खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Friday, July 18, 2008

भारत का कृषि संकट: एक परिप्रेक्ष्य

हमारा प्यारा देश भारत एक कृषि प्रधान देश है। हमारे देश कर कुल आबादी करीब 110 करोड़ हो चुकी है, जिसका 75 प्रतिशत हिस्सा गांवों में निवास करता है। इनमें से करीब 65 करोड़ लोग सीधे खेती-किसानी से जुड़े हुए है और अन्य 15 करोड़ लोगों की जीविका खेती से जुड़े हुए धंधाें से चलती है। इस प्रकार जीविका के साधन के रुप में भारतीय कृषि की भूमिका सर्वोपरि व काफी महत्वपूर्ण हैं। आज भी रोजगार सृजन एवं सकल घरेलू उत्पादन में इस क्षेत्र का अच्छा खासा योगदान है। लेकिन अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र का एक लंबे समय से शोषण व दोहन होता रहा है।
1947 के पूर्व अंग्रेजों ने खेती-किसानी में लगे लोगों के श्रम का मनमाना दोहन किया। अंग्रेजाेंं के आने के पूर्व हमारे गांव काफी हद तक स्वाबलंबी थे। उस समय तक ग्रामीण समाज पर बाजार की सत्ता स्थापित नहीं हुई थी और कृषि का मूल उद्देश्य जीवन-निर्वाह आवश्यकताओं को पूरा करना था। हमारे देश के राजा आम तौर पर फसल का 6ठा हिस्सा लगान के रुप में लेते थे। लेकिन अंग्रेजों ने एक नई भू-राजस्व व्यवस्था के तहत जमीन पर निजी स्वामित्व कायम की। इस व्यवसथा के तहत जमीन की 'दमागी' व स्थायी बंदोबस्ती' की गई और किसानों से लगान नगदी के रुप में लिया जाने लगा। लगान की दर इतनी अधिक थी कि किसानों को उसकी अदायगी के लिए अपनी फसल का तीन-चौथाई हिस्सा था, उससे भी अधिक बेचना पड़ता था। लगान चुकाने के लिए किसानों को नगदी फसल (अफीम, नील, कपास आदि) उपजाने पर मजबूर होना पड़ा और फलस्वरुप बाजार कृषि उत्पादन को निर्देशित करने लगा। इस भू-रातस्व व्यवस्था के जरिये अंग्रेज शासकों व जमीदारों ने कृषि क्षेत्र में पैदा होने वाले अधिशेषों को हथियाना शुरु कर दिया और किसानों से काफी जोर-जबरदस्ती भी की। इसके साथ-साथ अंग्रेजों ने अपने उत्पादित मालों को भारतीय बाजारों बेचने के लिए यहां के ग्रामीण हस्तशिल्पों को नेस्तनाबूद कर दिया।
इस सबों का असर यह हुआ कि हमारे देश की फलती-फूलती स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गई और किसानों, खेत मजदूरों व दस्तकारों की माली हालत काफी जर्जर हो गई। 19वीं सदी अंत में देश के विभिन्न हिस्सों में भीषण भुखमरी का दौर शुरु हो हुआ, जिसमें करोड़ों लोग मौत की मुंह में समा गये। और सरकारी दस्तावेजों में इस भयानक मौतों को 'अकाल मौत' की संज्ञा देकर उसका सारा दोष प्रकृति पर मढ़ दिया गया। 20वीं सदी में भी 1945 के पहले कई प्रांतों में 'भयंकर अकाल' पड़े और लाखों की तादात में लोग मारे गये।
