खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Monday, October 20, 2008

पानी का निजीकरण

हाल ही में उत्तरप्रदेश विधानसभा द्वारा पारित जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग के गठन संबंधी कानून से स्पष्ट हो गया है कि अब देश में पानी का इस्तेमला भी गरीबों और किसानों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है। इस कानून के उल्लंघन को संज्ञेय अपराध माना गया है। तथा उल्लंघन करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था पर एक लाख तक जुर्माना और एक वर्ष तक की कैद अथवा दोनों सजाएं एक साथ दी जा सकती हैं। नियामक आयोग के अधिकारों में थोक हकदारी, (किसी क्षेत्र विशेष से गुजरने वाली नदी अथवा क्षेत्र में स्थिति तालाबों और अन्य जल संसाधनों को एक मुश्त ठेके या एकाधिकार पर देना) उपयोग की श्रेणी तथा जल दरें निर्धारित करना शामिल है।
डेढ़ दशक पूर्व प्रारंभ हुए ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों के क्रियांवयन से पानी सहित जीवन के लिए जरूरी संसाधन आम जनता से दूर जा रहे हैं। ढांचागत समायोजन कार्यक्रम लागू करवाने हेतु अंतरराष्ट्रीय वित्तीस एजेंसियों ने लूट समर्थक नीतियां बनाई हैं। विश्व बैंक की जल संसाधन रणनीति (2002) कहती है कि जल क्षेत्र में बाजार के सिध्दान्तों को लागू करने की कोशिश की जाए ताकि जल अधिकार अधिक कीमत चुकाने वालों को हस्तांतरित किया जा सके। वहीं एशियाई विकास बैंक की जल नीति पानी को प्रकृति की देन नहीं बल्कि एक ऐसा संसाधन मानती है जिसका सटीक प्रबंधन होना चाहिए। इसलिए विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी वित्तीय एजेंसियों ने विभिन्न राज्य सरकारों को जल क्षेत्र को राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त करवाने हेतु नियामक व्यवस्था कायम करवाना भी होती है। उत्तरप्रदेश का जल नियामक आयोग संबंधी कानून भी विश्व बैंक द्वारा आबंटित कर्ज की शर्त के तहत ही बनाया गया है।
मध्यप्रदेश सरकार भी विश्व बैंक से 39.6 करोड़ डॉलर का कर्ज लेकर चंबल, सिंध, बेतवा, केन और टोंस (तमस) नदी कछारों में मध्यप्रदेश जल क्षेत्र पुरर्रचना परियोजना संचालित कर रही हे। चूंकि यह कर्ज भी सेक्टर रिफार्म (क्षेत्र सुधार) के तहत लिया गया है अत: विश्व बैंक ने प्रदेश के जल क्षेत्र में बदलाव हेतु 14 शर्ते रखी हैं। इन्हीं में से एक शर्त पानी का बाजार खड़ा करने वाले जल नियामक आयोग का गठन करना भी है। इसके द्वारा पानी को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा।
विश्व बैंक ने कर्ज दस्तावेज में साफ लिख दिया है कि जलक्षेत्र पुनर्ररचना परियोजना (मध्यप्रदेश) का रूपांकन निजी-सार्वजनिक-भागीदारी अर्थात निजीकरण को ध्यान में रखकर किया गया है तथा जलक्षेत्र सुधान का मुख्य आधार बाजारीकरण ही होगा। परियोजना के प्रारंभिक लक्ष्यों में 1 मध्यम और 25 छोटी सिंचाई योजनाओं का निजीकरण का लक्ष्य तय कर दिया गया है। निजीकरण का प्रमुख उद्देश्य होता है मुनाफा कमाना। पानी की कीमतें अत्याधिक बढ़ने पर जिनके पास पानी खरीदने की क्षमता होगी उन्हें ही पानी मिलेगा। क्रयशक्ति विहीन लोगों को जरूरत का पानी उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी सेवा प्रदाताओं पर नहीं होगी। ऐसे में किसानों और गरीबों के जीने के हक का क्या होगा?
