरिका में और 15 प्रतिशत युरोपीय संघ के देशों में हुआ।
जरनल ऑफ रॉयल सोसायटी इंटरफेस में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि अन्य युरोपीय देश भी युनाइटेड किंगडम के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। इस रिपोर्ट के एक लेखक एबर्डीन विश्वविद्यालय के हेनरी डी रुइटर का मत है कि इन रुझानों के मद्देनज़र अब इन देशों के लिए सिर्फ अपनी भूमि पर होने वाले उत्सर्जन को नहीं बल्कि इनकी वजह से अन्यत्र हो रहे उत्सर्जन को भी हिसाब में लिया जाना चाहिए। ये देश जो कुछ खाते हैं उसका असर अन्य देशों में हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)