अंग्रेजों व जमीनदारों के लूट-खसोट एवं जुल्मो-सितम के खिलाफ आदिवासी इलाकों में दर्जनों सशस्त्रों विद्रोह हुए और समतल इलाकों में भी कई किसान आंदोलन संगठित किए गए। इन किसान आंदोलनों में स्वमी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में चला वकास्त आंदोलन बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में चला अवध किसान आंदोलन महात्मा, गांधी के नेतृत्व में किया गया। चंपारण खेड़ा व बारडोली का किसान सत्याग्रह, पश्चिम बंगाल का तेभागा आंदोलन एवं तेलंगाना किसान आंदोलन प्रमुख है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सामंती कृषि-भूमि संबंध एवं अन्यायकारी भू-राजस्व व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की मांगे उठी। यहां तक कि कांग्रेस ने भी अपने स्वर्णजयंती अधिवेशन (1935) में स्वीकार किया कि कृषि-भूमि संबंधों मेंं युगांतकारी परिवर्तन लाये बिना किसानों की बदहाली समाप्त करना एवं बेरोजगारी व गरीबी से निजात पाना संभव नहीं है। इस अधिवेशन में यह घोषणा की गई कि किसानों की समस्या का अंतिम समाधान 'ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण' के खात्मे और घिसी-पिटी, उत्पीड़क कृषि-भूमि व्यवस्था और भू-राजस्व प्रणाली में आमूल-चामूल परिवर्तन द्वारा ही हो सकता है।'
लेकिन 1947 में जब अंग्रजों की प्रत्यक्ष सत्ता समाप्त हो हुई और उसके स्थान पर कांग्रेस सत्ताहीन हुई तो कृषि व अर्थव्यवस्था न केवल बदस्तूर जारी रही, बल्कि तेज भी हुई। खासकर कृषि क्षेत्र में अर्ध्द-सामंती, प्राक-पूंजीवादी भूमि संबंध एवं साम्राज्यवादी लूट-खसोट बरकारार रहे। एक ओर खेती-किसानी के काम को 'अकुशल' काम का दर्जा देकर अवनमित किया गया और दूसरी ओर उन्होंने 'संसाधनों पर राज्य की सार्वभौम सत्ता' की पश्चिमी अवधारणा को अमल में लाकर स्वाभिमानी किसानों को याचक बना दिया गया।
विगत 60 सालों के 'आजाद भारत' में विभिन्न दलोें व गठबंधनों कर सरकारें केंद्र व राज्यों में सत्ताहीन हुई और उन्होने भूमि सुधार व कृषि विकास के ढेर सारे वायदे किए। साथ ही साथ, कूषि क्षेत्र व ग्रामीण इलाकाें में इंद्रधनुषी क्रांति, यानी हरित, श्वेत, नीली, पीली आदि क्रांतियों को सफल करने के दावे भी किए गए। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार ने कृषि जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को पूरी तरह नजरअंदाज किया है। पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) में कुल योजना राशि का 14.9 प्रतिशत कृषि व सहयोगी क्षेत्रों के लिए आवंटित किया गया था, जो दसवीं योजना (2002-07) में घटकर 5.2 प्रतिशत हो गया। दूसरी ओर कृषि विकास की जो में साम्राज्यवादपरस्त नीतियां अपनाई गई उसका अंतिम परिणाम हरित क्रांति के चुनिंदा इलाकों समेत पूरे देश की खेती की बर्बादी के रुप में हुआ। नतीजतन कृषि विकास दर प्रभावित हुआ और सकल घरेलू उत्पादन में कृषि का योगदान काफी घट गया। विगत ढाई दशकों से कृषि उपज विकास की सालाना दरों में कमी हुई हैं, जबकि औद्योगिक व सेवा क्षेत्र का काफी विकास व विस्तार हुआ हैं । 1947 मेें सकल घरेलू उत्पादन में कृषि का योगदान 65 प्रतिशत के करीब था, जो आज घटकर 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है।
