खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Monday, October 13, 2008

जीएम से राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में

पूरी दुनिया में जीन संशोधित बीजों एवं खाद्य पदार्थों को लेकर बवाल मचा हुआ है। एक तरफ कृषि वैज्ञानिक तथा किसान संगठनों के नेता दुनियाभर में जीन संशोधित खाद्य पदार्थों के स्वास्थ्य, पर्यावरण एवं जीन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से आम नागरिकों को आगाह कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कृषि बीज व्यापार में लगी कम्पनियां दुनिया में अनाज की कमी तथा भुखमरी से निपटने एवं किसानों की उत्पादकता बढ़ाकर उन्हें खुशहाली प्रदान करने के सब्जबाग दिखला रही हैं।
ऐसी परिस्थिति में केन्द्र और राज्य सरकार को केवल जीएम के प्रभावों की अधिक से अधिक जांच-पड़ताल करने पर जोर देना चाहिए था, बल्कि जनसुनवाई कर समाज के सभी वर्गों के विचारों को जानने तथा कृषि वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय मापरण्डों की कसौटी पर कसने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन राज्य सरकारों ने आमतौर पर पूरी प्रक्रिया में दिलचस्पी नहीं दिखलाई। जैनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी द्वारा फील्ड ट्राईल की जिन प्रदेशों में अनुमति दी गई उनके परिणामों तथा ट्राईल की प्रक्रिया तक पर गंभीरता से नजर रखने की रुचि राज्य सरकारों ने नहीं दिखलाई। जहां कहीं भी फील्ड ट्राईल का विरोध हुआ, राज्य सरकार ने पूरी जिम्मेदारी केन्द्र सरकार पर डालकर छुट्टी पाई। केवल केरल, उड़ीसा तथा उत्तराखण्ड की सरकारों ने जीन संशोधित बीजों की ट्राईल पर रोक लगाई। हालांकि कोई भी प्रदेश यह दावा नहीं कर सकता है कि उसक ेराज्य में जीन संशोधित खाद्य पदार्थ श्विभिन्न कंपनियों द्वारा नहीं बेचे जा रहे हैं।
मध्यप्रदेश की विधानसभी मे जब-जब बीटी कॉटन तथा जीन संशोधित बीजों को लेकर मैंने प्रश्न उठाया, तब तत्कालीन कृषि मंत्री चन्द्रभान सिंह ने गेंद केन्द्र सरकार के पाले में डाल दी। आश्चर्यजनक तौर पर कम्पनी के दबाव में वे कृषि राज्य का विषय होने के बावजूद मरे द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे तथ्यों की जांच तक वैज्ञानिकों से कराने को तैयार नहीं हुए। मालवा के इलाके में बीटी कॉटन की फसल खराब हो जाने के चलते बाद में स्थिति बदल गईं। जब मालवा के विभिन्न जिलों से कपास का परम्परागत बीज कम्पनियों द्वारा गायब करवा दिया गया, तब बीटी कॉटन की खरीद के लिए किसान टूट पड़े। हालांकि यह बीज केवल कई गुना मंहगा है, बल्कि बीटी का बीज इस्तेमाल करने वाले किसानों को अत्यधिक मात्रा में खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। गत वर्षों में कपास का उत्पादन भी लगातार घटा हैं इसके बावजूद किसानों का आकर्षण बीटी के प्रति बना हुआ दिखलाई पड़ रहा है।
यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि पंजाब, महाराष्ट्र एवं आन्ध्रप्रदेश में जिन डेढ़ लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उनमें बीटी कपास पैदा करने वालों की संख्या सर्वाधिक रही है।
केन्द्र सरकार ने भी माना है कि बीटी कॉटन के चलते किसान अत्यधिक कर्जदार हो गया था तािा कर्ज चुकाने का कोई स्रोत होने के कारण उसने मौत को गले लगाया।
आज स्थिति किसानों के लिए और भी भयावह हो चुकी है। डीजल का दाम 3 रुपए बढ़ जाने, रासायनिक खाद की कमी तथा कालाबाजारी एवं कीटनाशकों के दाम 25 प्रतिशत तक बढ़ जाने कारण तथा परम्परागत बीज की तुलना में जीएम बीजों की कीमत 3 से 4 गुना होने एवं कई बार टर्मिनेटर बीज होने के कारण हर वर्ष नए बीज खरीदने की बाध्यता के चलते किसानों की मुश्किलें और अधिक बढ़ गई हैं। ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन लगातार हो रहा है, सिंचित रकबा मध्यप्रदेश में या औसतन 25 प्रतिशत बना हुआ है। तब अत्यधिक पूंजी आधारित खेती किसानों के लिए कभी भी जानलेवा साबित हो सकती है। इन तयिों के बावजूद केन्द्र सरकार ने जीन संशोधित बीज बनाने वाली कम्पनियों को फ्रीहैण्ड देने के लिए जेनेटिक इंजिनियरिेंग एप्रूवल कमेटी की जगह नेशनल बायोटेक्नालॉजी रेग्यूलेटरी अथारटी बनाने का मन बनाया है, ताकि कृषि व्यापार करने वाली कम्पनियों को लूट की खुली छूट दी जा सके। हालांकि बायाटेक्नालॉजी विभाग द्वारा या भारत सरकार द्वारा यह यनहीं बतलाया गया है कि जीईएसी में कौन सी कमी थी जिसे नियामक आयोग बनाकर दूर कर दिया जाएगा। केन्द्र सरकार ने इस दिशा में बढ़ने के पहले तो बायोटेक्नालॉजी संसदीय समिति तथा कृषि संसदीय समिति के साथ बातचीत करना उचित समझाा है, ही राज्य सरकारों को विश्वास में लेने की आवश्यकता स्वीकार की हैं
कुछ ही दिनों पहले जब विश्व व्यापार संगठन के कृषि क्षेत्र में मार्केट एक्सेस को लेकर जिनेवा में सरकार द्वारा समझौता करने की वैधानिकता पर सवाल उठा था, तब दिल्ली की बैठक में वाणिज्य मंत्रालय के उच्चाधिकारियों ने बतलाया था कि आमतौर पर परम्परा है कि मुख्य पार्टियों के नेताओं को संबंधित विभाग के मंत्रियों के द्वारा विश्वास में लिया जाता है, इसके बाद ही प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाती है। लेकिन अब तक उपलब्ध जानकारी से यह तो कहा ही जा सकता है कि केन्द्र सरकार ने ऐसी कोई बातचीत प्रमुख दलों के नेताओं के साथ नहीं की है।
जब भी जीएम पर बात होती है तब अनेक लोग तकनीक पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं मैं तकनीकी विकास पर प्रश्न चिन्ह लगाने का हिमायती नहीं हूं, लेकिन इस तकनीक का लाभ किसे मिल रहा है अथवा मिलेगा, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। प्रथम हरित क्रांति का लाभ किसानों को इसलिए मिला पाया, क्योंकि तकनीक प्रदान करने वाली सरकार थी, उसने तकनीक के माध्यम से नहीं कमाया। सरकार का प्रयास किसानों को लाभ देना था लेकिन जीएम तकनीक विकसित करने वाली कम्पनियिों ने पूरा शोध मुनाफा कमाने वाले के लिए ही कियाि है। इसलिए गुणदोष, लागत तथा लाभ की दृष्टि से देखने पर जीएम टेक्नॉलॉजी किसानों के हित में नहीं है जीएम टेक्नालॉजी के संबंध में कृषि में वैज्ञानिक एवं सर्वोच्च न्यायालय की ओर से एप्रूवल कमेटी में नामांकित प्रतिष्ठित कृषि वैज्ञानिक एवं नालेज कमीशन के सदस्य श्री भार्गव का यह कहना महत्वपूर्ण है कि यदि किसी जीन संशोधित बीज को सभी किस्मों की जांच पड़ताल की जाए तो इसमें 25 वर्ष का समय लग सकता है। किसी भी दवाई के बाजार में आने के 15 वर्ष का समय लग जाता है। स्वास्थय संबंधी जांच-पड़ताल, पर्यावरण खाद्य सुरक्षा तथा जीन संशोधित बीजों का इस्तेमाल करने वलो किसानों के आस-पास के खेतों में खड़ी फसल पर पड़ने वाले प्रभावों को परखने का काम 25 वर्षों से कम में संभव नहीं है, जबकि कंपनियां केवल 9 ामह में ही जांच पड़ताल मेें लगा रही है। उनका यह भी कहना है। कि बायोटेक्नालॉजी में 30 अलग-अलग क्षेत्र हैं जिनमें से केवल एक जीएम के लिए रेग्यूलटरी अािारटी बनाना हास्यास्पद है। रेग्यूलेटरी अथारटी में नियम एवं मार्गदर्शी सिध्दान्त भी बनाए गए हैं। ही श्री स्वामीनाथन एवं श्री कास्लेकर जैसे वैज्ञानिकों की आशंकाओं को दूर किया गया है।
असल बात तो यह है कि देश में एक भी ऐसी लैब नहीं है जिसमें जीएम बीजों संबंधी सभी जांच की जा सके। ऐसा नहीं है कि सीएसआईआर तथा आईसीआर द्वारा ऐसी लैब नहीं बनाई जा सकती। इन दानों संस्थानों द्वारा लैब बनाकर 32 करोड़ के खर्चे में अपना बीटी बीज तैयार किया जा सकता था, लेकिन सरकार का मकसद यदि पूरे बीज व्यापार को मॉनसेंटों कम्पनी को सौंपना हो तो कम्पनी के बीजों के ट्राइल का डाटा भी उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। तथा सरकार उसे स्वीकार कर लेती है। एलर्जीसीटी, टाक्सीसिटी, जैसे आवश्यक टेस्ट भी सरकार द्वारा स्वयं नहीं किए जाते।

