वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपने भाषण में किसानों को असली नायक बताया। किसानों के लिए बजट में कुछ प्रावधान रखते हुए उन्होंने ये बात कही। हालाँकि यह अलग बात है कि केवल इसी साल कोई नई बात नहीं कही है। सरकार समय समय पर किसानों के लिए ऐसे उद्बोधन करती रहती है जिसमें उन्हें कई तरह की उपमाएं दी जाती है। लेकिन असल में केवल उपमाओं के भरोसे बजट को किसान हितैषी नहीं कहा जा सकता। जब उसके अन्य पहलुओं को देंखे तो लगता है कि यह बजट भी हर साल प्रस्तुत किए जाने वाले बजटों की भांति ही किसानों के लिए है।
इस साल के बजट में प्रमुख रूप से दो बातों की ध्यान दिया गया है। एक तो किसानों के लिए ऋण की राशि बढ़ाई गई है। और दूसरा उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की गई है। इसके अलावा बजट में जो प्रावधान किए गए हैं वो किसान को उतना प्रभावित नहीं करते। कर्ज की राशि में पिछले 2003-2004 के आबंटन की तुलना में तीन गुना वृद्धि कर 25 लाख करोड़ किया गया है। सरकार का कहना है कि सीमान्त और छोटे किसानों के 65,500 रुपयों की कर्जमाफी की है। गौरतलब है कि जब भी किसानों के हित की बात होती है तो उसके लिए सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध करा देने को आसान का समाधान माना जाता है। और बजट में फिर उसी तरह के प्रावधान किए जाते हैं। असल में इस देश में सरकारी ऋण प्राप्त करने वाले किसानों से कहीं ज्यादा ऐसे किसानों की है जो कि साहूकारों से कर्ज लेते हैं। उन्हें किसी भी तरह की छूट का लाभ नहीं मिलता। और इससे भी फर्क किस्म की बात पर तटस्थता से विचार नहीं किया जाता कि असल में खेती घाटे का सौदा क्यों हो रही है? किसान को हर साल ऋण की आव6यकता क्यों होती है? यदि इनके कारणों को तलाशें तो आप पाएंगे कि असल में सरकार फसलों को वाजिब मूल्य दे पाने में असमर्थ है। उत्पादन लागत लगातार बढ़ते जा रही है। लागत को कम करने का प्रावधान कभी बजट में दिखाई नहीं देता।
केवल गेहूं की ही बात करें तो सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण इस बात को स्वीकार करता है कि गेहूं की कीमत लागत से कम दी जा रही है। पंजाब, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के अलावा भी कई राज्य घाटे में गेहूं की खेती कर रहे हैं। इस साल 1080 रुपए समर्थन मूल्य तक किया गया है लेकिन एक आंकलन के मुताबिक यदि गेहूं का समर्थन मूल्य 1500 रुपए होता है तो किसानों को कुछ राहत हो सकती है। मसलन केवल ऋण की राशि बढ़ा देने से खेती का उपकार नहीं किया जा सकता। सरकार जिन 25 फसलों का समर्थन मूल्य घोषित करती है वह पर्याप्त नहीं होता। उसमें जो वृद्धि की जाती है वो लागत की तुलना में हमेशा कम ही होती है।
सरकार जोर शोर से कृषि विकास दर की बात करती है। बजट भाषण में भी इस बात का जिक्र किया गया कि यह 37 प्रति6ात रही। लेकिन असल में इस विकास दर का असली आधार नकदी फसलें हैं। और जब भी कृषि विकास दबढ़ाने की बात कही जाती है तो उसका सीधा सा मतलब है कि सरकार नकदी फसलों को और प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रही है। पिछले पांच साल में नकदी फसलों का रकबा बढ़ा है। ये ही ऐसी फसलें है जिनमें कीटनाशकों और उर्वरकों को खूब इस्तेमाल किया जा रहा है। मसलन सब्सिडी भी नकदी फसलों की ओर ही जा रही है। नकदी फसलों की ही देर किसानों की आत्महत्या दर में भी वृद्धि है। ज्यादातर किसान आत्महत्या की घटनाएं नकदी फसल के क्षेत्रों में होती हैं। चाहे बात कर्नाटक, आन्धप्रदेश की हो या फिर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके की। मध्यप्रदेश में भी अब किसानों की आत्महत्याओं की खबरें यदा कदा आने लगीं हैं। एक जानकारी के मुताबिक पिछले साल तक मध्यप्रदेश में 1287 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। केवल सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध करा देने से इस समस्या का समाधान नहीं तलाश जा सकता जिसकी कोशिश प्रणव मुखर्जी कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि सरकार का बजट हमेशा कार्पोरेट को बढ़ावा देने वाला होता है। सरकार ने खेती के मॉडल कानून बनाया है। इसमें प्रमुख रूप से खेती के कार्पोरेट के हाथों में जाने के रास्ते दिखाई देते हैं। मॉडल कानून के मुताबिक प्रदेश सरकारें भी मण्डी कानून में बदलाव कर रही है जिससे संविदा खेती आदि को बढ़ावा दिया जा सके। पिछले पांच साल में इसकी एक झलक आसानी से देखी जा सकती है। विरोधाभाष ये भी है कि एक तरफ रोजगार गारण्टी योजना के राशि बढ़ाई जा रही है दूसरी तरफ स्थाई रोजगार पैदा करने के लिए जरूरी खेती के वास्तविक विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कार्पोरेट खेती के चलते मजदूरों के रोजगार की सम्भावनाएं खेती में खत्म होती जा रही है। और इसके वगैर स्थाई रोजगार की बहुत सम्भावनाएं नहीं की जा सकती। खेती का असल में विकास करना है तो बजट को किसानों के हित में हाना ही चाहिए। जो असल में नहीं है।