राष्ट्रीय कृषि आयोग एवं विजन-2020 का सरकारी अनुमान है कि यह प्रतिशत 2020 तक घटकर 6 तक आ जायेगा, जबकि कृषि पर आबादी की निर्भरता 60 प्रतिशत की रहेगी। इसी तरह खाद्यान्नों की उपलब्ध्ता भी घटी हैं। 1991 में प्रति भारतीय सालाना 177 कि.्रग्रा. खाद्यान्नों की उपलब्ध्ता थी, जो आज घटकर 150 कि.ग्रा. (1937 के स्तर के करीब) हो गई है। ज्ञातव्य है कि चीन, मैक्सिको, यूरोपीय यूनियन, अमेरिका और रूस में प्रति व्यक्ति सालाना क्रमश: 325 कि.ग्रा., 375 कि.ग्रा., 700 कि.ग्रा., 850 कि.ग्रा. एवं 1000 कि.ग्रा. खाद्यान्नोें की उपलब्ध्ता है। देश के औसतन करीब 50 प्रतिशत किसान कर्ज के दुश्चक्र मेंं फंसे हैं। इस मामले में आंध्र प्रदेशका स्थान सबसे उपर हैं और वहां के 82 प्रतिशत किसान कर्ज की मार से तबाह है। इसके बाद तमिलनाडू, पंजाब, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र का नंबर आता है, जहां 74.5 प्रतिशत, 65.4 प्रतिशत,61.7 प्रतिशत एवं 54.7 प्रतिशत किसान कर्ज के भंवर जाल में फंसे है। यही कारण है कि कर्ज मेंं डूबे इन्हीं राज्यों के किसान काफी तादाद में आत्महत्या कर रहे है।
कृषि मंत्री शरद पवार के संसद में हाल मेें दिये गये एक बयान के अनुसार 1993 से 2003 के बीच कुल 1 लाख 2 सौ 48 किसानों ने आत्महत्या की है। गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, विगत 15 सालों के दौरान (1991 से 2006 तक) कुल डेढ़ लाख किसानो ने आत्महत्या की है। इस प्रकार आज खेती घाटे के धंधे में दब्दील हो चुकी है, और किसानों का एक अच्छा-खासा हिस्सा खेती छोड़कर रोजी-रोटी की जुगाड़ मे शहरो की ओर पलायन कर रहा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार औसतन एक किसान परिवार (5 लोगों का) की प्रति व्यक्ति आय गिरकर 420रू. मासिक (380रू. मासिक की गरीबी रेखा से थोड़ा ही उपर) हो गई हैं, और 40 प्रतिशत भारतीय किसान खेती के पेशा को त्यागना चाहते है। ध्यान देने योग्य बात है कि इस औसत मासिक आय का ज्यादातर हिस्सा विकसित कृषि क्षेत्र एवं जमींदारों व पूंजीवादी फार्मरों की आय से बनता है।
उपर्युक्त तथ्य भारतीय कृषि के भयंकर संकठ को अच्छी तरह उजागर करते है। आखिर बहुसंख्यक आबादी का जीविका चलाने वाली हमारी कृषि इतनी बदहाल व संकटग्रस्त कैसे हो गई? आईये, हम इस कृषि संकट के कुछ मूल पहलुओं पर गौर करें।
1. कृषि किसान की न्यायपूर्ण हकदारी का मामला
भारतीय कृषि के संकट का सबसे महत्वपूर्ण पहलु खेती-किसानी की हकदारी का मामला है। हमारे देश में 1947 से ही खेती किसानी की कम को अकुशल काम का दर्जा देकर किसानों, मजदूरों की मेहनत की हकदारी को काफी कम करके आंका गया और उनकी वाजिब हकदारी में भारी कटौती कर औद्याोगिक क्षेत्र व शहरी विकास के लिए पूंजी इकट्ठा की गयी। मुख्यत: इसी कटौती के बल पर अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक औद्योगिक शक्ति के रुप में भारत का स्थान दसवां हो गया है और हमारे देश के लुटेरे शासक एक 'आर्थिक महाशक्ति' बनने का सपना देखने लगे है। इस औद्योगिक लाभ व विकास का फायदा भी खेती-किसानी में लगे लोगों को नही मिला, और आये दिन उपरी वर्गों की हकदारी मेंं भारी बढ़ोत्तरी होती रही। इसका विकृत परिणाम यह हुआ कि आज किसानी की मेहनत का मोल करीब 30रू. प्रतिदिन के बराबर है, जबकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत 'अकुशल' मजदूरों की हकदारी 60रू. संगठित क्षेत्र में