एशिया की खाद्य सुरक्षा की स्थिति दो देशों के उदाहरण से समझी जा सकती है। पहला, फिलीपीन जहां खाद्य सुरक्षा बुरी तरह टूट चुकी है। दूसरा देश चीन है जहां खाद्य सुरक्षा को काफी मजबूत रखा गया है, पर ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि अगर कुछ महत्वपूर्ण कमियों की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। फिलीपीन की मुख्य फसल चावल है। और यह देश कुछ वर्ष पहले तक चावल उत्पादन में आत्मनिर्भर था। अब यह विश्व का सबसे अधिक चावल आयात करने वाला देश बन चुका है।
पिछले तीन दशकों के दौरान अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाओं की ओर से विदेशी कर्ज वापसी की बड़ी किस्तें जमा करने और जरूरी घरेलू खर्च को कम करने के लिए फिलीपीन पर बहुत दबाव डाला गया। कृषि की प्रगति और किसानों की सहायता के अनेक सरकारी कार्यक्रम ठप्प हो गए या उनमें काफी कटौती हुई। किसानों की कठिनाइयां बढ़ गईं और पैदावार कम होने लगी। इसी दौरान विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अंतर्गत फिलीपीन आयातों से संख्यात्मक प्रतिबंध हटाने और आयात शुल्क कम करने के लिए दबाव बनाया गया। इस कारण चावल के अतिरिक्त मक्के की खेती, सब्जी उत्पादन, मुर्गी पालन आदि पर भी प्रतिकूल असर पड़ा।
दूसरी ओर चीन ने चावल, गेहूं मक्का जैसे मुख्य खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता बनाए रखी है। लेकिन अपने यहां भोजन की सबसे महत्वपूर्ण फसल सोयाबीन के मामले में वह मार खा गया और आयात पर उसकी निर्भरता काफी बढ़ गईं। विश्व व्यापार संगठन से हुई वार्ता के दौरान चीन सोयाबीन पर आयात शुल्क तीन प्रतिशत तक कम करने को राजी हो गया। इसके बाद वह सोयाबीन का सबसे बड़ा आयातक बन गया। इसका चीन के सोयाबीन किसानों पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
दूसरी समस्या यह है कि खाद्याान्न और अन्य कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए कई स्थानों पर रासायनिक खाद और कीटनाशकों को अंधाधुंध उपयोग हुआ है जो आगे चलकर समस्याएं पैदा करेगा। सिंचाई की कुछ बड़ी परियोजनाएं भी पर्यावरण के लिए समस्याएं बढ़ाने वाली हैं। तेज औघेगीकरण और शहरीकरण के कारण कृषि क्षेत्र का बड़ा हिस्सा हमेशाा के लिए लुप्त हो गया है। इन सब कारणों से भविष्य में चीन में खाद्य उत्पादन बढ़ाना कठिन हो सकता है।
इसी तरह एशिया के अधिकतर देशों में पहले से खाद्य संकट मौजूद है या उत्पादन बढ़ाने के ऐसे तौर-तरीके अपनाए गए हैं जिनसे भविष्य में खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने में कठिनाई आ सकती है। अंतरराष्ट्रीय वित्त और व्यापार संस्थानों की नियमों और शर्तों के कारण भी इन देशों के जरूरतमंद लोगों की कठिनाइयां बढ़ रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तेजी से प्रसार कृषि और खाद्य क्षेत्र के संकट को और उग्र कर रहा है। इन चिंताजनक परिस्थितियों में यह जरूरी है कि एशिया के देश आपस में खाद्य सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर सहयोग और सहायता बढ़ाने के प्रयास करें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों, धनी देशों और उनके द्वारा नियंत्रित संस्थानों से बातचीत में एशिया के किसानों को अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट होना चाहिए।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि को पर्यावरण की रक्षा से जोड़ने के साथ-साथ टिकाऊ तकनीकों का प्रसार करना चाहिए। गांवों में जल-संरक्षण और हरियाली पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। इससे वह बुनियाद तैयार होगी जिससे रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर निर्भर हुए बिना ही पर्याप्त खाद्य उत्पादन हो सकेगा। इस प्रयास में कृषि के परंपरागत ज्ञान और परंपरागत बीजों से बहुत मदद मिल सकती है। विशेषकर चावल के मामले में परंपरागत बीजों और धान की बहुत-सी किस्मों की जैव-विविधता का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
जब चावल के संदर्भ में सरकार द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति की विफलता और रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता हानिकारक सिध्द होने लगी तो देश की इस सबसे महत्वपूर्ण फसल के बारे में चिंतित सरकार को वर्षों से उपेक्षित महान कृषि वैज्ञानिक डॉ. आरएच रिछारिया की याद आई। सन 1983 में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें चावल का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का आग्रह किया। डॉ. रिछारिया ने एक कार्ययोजना तैयार की, पर इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद यह दस्तावेज उपेक्षित ही रह गया।
इस दस्तावेज में उन्होंने उन कारणों की पहचान की थी, जिनकी वजह से पिछले लगभग बीस वर्षों में खाद, कीटनाशकों, सिचाईं, अनुसंधान, प्रसार आदि पर बहुत खर्चा करने बावजूद उत्पादकता वृध्दि की दर में वांछित तेजी नहीं लाई जा सकी है। उसके बाद उन्होंने मुख्य रूप से तीन भाग में अपनी योजना सामने रखी थी। पहली, चावल का विकास समृध्द देशी जनन द्रव्य पर आधारित होगा, जिनका अन्वेषण और संरक्षण होना चाहिए। दूसरी, एक अति विकेंद्रित प्रसार नीति और तीसरी, कृंतक प्रसार विधि का सुधरी किस्मों के प्रसार के लिए व्यापक स्तर पर उपयोग।