उक्त पूरी बहस देश की सुरक्षा के साथ जुड़ी हुई है। खाद्य सुरक्षा, किसानों की सुरक्षा, ग्रामीण सुरक्षा, इत्यादि का संबंध कृषि पर केन्ट्रोल से है। केन्द्र सरकार खेती को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे में देने पर आमादा दिखती है। कृषि सुरक्षा का मसला अति गंभीर है। पिछले कुछ वर्षों में देश ने बायोलॉजीकल वारफेयर तथा बायोटेरेटिजम देखा है। सूरत में अचानक प्लेग का फैलना नाईन इलेवन के बाद देखा गया था। चिकनगुनिया भी इसी बायोवारफेयर का हिस्सा था। मानसेंटों जैसी कम्पनी इस तरह के कार्यो में दक्ष हैं। विश्व युध्द के समय जिस स्थान पर एजेंट आरेंज का इस्तेमाल किया गया था उसके 200 किलोमीटर के प्रभाव क्षेत्र में आज भी किसी पेड़ पर एक पत्ती भी नहीं उगती है।
हयूमन राईट ला नेटवर्क द्वारा 27, 28 जून को दिल्ली में कृषि बायोटेक्नालॉजी पर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें देश के प्रमुख कृषि वैज्ञानिकों, किसान संगठनों के नेताओें, स्वयं सेवी संस्थाओं ने मिलकर जीन संशोधित बीजों पर कम से कम 7 वर्ष के लिए प्रतिबंध लगाने की मांग की। महत्वपूर्ण यह भी है कि जीएम से जुड़े मसलों के संबंध में देश के वकीलों तथा न्यायिक अधिकारियों को जानकारी के बराबर है। देश के कर्णधार कहलाने वाले विधायक, सांसद और शासकीय अधिकारी भी जीएम तकनीक से जुड़े दुष्प्रभावों एवं अपराधों के संबंध में जानकारी नहीं रखते। ही देश में अभी तक कानून ही बनाए गए हैं। यदि जीएम बीज से बीज लगाने पर किसी की फसल खराब हो जाती हो जाती है या पड़ोसी फसल का कनटामीनेशन हो जाता है या जैसा आन्ध्रप्रेश में वारंगल में हुआ बीटी कॉटन के पौधे खाकर 900 बकरियों की मौत हो जाती है या जमीन स्थाई रूप से खराब हो जाती है तो कम्पनी किसान के प्रति कितनी देनदार होगी, इसके लिए कोई भी कानून अभी तक बनाया नहीं गया है।
इस कारण जीएम से जुड़े मुद्दों पर जागरूकता पैदा किया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जीएम के संबंध में कोई भी निर्णय करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना जरूरी है कि जीएम पदार्थों की निर्यात की गुंजाइश बहुत सीमित है। हमारी सरकारों ने किसानों से गत 10 वर्षों में यही कहा कि वे अधिक से अधिक उत्पादन कर अपनी फसल को विदेश में बेचकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाएं, लेकिन आज भी निर्यात का कृषि उत्पादकों का कुल हिस्सा दृ05 प्रतिशत बना हुआ है। जीएम के इस्तेमाल से निर्यात मं कमी आना तय है। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जीएम का पूरा मसला पेटेंट से जुड़ा हुआ है। जीएम के इस्तेमाल से निर्यात की कमी आना तय है। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जीएम का पूरा मसला पेटेंट से जुड़ा हुआ है। पूरी दुनिया के कुल पेटेंट में से 20 प्रतिशत पेटेंट जापान के पास तथा 15 प्रतिशत अमरीका के पास मौजूद हैं। भारत का कुल पेटेंट 5 प्रतिशत का हिस्सा है। पेटेंट कराने के लिए भारत के पास अथाह जैव विविधता के भण्डार मौजूद हैं, जिसका जापान, अमरीका और यूरोप में टोटा है। लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ताकत एवं निवेश के उपयोग से विकसित देशों के पेटेंटों को हथिया लिया जाता है -नीम, हल्दी और बासमती चावल का उदाहरण हमारे सामने है। यह प्रश्नचिन्ह बना हुआ है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए सामाजिक सरोकार भी कोई अर्थ नहं रखते खाद्य पदार्थों (अनाज) का इस्तेमाल कर बायोडीजल बनाने से भले ही दुनिया में खाद्य संकट पैदा हो जाए या भोजन को लेकर दंगे होने लगें, कम्पनियां मुनाफे को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देती हैं।
केवल यह कह देने से कि देश के सत्तारूढ़ नेता देश को बेचने पर आमादा हैं, काम चलने वाला नहीं है। जरूरी यह है कि जो इन खतरों के जानकार हैं, वे उस जानकारी को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाए ताकि किसान और देश के भविष्य से जुड़े इस मसले पर खुली बहस हो सके तथा जिस तरह अमरीका, यूरोप सहित दुनिया सहित दुनिया के तमाम देशों में जलीन संशोधित बीजों एवं खाद्य पदार्थ पर रोक लगाई जा सके। लकिन इसके लिए रणनीति बनाना आवश्यक है।
अभी तक सीड बिल (बीज विधेयक) रुका हुआ है। सरकार को चाहते हुए भी सूचना का अधिकार तथा रोजगार गारंटी कानून जैसे कानून बनाने पड़े हैं। योजनाबध्द तरीके से यदि जन संगठन, कृषि वैज्ञानिक एवं किसान संगठन मिलकर पहल करें तो नतीजे निकाले जा सकते हैं।
-सुनीलम .

जीएम के खतरे से हममें से अधिकांश वाकिफ हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र और कई अन्य प्रदेशों में हुई किसानों की आत्महत्याओं ने तो कम से कम चिंता की एक लकीर खीची है। इन आत्महत्याओं में जीएम फसल की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। बीज विधेयक को रोकने के लिए प्रयास किए जाने की जरूरत है। इसका ड्राफ्ट आसानी से उपलब्ध है, यदि आप चाहे तो इसकी कापी के लिए हमें भी लिख सकते हैं। उम्मीद है इस मुद्दे को रखने में सुनीलम, विधायक मुलताई का यह लेख महत्वपूर्ण है, यह लेख युवा संवाद पत्रिका के अक्टूनबर2008 के अंक में प्रकाशित हुआ है। उम्मीद है इससे जनमत निर्माण में मदद मिलेगी। शिवनारायण गौर

1 comment:

ab inconvenienti said...

कांग्रेस के नेताओं को कमीशन मिलता है मोनसेंटो जैसी कम्पनियों से, परमाणु करार भी तो इसी कमीशन की माया के चलते हुआ, ये साले पैसे और कुर्सी के लिए अपनी माँ और बेटी तक को बेच सकते हैं तो देश क्या चीज़ है?