काम कर रहे चपरासी, दफ्तर में किरानी एवं पाठशाला के गुरुजी, प्रोफेसर व कलेक्टर और तथाकथित जन प्रतिनिधियों की हकदारी क्रमश: 210रू., 350रू., 1500रू, और 2500रू. रोज है। वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में भामाशाहों, डाक्टरों व वकीलो ंके हकदारी की कोई सीमा ही नही है। उच्चतम न्यायालय के नामी वकीलों की हकदारी दो लाख रू. रोज तक बैठती है। इसी तरह प्रबंधन, सूचना-तकनिकी के बचे क्षेत्रों में काम करने वाले युवाओं का शुरूआती वेतन 20000रू. से लेकर 100000रू. तक हो सकता है। बड़ी-बड़ी कंपनियों में मुख्य कार्यकारी पदाधिकारियों (सी.ई.ओ.) की हकदारी तो करोड़ों रू. के पार जा चुकी है।
आश्चर्य इस बात का है कि गैरबराबरी की व्यवस्था को फिलहाल कोई गंभीर चुनौती नहीं मिली है। जबकि आज असली सवाल आठ या दस प्रतिशत विकास दर का नही है, वरन मिहनतकशों की मिहनत की सही हकदारी का है। आज सवाल उत्पादन का नही, वरन इस बात का है कि उत्पादन क्या किया जाय-बायोडीजनल के लिए जेट्राफा या आधा पेट रहने वाली जनता कि लिए गेंहूं व धान ? इस तरह जरूरत इस बात की है कि खेती-किसानी की वाजिब हकदारी की मांग मजबूती से उठाई जाय। लेकिन एक साजिश के तहत इस मांग को दरकिनार कर समर्थन मूल्य या फसलों के वाजिब दाम को मुख्य मुद्दा बना दिया जाता है ।
किसानों का एक हिस्सा गन्ने का दाम बढ़ाने के लिए लड़ता है तो दूसरा-तिसरा हिस्सा प्याज, गेंहूं या धान का दाम बढ़ाने के लिए। और जब किसान अपनी फसल बेचकर हिसाब करता है, तो लागत निकालने के बाद शुध्द आय के रुप में अगर कहीं कुछ बचता है तो वह उसकी एवं उसके परिवार की मेहनत की हकदारी ही होती है। इसी तरह किसानों व खेत मजदूरों की एकता का तोड़ने की भी साजिश की जाती है। खेती-किसानी में लगे लोगों की एकता को तरह-तरह से खंडित कर असली शोषक मजा लेते है। आज जरूरत इस बात की है कि किसानो -मजदूरों की व्यापक एकता को कायम व मजबूत किया जाए और उनकी वाजिब व न्यायपूर्ण हकदारी के लिए देश के शोषक-शासक वर्गों पर प्रहार का निशाना केंद्रित किया जाए। जब खेती-किसानी सहित अन्य संगठित क्षेत्र में मजदूरों की मेहनत की हकदारी का मामला सुलझ्रेगा, तो कृषि क्षेत्र के अन्य सभी समीकरण भी हल होंगें।

2. भूमि सुधार की समस्या
हमारे देश की खेती के विकास में भूमि का असमान वितरण एक गंभीर समस्या बनी हुई हैं। विगत 6 दशकों के भूमि सुधार के तमाम दावों को बावजूद आज भी अधिकांश खेती योग्य जमीनों पर भू-स्वामी कुलीन वर्ग का कब्जा बरकरार है। एक मोटे आंकड़े के मुताबिक 80 प्रतिशत खेती की जमीनों पर 20 प्रतिशत भूस्वामियों का कब्जा है एवं 80 प्रतिशत किसानो को पास कृषि भूमि का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा हैं। सरकार ने भूमि हदबंदी कानून बनाया, लेकिन अधिकांश राज्यों में उस पर दृढ़ता से अतल नही किया गया। आज भी बिहार, उत्तर-प्रदेश झारखंड, छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में सैकड़ों-हजारों एकड़ जमीन रखने वाले बड़े-बड़े भूस्वामि मौंजूद हैं। इनमें से एक अच्छा खासा हिस्सा अनुपस्थित जमीन्दारों/भूस्वामियों का