हालांकि यह योजना भारत के संदर्भ में बनाई गई, पर इससे एशिया के कई अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं।
भरत डोंगरा
पिछले तीन दशकों के दौरान अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाओं की ओर से विदेशी कर्ज वापसी की बड़ी किस्तें जमा करने और जरूरी घरेलू खर्च को कम करने के लिए फिलीपीन पर बहुत दबाव डाला गया। कृषि की प्रगति और किसानों की सहायता के अनेक सरकारी कार्यक्रम ठप्प हो गए या उनमें काफी कटौती हुई। किसानों की कठिनाइयां बढ़ गईं और पैदावार कम होने लगी। इसी दौरान विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अंतर्गत फिलीपीन आयातों से संख्यात्मक प्रतिबंध हटाने और आयात शुल्क कम करने के लिए दबाव बनाया गया। इस कारण चावल के अतिरिक्त मक्के की खेती, सब्जी उत्पादन, मुर्गी पालन आदि पर भी प्रतिकूल असर पड़ा।
दूसरी ओर चीन ने चावल, गेहूं मक्का जैसे मुख्य खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता बनाए रखी है। लेकिन अपने यहां भोजन की सबसे महत्वपूर्ण फसल सोयाबीन के मामले में वह मार खा गया और आयात पर उसकी निर्भरता काफी बढ़ गईं। विश्व व्यापार संगठन से हुई वार्ता के दौरान चीन सोयाबीन पर आयात शुल्क तीन प्रतिशत तक कम करने को राजी हो गया। इसके बाद वह सोयाबीन का सबसे बड़ा आयातक बन गया। इसका चीन के सोयाबीन किसानों पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
दूसरी समस्या यह है कि खाद्याान्न और अन्य कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए कई स्थानों पर रासायनिक खाद और कीटनाशकों को अंधाधुंध उपयोग हुआ है जो आगे चलकर समस्याएं पैदा करेगा। सिंचाई की कुछ बड़ी परियोजनाएं भी पर्यावरण के लिए समस्याएं बढ़ाने वाली हैं। तेज औघेगीकरण और शहरीकरण के कारण कृषि क्षेत्र का बड़ा हिस्सा हमेशाा के लिए लुप्त हो गया है। इन सब कारणों से भविष्य में चीन में खाद्य उत्पादन बढ़ाना कठिन हो सकता है।
इसी तरह एशिया के अधिकतर देशों में पहले से खाद्य संकट मौजूद है या उत्पादन बढ़ाने के ऐसे तौर-तरीके अपनाए गए हैं जिनसे भविष्य में खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने में कठिनाई आ सकती है। अंतरराष्ट्रीय वित्त और व्यापार संस्थानों की नियमों और शर्तों के कारण भी इन देशों के जरूरतमंद लोगों की कठिनाइयां बढ़ रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तेजी से प्रसार कृषि और खाद्य क्षेत्र के संकट को और उग्र कर रहा है। इन चिंताजनक परिस्थितियों में यह जरूरी है कि एशिया के देश आपस में खाद्य सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर सहयोग और सहायता बढ़ाने के प्रयास करें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों, धनी देशों और उनके द्वारा नियंत्रित संस्थानों से बातचीत में एशिया के किसानों को अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट होना चाहिए।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि को पर्यावरण की रक्षा से जोड़ने के साथ-साथ टिकाऊ तकनीकों का प्रसार करना चाहिए। गांवों में जल-संरक्षण और हरियाली पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। इससे वह बुनियाद तैयार होगी जिससे रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर निर्भर हुए बिना ही पर्याप्त खाद्य उत्पादन हो सकेगा। इस प्रयास में कृषि के परंपरागत ज्ञान और परंपरागत बीजों से बहुत मदद मिल सकती है। विशेषकर चावल के मामले में परंपरागत बीजों और धान की बहुत-सी किस्मों की जैव-विविधता का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
जब चावल के संदर्भ में सरकार द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति की विफलता और रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता हानिकारक सिध्द होने लगी तो देश की इस सबसे महत्वपूर्ण फसल के बारे में चिंतित सरकार को वर्षों से उपेक्षित महान कृषि वैज्ञानिक डॉ. आरएच रिछारिया की याद आई। सन 1983 में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें चावल का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का आग्रह किया। डॉ. रिछारिया ने एक कार्ययोजना तैयार की, पर इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद यह दस्तावेज उपेक्षित ही रह गया।
इस दस्तावेज में उन्होंने उन कारणों की पहचान की थी, जिनकी वजह से पिछले लगभग बीस वर्षों में खाद, कीटनाशकों, सिचाईं, अनुसंधान, प्रसार आदि पर बहुत खर्चा करने बावजूद उत्पादकता वृध्दि की दर में वांछित तेजी नहीं लाई जा सकी है। उसके बाद उन्होंने मुख्य रूप से तीन भाग में अपनी योजना सामने रखी थी। पहली, चावल का विकास समृध्द देशी जनन द्रव्य पर आधारित होगा, जिनका अन्वेषण और संरक्षण होना चाहिए। दूसरी, एक अति विकेंद्रित प्रसार नीति और तीसरी, कृंतक प्रसार विधि का सुधरी किस्मों के प्रसार के लिए व्यापक स्तर पर उपयोग।
हालांकि यह योजना भारत के संदर्भ में बनाई गई, पर इससे एशिया के कई अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं।
भरत डोंगरा
2 comments:
जानकारी के लिए शुक्रिया। डा रिछारिया की योजना जल्द ही फलीभूत हो , ऐसी उम्मीद रखते हैं।
डा रिछारिया की योजना पर सरकार को कार्य करना चाहिए....अच्छा और जानकारीपरक लेख.
Post a Comment