मैक्सिको की गिनती आज उन देशों में हो रही है जहां खाद्य संकट सबसे विकराल रूप में सामने आया है। भारत के भोजन में रोटी का जितना महत्वपूर्ण स्थान है वही मैक्सिको में मक्के से तैयार होने वाली टारटिला का है। फर्क यह है कि आमतौर पर यह बाजार से खरीदी जाती है। सन 2007 में इसकी कीमत में पचास से साठ प्रतिशत तक की वृध्दि हुई जो वहां के सबसे प्रमुख खाद्य के लिए बहुत अधिक थी।
आश्चर्य की बात है कि इससे पहले पड़ोसी देश अमरीका से मक्के के सस्ते आयात में तेजी से वृध्दि हुई थी, जिसके कारण मैक्सिको के बहुत से किसान बुरी तरह तबाह हो गए और उन्हें खेती छोड़नी पड़ी। यह एक बड़ी त्रासदी थी। फिर भी कुछ लोगों ने सोचा कि सस्ते दाम पर मक्का आयात से कम से कम टारटिला सस्ती मिलती रहेगी। पर कुछ ही समय के बाद टारटिला भी बहुत महंगी हो गई। जो लोग सोचते है कि सस्ता खाद्य आयात कर लो और पेट भर लो, उनके लिए यह एक महंगा सबक था। सवाल है कि ऐसा कैसे हुआ और क्या हम मैक्सिको के अनुभव से कुछ सीख सकते हैं?
भारत में महंगाई रोकने और सस्ते खाद्य मुहैया कराने के नाम पर कई बार सस्ते आयात किए गए हैं। इसलिए मैक्सिको के अनुभव भारत के लिए यह समझने के लिए बहुत उपयोगी हैं कि सस्ते खाद्य आयात की नीति किसानों के लिए तो हानिकारक होती ही है, यह कुछ समय बाद उपभोक्ताओं के लिए भी हानिकारक सिध्द होती है।
1980 के दशक में मैक्सिको का विदेशी कर्ज बढ़ गया तो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने ऐसी शर्तें लगाई जिनसे मैक्सिको के किसानों को मिलने वाली सरकारी सहायता कम हो गई और किसानों की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ गई। सन 1994 में उत्तरी अमरीका मुक्त व्यापार समझौता यानी नाफ्टा लागू हुआ जिससे अमरीका में सरकारी सब्सिटी के कारण सस्ता हुआ मम्का बड़ी मात्रा में मैक्सिकों में आयात होने लगा।
नतीजतन, अमरीकी मक्का मैक्सिको में छा गया और वहां के किसान गंभीर संकट में फंस गए। मक्के की खरीद-बिक्री और वितरण से सरकारी एजेंसी हट गई और यह काम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में आ गया। जब मक्के का उपयोग जैव ईंधन के लिए अमरीका में तेजी से बढ़ने लगा तो उस समय खाद्य के रूप में मक्के की कीमत तेजी से बढ़ने के अनुकूल अवसर उत्पन्न हो गए जिसका भरपूर लाभ इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उठाया।
इतना ही नहीं, इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मक्के के बाजार में अपनी मजबूत स्थिति का बेहद अनुचित और अनैतिक उपयोग परंपरागत मक्के के आटे और टारटिला उत्पादकों का बाजार छीनने के लिए किया। मैक्सिको में कुछ मक्का आटे की बड़ी मिलों में भेजा जाता है और कुछ आटा मक्के की परंपरागत चक्कियों में भेजा जाता है। आमतौर पर टॉरटिला बड़ी मिलों के आटों से बनती है तो कुछ परंपरागत तरीके से पीसे गए मक्के के आटे से। परंपरागत क्षेत्र में आटा पीसने और टॉरटिला बनाने की लगभग सत्तर हजार इकाइयां हैं।
बड़ी कंपनियों ने कुछ बड़े टारटिला उत्पादकों को सस्ता आटा दे दिया और बाजार को ऐसी कीमत में टारटिला से भर दिया जिससे प्रतिस्पर्धा करना परंपरागत क्षेत्र के लिए संभव नहीं था। इस तरह किसानों के साथ-साथ परंपरागत रूप से आटा पीसने और टॉरटिला बनाने वालों की भी क्षति हुई और बाजार की सारी शक्ति बड़े स्तर के खिलाड़ियों के हाथों में केन्द्रित हो गई। इसके चलते बाद में कीमत बढ़ाना आसान हो गया। उनकी प्रतिस्पर्धा में अब किसी और के लिए खड़ा होना या टिक पाना बहुत मुश्किल हो चुका था।
खाद्य सुरक्षा के लिए इतना हानिकारक बदलाव बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों से खुद को जोड़ने वाली मैक्सिको की सरकार के समर्थन और सहयोग से हुआ। यानी सरकार ने अपने ही लोगों के हितों को कुचलने में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साथ दिया। इन नीतियों का असर यह हुआ कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुनाफा तेजी से बढ़ने लगा जबकि लाखों की संख्या में मैक्सिको के किसान उजड़ने लगे और उनमें से अनेक किसान तो अमरीका के लिए सस्ते मजदूर बनकर वैध-अवैध तरीकों से वहां जाने लगे क्योंकि अपने परिवारों को पेट भरने का उन्हें और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
खाद्य संकट की स्थिति में बड़ी कंपनियों ने जीएम फसलों को एक समाधान के रूप में प्रस्तुत किया है जबकि अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि जीएम फसलों के प्रसार से इन कंपनियों का मुनाफा और नियंत्रण पहले से भी अधिक बढ़ जाएंगें और मैक्सिको के किसानों और उपभोक्ताओं के लिए रोजी-रोटी और स्वास्थ्य के नए खतरे उत्पन्न होंगे।
मैक्सिको के अनुभवों से अन्य विकासशील देशों को सीखना चाहिए कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आगे बढ़ाने वाली नीतियों से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता और किसानों के हितों की कितनी क्षति होती है या महंगाई को नियंत्रित करने के सरकार के प्रयास कितने कमजोर हो जाते हैं।
3 comments:
jaankari badhane ka aabhar
शिवजी
बहुत अच्छा लेख है। बधाई।
अच्छा आलेख!!बहुत बधाई.
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