है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक संस्थानाेंं व ट्रस्टों का भी लाखों एकड़ जमीन पर कब्जा बरकरार है। हमारे देश के 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास ढाई एकड़ से लेकर पांच एकड़ तक जमीन है। इस तरह हमारे यहां बहुसंख्यक किसान छोटी जातों के मालिक है। दूनिया भर का अनुभव बताता है कि अगर अन्य बातें समान रहे तो छोटी जोतों की उत्पादकता बड़ी जोतों की अपेक्षा अधिक होती है। लेकिन हमारे यहां पूंजी केंंद्रित खेती का जो तरीका अपनाया गया, उससें इन छोटे किसानों की माली हालत काफी खराब हो गई और उनमें से एक बड़े हिस्से को खेती छोड़ने को बाध्य होना पड़ा है।
हमारे देश में किसानों का एक बड़ा हिस्सा भूमिहीन है। अलग-अलग राज्यों में इन किसानाें का हिस्सा 10 प्रतिशत से लेकर 40 प्रतिशत है। विभिन्न सरकारी कानूनों व योजनाओं के तहत इन्हेंं जमीन मुहैया कराने के निर्णय लिए गए, लेकिन उनपर कभी भी ठीक से अमल नहीं किया गया । विभिन्न राज्यों के कुछ इलाकों में जहां इन भूमिहीन किसानों ने जमीन पर अधिकार के लिए जुझारू संघर्ष किया है। वहां उन्हें कुछ जमीनों का लाल कार्ड प्राप्त करने में सफलता मिली है। आज भी बहुसंख्यक भूमिहीन किसान दूसरे की जमीनाें पर खेत मजदूर के रुप में काम करते है। एक तो उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती है और दूसरे कई प्रकार के सामंती उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। केंद्र सरकार से अभी तक इन असंगठित खेत मजदूरों के लिए कोई केंद्रीय मजदूरी कानून नहीे बनाया है।
किसानों का एक अच्छा खासा हिस्सा मनी-बटाई लेकर खेती करते है। विभिन्न राज्यों में ऐसे बटाईदार का हिस्सा 10 प्रतिशत से लेकर 20 प्रतिशत तक है। विभिन्न राज्यों में बटाईदार कानून बनाये गये है, लेकिन शायद ही कहीं इन्हें सख्ती के साथ लागू किया गया है। आज भी प्राय: सभी राज्यों में बटाईदारों की गैर कानूनी बेदखली जारी है और इन्हें उपज का आधा से अधिक हिस्सा भूस्वामियों को सुपुर्द करना पड़ता हैं। इसी प्रकार अधिकांश राज्यों में चकबंदी कानून को ढंग से लागू नहीं किया गया है, जिससे किसानों को कई प्रकार की समस्याओें का सामना करना पड़ता है।
करीब तीन दशक पूर्व तक नदी कगार, पहाड़ी व जंगली एवं बंजर भूमि आबाद करने की योजनाएं ली गई और इससे खेती योग्य जमीनों का क्षेत्रफल भी थोड़ा बड़ा। लेकिन हाल के दशकाें में एक उल्टी प्रक्रिया चली है और बड़े पैमाने पर कृषि योग्य जमीनों को गैर कृषि उपयोग के लिए हस्तांतरित किया गया है। नतीजतन कृषि उपयोग की जमीनों को क्षेत्रफल घट गया । कृषि मंत्रालय के द्वारा जारी 6 जुलाई 2005 के आंकड़े के अनुसार विगत 15 सालों के दौरान (1990-91 से 2004-05 के बीच) खेती की जमीनों के क्षेत्रफल मेंं कुल 7.68 मिलियन हेक्टेयर की कमी हुई है। इसके साथ-साथ अब तो नई कृषि नीति एवं विशेष आर्थिक जोन के तहत देशी-विदेशी कंपनियों को भारी मात्रा में जमीन सुपूर्द की जा रही हैं। अनुपस्थित जमींदारों एवं ग्रामीण कुलीन समूहों का शक्तिशाली वर्ग फिलहाल कृषि क्षेत्र मेें बड़े पैमाने पर उक्त कंपनियों के प्रवेश का हिमायती बन गया है। इस प्रकार भू-स्वामित्व की प्रतिभागी अवधारणा एवं भूमि वितरण की असमानता के चलते आम किसानों खासकर छोटे व मंझोले किसानों की हालत काफी जर्जर हो गई है। कृषि संकट को हल करने की प्रक्रिया में भूमि सुधार की इस जटिल समस्या का समाधान का निराकरण्ा करना होगा और जो जोते उसकी भूमि और एक व्यक्ति एक पेशा के आधार पर जमीन का पुनर्वितरण करना होगा।

