एक चौका देने वाली खबर को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सामान्य खबर के रूप में प्रसारित करना भी गवारा नहीं किया। यह खबर देश में चीत्कार मचाने वाले कुलीन वर्ग को हिला देती। खबर है कि 2007 के दौरान 16632 किसानों ने आत्महत्या कर ली। इनमें सर्वाधिक किसान महाराष्ट्र से हैं। इन आत्महत्याओं के खबर न बनने के कारण साफ हैं। ये होटल ताज को अपना दूसरा घर मानने वाले लोग नहीं हैं। गांव देहात में मौत का धारावाहिक तांडव जस का तस जारी है।
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार बढ़ते कर्ज के चलते अपमानित होने के कारण 1997 से करीब एक लाख 82 हजार 936 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जबकि सरकार बेलआउट में मस्त है। सितम्बर से सरकार तरलता बढ़ाने और अन्य बजटीय प्रावधानों के माध्यम से सौ अरब डालर की राजकोषीय प्रोत्साहन राशि उपलब्ध करा चुकी है। प्रोत्साहन पैकेज उन क्षेत्रों को दिए जा रहे हैं जो गलतिया कर रहे हैं। 20 लाख तक के ग्रह ऋणों पर दिया जाने वाला प्रस्तावित ब्याज दरों का तोहफा ऐसा ही आर्थिक दुस्साहस है। मांग में वृध्दि करने के लिए बैंकों को ब्याज दर घटाने को बाध्य करना पूरी तरह अनुचित है। सरकार को ऐसे लोगों के लिए राहत पर विचार क्यों करना चाहिए जो 25 हजार रूपए की मासिक किश्त देने की स्थिति में हैं? सरकार को भवन निर्माण क्षेत्र को राहत क्यों देनी चाहिए जो समाज को निचोड़ रहा है? पिछले चार सालों प्लैट के दाम 450 फीसदी बढ़ गए हैं। प्रापर्टी के दाम नीचे क्यों नहीं लाए जा रहे, ताकि और अधिक लोग मकान खरीदने के लिए प्रोत्साहित हो सकें?
भारत चमके या बुझे, अर्थव्वस्था की रीढ़ कृषि ही रही है। कृषि क्षेत्र की पूरी तरह अवहेलना ओर अलगाव के कारण किसान आत्महत्या करने और खेती बाड़ी छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। सरकार की नीतियां कृषि के उसके अंत की ओर ले जा रही हैं। अब जमीन का जबरन अधिग्रहण कर कंपनियों को ेदी जा रही है। प्रधानमंत्री खुद विश्वबैंक के नुस्खे पर अमल कर रहे हैं - ग्रामीण क्षेत्र से लोगों का स्थानांतरण। भारत की साठ प्रतिशत आबादी सीधे तौर पर कृषि से जुड़ी है। इसके अलावा 20 करोड़ भूमिहीन किसान भी अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। ऐसे में कृषि को वास्तविक प्रोत्साहन तभी मिल सकता है जब इसका केन्द्रबिन्दु कृषि की तरफ घूम जाएं जब यहां कृषि की बात की जा रही है तो इसका अर्थ ट्रेक्टर या प्रसंस्करण उद्योग को राहत पैकेज देना नहीं है। यह तो प्रतिगामी कदम होगा। जिस चीज की फौरी जरूरत है वह कृषि क्षेत्र में प्रोत्साहन का स्थानांतरण अर्थव्यवस्था को सुद्रढ़ करने का अचूक नुस्खा है। सर्वप्रथम पैकेज कृषि के पुनरूत्थान के लिए होना चाहिए। आर्गेनिक खेती के लिए विशेष प्रोत्साहन पैकेज होने चाहिए। 1.2 लाख करोड़ रूपए का खाद अनुदान सीधे किसानों को मिलना चाहिए ताकि वे प्राकृतिक कृषि की ओर उन्मुख हो सकें। प्रोत्साहन पैकेज किसानों के कल्याण पर केन्द्रित होना चाहिए। समस्याओं से घिरे कृषि समुदाय को प्रत्यक्ष आय सहायता के सिध्दान्त पर सुनिश्चित आय प्रदान करनी चाहिए। इससे लाखों लोगों का जीविकोपार्जन होगा, मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था सुद्रढ़ होगी। इसके अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की सौ दिनों की सीमा को तत्काल हटाना चाहिए। ग्रामीण कामगारों को संगठित क्षेत्र की तरह साल में 365 दिनों के काम की दरकार है। इससे मांग उत्पन्न होगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को कृषि से जोड़ने की तात्कालिक आवश्यकता है। यह समग्र विकास का नुस्खा है।
देवेन्द्र शर्मा
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार बढ़ते कर्ज के चलते अपमानित होने के कारण 1997 से करीब एक लाख 82 हजार 936 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जबकि सरकार बेलआउट में मस्त है। सितम्बर से सरकार तरलता बढ़ाने और अन्य बजटीय प्रावधानों के माध्यम से सौ अरब डालर की राजकोषीय प्रोत्साहन राशि उपलब्ध करा चुकी है। प्रोत्साहन पैकेज उन क्षेत्रों को दिए जा रहे हैं जो गलतिया कर रहे हैं। 20 लाख तक के ग्रह ऋणों पर दिया जाने वाला प्रस्तावित ब्याज दरों का तोहफा ऐसा ही आर्थिक दुस्साहस है। मांग में वृध्दि करने के लिए बैंकों को ब्याज दर घटाने को बाध्य करना पूरी तरह अनुचित है। सरकार को ऐसे लोगों के लिए राहत पर विचार क्यों करना चाहिए जो 25 हजार रूपए की मासिक किश्त देने की स्थिति में हैं? सरकार को भवन निर्माण क्षेत्र को राहत क्यों देनी चाहिए जो समाज को निचोड़ रहा है? पिछले चार सालों प्लैट के दाम 450 फीसदी बढ़ गए हैं। प्रापर्टी के दाम नीचे क्यों नहीं लाए जा रहे, ताकि और अधिक लोग मकान खरीदने के लिए प्रोत्साहित हो सकें?
