सारी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है। इसकी चिंता सभी छोटे बड़े देश में व्याप्त है। इससे निपटने के लिए सभी देश छोटे-मोटे हथकंडे राहत पैकेज और खाखले आत्मविश्वास की दुहाई दह रहे हैं। दूसरी तरफ भारत की 110 करोड़ आबादी में 65 प्रतिशत लोगों की आजीविका का मुख्य साधन खेती है। 70 के दशक से खेती के स्वरूप में जो बदलाव आए जिसके चलते महिलाओं के खेती में काम के दिन घटे। लेकिन 90 के दशक के बाद भूमण्डलीकरण ओर बाजारबाद की नीति के प्रचलन से खेती और उस पर निभर समाज के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। इसके चलते अब खेती किसान के नियंत्रण में नहीें बाजार के नियंत्रण में हो गई है। खासकर छोटी जोत की खेती घाटे का सौदा बनते जा रही है। खेती कर्ज में डूब रही है। इसका सबसे बुरा प्रभाव महिलाओं ओर बच्चों पर पड़ रहा है। उनके भोजन, पोषण, ंस्वास्थ्य के अलावा आर्थिक और सामाजिक जीवन की स्थिति में संकट खड़ा हो गया है। इसका एक उदाहरण देश में 60 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं। इसकी दूसरी परिणति किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओें की घटनाएं हैं।
वो कौन के कारण हैं जिनके रहते पूरे देश की भूख मिटाने वाले किसान को इतना कठोर फैसला करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। पिछले 5-6 सालों में करीब एक लाख किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध आंकड़े ब्यूरो (एन.सी.आर.बी) के आंकड़ों के तहत वर्ष 2007 में सबसे अधिक महाराष्ट्र में 4238 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं दूसरे नंबर पर कर्नाटक में 2135, आन्ध्रप्रदेश में 1797, छत्तीसगढ़ में 1593, मध्यप्रदेश में 1263, केरल में 1263, ओर पश्चिम बंगाल में 1102 किसानों ने आत्महत्या की है। एन.सी.आर.बी. की रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिदिन 46 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की चकाचौंध में इन किसानों की समस्या पर गौर करने की फुरसत या जरूरत हमारे देश के नीति निर्माताओं को नहीं है। शायद इसीलिए अलग-अलग राज्यों की सरकारें किसान हित और खेती को घाटे से उबारने की बातें तो करती हैं, लेकिन सिर्फ घाव होने या चोट लगने पर मरहम पट्टी मात्र बांधने जैसे उपाय करती है। जबकि खेती पिछली कई पीढ़ियों से आने वाले हजारों हजार सालों तक हमारे देश की आय और समृध्दि का सबसे बडृा स्रोत है। अगर खेती ओर उस पर आश्रित समाज की दशा सुधारनी है तो इसकी नीति रीति में एक सिरे से परिवर्तन करना होगा।
लक्ष्मणसिंह राजपूत
वो कौन के कारण हैं जिनके रहते पूरे देश की भूख मिटाने वाले किसान को इतना कठोर फैसला करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। पिछले 5-6 सालों में करीब एक लाख किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध आंकड़े ब्यूरो (एन.सी.आर.बी) के आंकड़ों के तहत वर्ष 2007 में सबसे अधिक महाराष्ट्र में 4238 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं दूसरे नंबर पर कर्नाटक में 2135, आन्ध्रप्रदेश में 1797, छत्तीसगढ़ में 1593, मध्यप्रदेश में 1263, केरल में 1263, ओर पश्चिम बंगाल में 1102 किसानों ने आत्महत्या की है। एन.सी.आर.बी. की रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिदिन 46 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की चकाचौंध में इन किसानों की समस्या पर गौर करने की फुरसत या जरूरत हमारे देश के नीति निर्माताओं को नहीं है। शायद इसीलिए अलग-अलग राज्यों की सरकारें किसान हित और खेती को घाटे से उबारने की बातें तो करती हैं, लेकिन सिर्फ घाव होने या चोट लगने पर मरहम पट्टी मात्र बांधने जैसे उपाय करती है। जबकि खेती पिछली कई पीढ़ियों से आने वाले हजारों हजार सालों तक हमारे देश की आय और समृध्दि का सबसे बडृा स्रोत है। अगर खेती ओर उस पर आश्रित समाज की दशा सुधारनी है तो इसकी नीति रीति में एक सिरे से परिवर्तन करना होगा।
लक्ष्मणसिंह राजपूत
2 comments:
किसानों का ऐसा हाल कब तक रहेगा, कुछ समझ नहीं आता, करोड़ों अरबों रुपये का बजट कहाँ जाता है, भगवान जाने!
---आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
श्री लक्ष्मण सिंहजी उस अध्ययन के बारे में विस्तार से बतायें जिसके अनुसार खेती में लगी महिलाओं की संख्या कम हो गयी ।
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