पानी के निजीकरण से नागरिकों के जीने के हक को ही नकार दिया जाएगा। किसानों की आजीविका का आधार ही पानी है। फसल उत्पादन के लिए उन्हें बड़ी मात्रा में (बल्क) पानी की आवश्यकता होती है। यदि वे पूर्ण लागत वापसी के सिऋान्त के अनुसार ऊँची दरों पर भुगतान नहीं कर पाए तो प्रदेश की एक तिहाई आबादी के समक्ष न केवल आजीविका का संकट पैदा हो जाएगा बल्कि इसका नकारात्मक प्रभाव देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता पर भी पड़ेगा।
मध्यप्रदेश में भी जल नियामक आयोग के गठन के बाद प्रदेश की सीमाओं में उपलब्ध समस्त जल संसाधन (जिनमें निजी कुएं, टयूबवेल तथा भूगर्भीय जल भी शामिल हैं) जल नियामक आयोग के अधीन हो जाएंगे, जिसकी दरें आयोग ही तय करेगा। देश में किसानों की आर्थिक स्थिति इतनी खस्ता है कि वे सिंचाई हेतु ली जा रही बिजली का बिल ही नहीं चुका पा रहे हैं। केन्द्रीय कृषि मंत्री पहले ही छोटी जातों को अव्यवहारिक बता चुके हैं। ऐसे में यदि किसानों को उनकी खुद की पुंजी/श्रम से तैयार कुओं और टयूबवेलों के साथ नदी-नालों के पानी का बिल भी चुकाना पड़ा तो क्या होगा?
सूचना का अधिकार देने वाली मध्यप्रदेश सरकार जल क्षेत्र के नियामक संबंधी मामले में अत्यधिक गोपनीयता बरत रही हे। आयोग के गठन संबंधी कानून का प्रारूप मार्च 2007 के भी पहले से तैयार है लेकिन इसे प्रदेशवासियों से छिपाया जा रहा है। मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा कई बार सूचना के अधिकार के तहत इसे मांगाा गया लेकिन हर बार इसे उपलब्ध करवाने से इंकार कर दिया गया। इसके विपरीत महाराष्ट्र में जब इस प्रकार का प्रारूप कानून बना तब सरकार ने कार्यशालाओं के माध्यम से इसका प्रचार कर जनता के सुझाव मांगे थे।
वैसे दुनिया में पानी का निजीकरण कोई नई बात नहीं है। सन् 1999 में लेटिन अमेरिकी देश बोलिविया में पानी का निजीकरण किया गया था। ठेकेदार कंपनी एगुअम डेल तुनारी ने अनुबंध के बाद न सिर्फ तीन गुना दाम बढ़ाए बल्कि उसने कुओं और टयूबवेलों पर भी कब्जा कर उन पर मीटर लगा दिए थे। पानी की दर वृध्दि से उत्पन्न जनाक्रोश ने वहां गृहयुध्द की स्थिति निर्मित कर दी थी। बोलिविया की तरह पानी के निजीकरण के अन्य असफल प्रयासों के बाद दुनिया के कई देशों में पानी पर समुदाय के अधिकार को न्यायपूर्ण समाज की बुनियाद मानते हुए इसे संवैधानिक अधिकार घोष्ज्ञत किया गया। इन देशों में स्पेन, हालैण्ड (यूरोप), दक्षिण अफ्रिका, नाईजीरिया, केन्या, कांगों, इथियोपिया, जाम्बिया, युगाण्डा (अफ्रीका) इरान, फिलीपिन्स (एशिया), कोलंबिया, बोलिविया, क्यूबा और पनामा (अमेरिका महाद्वीप) शामिल हैं। संभव है भारत में भी निजीकरया का इतिहास दोहराते हुए बाद में इसे लोगों का अधिकार बनाया जाए। लेकिन तब तक देश के अधिकांश किसान या तो खेती से अथवा दुनिया से ही पलायन कर चुके होंगे।

रेहमत


मंथन अध्ययन केन्द्र बड़वानी के साथ पानी के निजीकरण के मुद्दे पर काम कर रहे रेहमत द्वारा लिखित यह लेख सर्वोदय प्रेस सर्विस इन्दौर से प्रसारित हुआ है। मंथन अध्ययन केन्द्र पिछले कई सालों से पानी के मुद्दे पर काम कर रहा है। मंथन द्वारा भाकड़ा बांध के प्रभावों पर किए गए एक अध्ययन की रिर्पोट पिछले साल देशभर में चर्चा का मुद्दा रही है। - खेत खलियान की ओर से शिवनारायण गौर



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