भारत चमके या बुझे, अर्थव्वस्था की रीढ़ कृषि ही रही है। कृषि क्षेत्र की पूरी तरह अवहेलना ओर अलगाव के कारण किसान आत्महत्या करने और खेती बाड़ी छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। सरकार की नीतियां कृषि के उसके अंत की ओर ले जा रही हैं। अब जमीन का जबरन अधिग्रहण कर कंपनियों को ेदी जा रही है। प्रधानमंत्री खुद विश्वबैंक के नुस्खे पर अमल कर रहे हैं - ग्रामीण क्षेत्र से लोगों का स्थानांतरण। भारत की साठ प्रतिशत आबादी सीधे तौर पर कृषि से जुड़ी है। इसके अलावा 20 करोड़ भूमिहीन किसान भी अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। ऐसे में कृषि को वास्तविक प्रोत्साहन तभी मिल सकता है जब इसका केन्द्रबिन्दु कृषि की तरफ घूम जाएं जब यहां कृषि की बात की जा रही है तो इसका अर्थ ट्रेक्टर या प्रसंस्करण उद्योग को राहत पैकेज देना नहीं है। यह तो प्रतिगामी कदम होगा। जिस चीज की फौरी जरूरत है वह कृषि क्षेत्र में प्रोत्साहन का स्थानांतरण अर्थव्यवस्था को सुद्रढ़ करने का अचूक नुस्खा है। सर्वप्रथम पैकेज कृषि के पुनरूत्थान के लिए होना चाहिए। आर्गेनिक खेती के लिए विशेष प्रोत्साहन पैकेज होने चाहिए। 1.2 लाख करोड़ रूपए का खाद अनुदान सीधे किसानों को मिलना चाहिए ताकि वे प्राकृतिक कृषि की ओर उन्मुख हो सकें। प्रोत्साहन पैकेज किसानों के कल्याण पर केन्द्रित होना चाहिए। समस्याओं से घिरे कृषि समुदाय को प्रत्यक्ष आय सहायता के सिध्दान्त पर सुनिश्चित आय प्रदान करनी चाहिए। इससे लाखों लोगों का जीविकोपार्जन होगा, मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था सुद्रढ़ होगी। इसके अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की सौ दिनों की सीमा को तत्काल हटाना चाहिए। ग्रामीण कामगारों को संगठित क्षेत्र की तरह साल में 365 दिनों के काम की दरकार है। इससे मांग उत्पन्न होगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को कृषि से जोड़ने की तात्कालिक आवश्यकता है। यह समग्र विकास का नुस्खा है।
देवेन्द्र शर्मा
2 comments:
किसान या खेती से मीडिया को रेवेन्यू नहीं मिलता। इसलिए ये प्राथमिकता की खबरों में नहीं है। हमारे शासकों ने कभी कृषि नीति पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था बल्कि सेज उसकी प्राथमिकताओं में है क्योंकि नैनो बनाने वाले चुनावी चंदा देते हैं।
यह किसानों की मेहनत का ही नतीजा है कि जनसंख्या में खासी वृद्धि के बावजूद आज सामान्य जनता के लिए भी खाने के लिए प्रचुर मात्रा में सबकुछ उपलब्ध है.......क्योंकि जिस तरह से अन्य वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि हुई है , वैसे खाद्यान्न के मूल्य में तो हरगिज नहीं....इसके बावजूद 2007 के दौरान 16632 किसानों की आत्महत्या की खबर चौंकाने वाली है....सरकार की नीतियों में कुछ न कुछ खामियां तो अवश्य ही है।
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