3. कृषि विकास की समस्या
कृषि विकास की समस्या भी काफी जटिल है। हमारे देश के शासकों ने शुरु से ही श्रम आधारित कृषि विकास की नीति की अवहेलना की। उसने प्राकृतिक खादों के प्रयोग व भूमि की उर्वरा शक्ति के संरक्षण एवं सिंचाई के साधनों के विस्तार पर जोर नहीं दिया। साम्राज्यवादियों व उनके सहयोगियों को फायदा पहुंचाने एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खादों, कीटनाशकों, बीजों व कृषि मशीनों, आदि के लिए बाजार मुहैया कराने के उद्देश्य से उसने कृषि क्षेत्र में पूंजी गहन विकास नीति थोन दी। इस नीति के तहत बड़ी-बड़ी सिंचाई व बिजली परियोजनाओं की शुरूआत की गई और 1968 में 'हरित क्रांति' के दौर मेें एच.वाई. भी बीजों, खेती के उच्च तकनीकों, काफी मात्रा में कृत्रिम खादों व कीटनाशकाें एवं आधुनिक कृषि मशीनों इस्तेमाल पर जोर दिया गया।
बहुराष्टीय कंपनियों द्वारा निर्मित उपर्युक्त कृषि आगतों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन करने के लिए बैंको से कृषि ऋण व तथाकथित सरकारी अनुदान की भी व्यवस्था की गई। इस 'हरित क्रांति' पंजाब व हरियाणा जैसे चुनिंदा राज्यों जहां सिंचाई व बिजली की स्थिति कुछ ठीक थी, में सकारात्मक असर पड़ा और गेंहूं व धान के उत्पादन में काफी वृध्दि हुई। लेकिन मात्र डेढ़ दशक के अंदर ही इसने अपना असली असर दिखाना शुरू किया। एक ओर बीजों खादों, कीटनाशकाें व कृषि उपकरणों के दामोें में काफी बढ़ोत्तरी हो गई और दूसरी ओर कृषि उत्पादों के दामों में कोई खास वृध्दि नहीं हुई। साथ ही फसलों के उत्पादन दर में भी कमी आई। उपर से सरकार ने डीजल के दाम एवं बिजली व सिंचाई की दरें भी बढ़ा दी और कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली 'अनुदान राशि' भी कम कर दी। इन सबों का मिलाजुला असर यह हुआ कि 'हरित क्रांति' के इलाके की खेती भी घाटे का सौदा हो गयी और दूसरे इलाके, जो इस तथाकथित 'हरित क्रांति' के दायरे में नहीं आ सके थे, वहां के किसानों की हालत और खराब हो गई। इस प्रकार 'हरित क्रांति' शासक वर्गों की एक ऐसी षड़यंत्रमूलक युक्ति साबित हुई, जिसने देश की कृषि को न केवल बहूराष्ट्रीय कंपनियों का चारागाह बना दिया, बल्कि उसे अलाभकारी भी बना दिया।
यहां भारत सरकार द्वारा दिये गये कृषि अनुदान की धोखा धड़ी को भी समझ लेना जरूरी है । भारत सरकार खेती-किसानी को अकुशल काम' का दर्जा देकर और किसानों-मजदूरों के हकदारी को लूट कर हर साल गांवों से करीब 5 लाख करोड़ रू. का शोषण करती है। इसी लूट से किसानों को भीख में एक टुकडे के रुप में करीब 50 हजार करोड़ रू. 'अनुदान' के रुप में थमा देती है। पुन: रसायनिक खादों में जो छूट मिलती है, उसका लाभ कारखानों के मालिकों को मिलात है। इसी तरह बिजली में छूट बिजली बोर्डों और अनाजो ंके रख-रखाब में छूट एफ.सी.आई. को मिलती है, न कि किसानों को। इस प्रकार 'कृषि-अनुदान' का सिध्दांत सरकारी झूठ व अन्याय पर आधारित है।