शिवनारायण गौर
इस साल के बजट में प्रमुख रूप से दो बातों की ध्यान दिया गया है। एक तो किसानों के लिए ऋण की राशि बढ़ाई गई है। और दूसरा उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की गई है। इसके अलावा बजट में जो प्रावधान किए गए हैं वो किसान को उतना प्रभावित नहीं करते। कर्ज की राशि में पिछले 2003-2004 के आबंटन की तुलना में तीन गुना वृद्धि कर 25 लाख करोड़ किया गया है। सरकार का कहना है कि सीमान्त और छोटे किसानों के 65,500 रुपयों की कर्जमाफी की है। गौरतलब है कि जब भी किसानों के हित की बात होती है तो उसके लिए सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध करा देने को आसान का समाधान माना जाता है। और बजट में फिर उसी तरह के प्रावधान किए जाते हैं। असल में इस देश में सरकारी ऋण प्राप्त करने वाले किसानों से कहीं ज्यादा ऐसे किसानों की है जो कि साहूकारों से कर्ज लेते हैं। उन्हें किसी भी तरह की छूट का लाभ नहीं मिलता। और इससे भी फर्क किस्म की बात पर तटस्थता से विचार नहीं किया जाता कि असल में खेती घाटे का सौदा क्यों हो रही है? किसान को हर साल ऋण की आव6यकता क्यों होती है? यदि इनके कारणों को तलाशें तो आप पाएंगे कि असल में सरकार फसलों को वाजिब मूल्य दे पाने में असमर्थ है। उत्पादन लागत लगातार बढ़ते जा रही है। लागत को कम करने का प्रावधान कभी बजट में दिखाई नहीं देता।
केवल गेहूं की ही बात करें तो सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण इस बात को स्वीकार करता है कि गेहूं की कीमत लागत से कम दी जा रही है। पंजाब, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के अलावा भी कई राज्य घाटे में गेहूं की खेती कर रहे हैं। इस साल 1080 रुपए समर्थन मूल्य तक किया गया है लेकिन एक आंकलन के मुताबिक यदि गेहूं का समर्थन मूल्य 1500 रुपए होता है तो किसानों को कुछ राहत हो सकती है। मसलन केवल ऋण की राशि बढ़ा देने से खेती का उपकार नहीं किया जा सकता। सरकार जिन 25 फसलों का समर्थन मूल्य घोषित करती है वह पर्याप्त नहीं होता। उसमें जो वृद्धि की जाती है वो लागत की तुलना में हमेशा कम ही होती है।
सरकार जोर शोर से कृषि विकास दर की बात करती है। बजट भाषण में भी इस बात का जिक्र किया गया कि यह 37 प्रति6ात रही। लेकिन असल में इस विकास दर का असली आधार नकदी फसलें हैं। और जब भी कृषि विकास दबढ़ाने की बात कही जाती है तो उसका सीधा सा मतलब है कि सरकार नकदी फसलों को और प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रही है। पिछले पांच साल में नकदी फसलों का रकबा बढ़ा है। ये ही ऐसी फसलें है जिनमें कीटनाशकों और उर्वरकों को खूब इस्तेमाल किया जा रहा है। मसलन सब्सिडी भी नकदी फसलों की ओर ही जा रही है। नकदी फसलों की ही देर किसानों की आत्महत्या दर में भी वृद्धि है। ज्यादातर किसान आत्महत्या की घटनाएं नकदी फसल के क्षेत्रों में होती हैं। चाहे बात कर्नाटक, आन्धप्रदेश की हो या फिर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके की। मध्यप्रदेश में भी अब किसानों की आत्महत्याओं की खबरें यदा कदा आने लगीं हैं। एक जानकारी के मुताबिक पिछले साल तक मध्यप्रदेश में 1287 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। केवल सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध करा देने से इस समस्या का समाधान नहीं तलाश जा सकता जिसकी कोशिश प्रणव मुखर्जी कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि सरकार का बजट हमेशा कार्पोरेट को बढ़ावा देने वाला होता है। सरकार ने खेती के मॉडल कानून बनाया है। इसमें प्रमुख रूप से खेती के कार्पोरेट के हाथों में जाने के रास्ते दिखाई देते हैं। मॉडल कानून के मुताबिक प्रदेश सरकारें भी मण्डी कानून में बदलाव कर रही है जिससे संविदा खेती आदि को बढ़ावा दिया जा सके। पिछले पांच साल में इसकी एक झलक आसानी से देखी जा सकती है। विरोधाभाष ये भी है कि एक तरफ रोजगार गारण्टी योजना के राशि बढ़ाई जा रही है दूसरी तरफ स्थाई रोजगार पैदा करने के लिए जरूरी खेती के वास्तविक विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कार्पोरेट खेती के चलते मजदूरों के रोजगार की सम्भावनाएं खेती में खत्म होती जा रही है। और इसके वगैर स्थाई रोजगार की बहुत सम्भावनाएं नहीं की जा सकती। खेती का असल में विकास करना है तो बजट को किसानों के हित में हाना ही चाहिए। जो असल में नहीं है।
शिवनारायण गौर
1 comment:
आपने बिल्कुल सही लिखा है कि सब्सिडी देने से किसानों का तात्कालिक भला तो हो सकता है लेकिन किसानों की दशा तब सुधरेगी जब उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले। उनकी दशा तब सुधरेगी जब उपजता बढ़ाने के लिए मैराथन प्रयास हों। हमारी इंडस्ट्रीयल ग्रोथ सात से नौ प्रतिशत तक रहती है जबकि कृषि विकास दर महज तीन प्रतिशत के करीब।
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