इसी प्रकार 'समर्थन मूल्य' का सिध्दांत भी एक सरकारी फरेब है। जब देश के किसानों व पूंजीवादी फार्मरों ने सरकार की किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाजें उठाई, तो उन्हेंं 'समर्थन मूल्य' का झुनझुना थमा दिया गया। लेकिन विभिन्न फसलों कि लिए तय किया गया न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) भी किसी काम का साबित नहीं हुआ। एक तो समर्थन मूल्य की दरें फसलों की बाजार दर से काफी नीची रखी गई एवं दूसरे कुछ सीमित राज्यों की सरकारों ने इस मूल्य पर फसलों की खरीदारी की। न्यूनतम समथर्[1]र्न मूल्य के निर्धारण में घपला किया गया क्योंकि कृषि लागत व मूल्य निर्धारण आयोग ने इसे निर्धारित करते वक्त किसानों के श्रम की उचित कीमत नही लगाई।
'हरित क्रांति' की विफलता के बाद जब कृषि संकट गहरा हो गया, तब सरकार ने खेती के विविधिकरण (यानी नगदी फसलों की खेती पर जोर देने) एवं 'निर्यातोन्मुखी खेती' का नारा दिया। इसके लिए सन् 2000 में राष्ट्रीय कृषि नीति घोषित की गई। जिसमें 'ठेका खेती' एवं 'निगमीकृत खेती' को बढ़ावा देने का प्रावधान किया गया। अब सरकारी कृषि पदाधिकारियों व विशेषज्ञों द्वारा किसानों को यह समझाया जाने लगा कि अगर खेती से लाभ उठाना है तो अपनी जमीनों को मान्सेन्टों, कारगिल व पेप्सी जैसी कंपनियों के हाथों में सौंप दो। आगे चलकर कृषि शोध के क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लगाया गया और स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक जी.एम. बीजों के खेती मे इस्तेमाल की इजाजत दी गईं।
हाल ही में भारत सरकार ने 'कृषि अनुसंधान एवं ज्ञान' के बारे में अमेरिका से एक काफी खतरनाक समझौता किया है। इस समझौते के तहत अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी को हमारे देश के कृषि अनुसंधान का एजेंडा तय करने का अवसर प्राप्त हो जाएगा। इसके पूर्व सरकार ने साम्राज्यवादी संस्थाओें के दबाव में पेमेंट कानून में दो बार सुधार किया है, और नये बीज विधेयक, जैव विविधता संरक्षण विधेयक, खाद्य सुरक्षा विधेयक आदि को सामने लाया है। वह मार्च, 2007 में एक नयी राष्ट्रीय किसान नीति की भी घोषणा करने वाली है जो राष्ट्रीय कृषि नीति, 2000 की तरह ही काफी खतरनाक होगी। इस प्रकार भारत सरकार किसान की भलाई एवं विकास के नाम पर भारतीय कृषि को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का गुलाम बना रही है।
4. कृषि व्यापार का मसला
कृषि व्यापार का मसला भी काफी संगीन है। जबसे सरकार ने निर्योतांमुखी कृषि के नारे अमन करना शुरू कर दिया है, कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घुसपैठ भी बढ़ी है। खासकर भारत सरकार के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद भारतीय कृषि पर साम्राज्यवादी ताकतो का शिकंजा काफी मजबूत हो गया है। विश्व व्यापार संगठन के दबाव मेंं भारत सरकार को अपनी आंतरिक बाजार नीति, आयात-निर्यात नीति एवं खरीद नीति मे बदलाव लाना पड़ा है ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा हो सके। 2001 में कृषि उम्पादों एवं प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर लगी क्रमश: 100 एवं 150 प्रतिशत सीमा शुल्क घटाकर 35 प्रतिशत तक कर दिया गया है।
उसके बाद विदेशों से बड़े पैमाने पर कृषि उम्पाद व खाद्य पदार्थ भारतीय बाजारों में भेजे जा रहे है। इतना ही नहीं, कृषि उपजों की खरीद में भी आई.टी.सी. कारगिल जैसी कंपनियां भाग ले रही है। पिछले साल इन कंपनियों ने भारी मात्रा में गेंहूं की खरीदारी की, नतजीतन सरकार को 55 लाख टन गेंहूं का आयात करना पड़ा है और निजी कंपनियों को भी भारी मात्रा में शुल्क मुक्त गेंहूं का आयात करने से छूट देनी पड़ी थी। ध्यान देने योग्य बात है कि सरकार ने गेंेहूं का समर्थन मूल्य 750 रू. क्विंटल तय किया है, जबकि विदेशों से वह 900-950रू. प्रति क्विंटल की दर से लाखों टन गेंहूं मंगा रही है। इसी तरह वह विगत कई सालों से ऊॅंची कीमतों पर दाल व खाद्य तेल का आयत कर रही है। हालांकि कुछ उम्दा किस्म के चावलों, फलाेंं व सब्जियाेंं, मछलियोें उवं जैविक उत्पादों का निर्यात भी किया जा रहा है, लेकिन कुल विदेशी कृषि उम्पादों के आयात की तुलना में उनकी भूमिका नगण्य है। यह स्थिति भारतीय कृषि के 'आत्मनिर्भरता' की अवधारणा की पोल खोल देती है। इतना ही नहीं आज फूड प्रोसेसिंग एवं फूड रिटेल के क्षेत्र में भी बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की घुसपैठ हो चुकी है। थोक व्यापार एवं गोदामाेंं के निर्माण मे 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी लगाने की छूट दी जा चुकी है, और अब सरकार खुदरा व्यापार में भी कम से कम 51 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की इजाजत देने जा रही है। साथ ही उसने कृषि निर्यात क्षेत्रों को भी मजबूत करने का फैसला लिया है।
इसके अलावा हाल ही में सरकार ने देश के विभिन्न भागों मे 'कमोडिटी एक्सचेंजाें' की स्थापना करवाई है जहां कृषि उत्पादों की सट्टेबाजी 'फ्यूचर ट्रेडिंग' (यानी वायदा कारोबार) के नाम से शुरू हो गई है। वायदा कारोबार में आमतौर पर अगले 3 से 6 माह तक की माल सुपूर्दगी का सौदा किया जाता हैं। इसमें मांग और पूर्ति के आधार पर किसी उत्पाद की कीमत तय नहीं की जाती, बल्कि शेयर बाजार की तरह इसमें सट्टेबाजी होती हैं, और उत्पादाेंं के दाम में कृत्रिम रुप से बढ़ोत्तरी की जाती है। इसका लाभ आम तौर पर किसानो को नहीं मिलता है, बल्कि इस कारोबार में लगे सटोरियों, दलालों और देशी-विदेशी कंपनियों को होता है। और आम उपभोक्ताओं को ऊंचे दाम पर कृषि उत्पाद खरीदने पर बाध्य होना पड़ता है।
इस साल गेंहूं की बाजार भाव में करीब डेढ़ गुणा की बढ़ोत्तरी में इसी वायदा करोबार की भूमिका मानी जाती है। नबंवर 2006 मे वायदा कारोबार में गेंहूं की कीमत 1114 रू. प्रति क्विंटल तय की गई है, जबकि इस साल ज्यादातर किसानों को अपना गेंहूं 700 से 800 रू. प्रति क्विंटल बेचना पड़ा है। एक आंकड़े के मुताबिक 'कमोडिटी एक्सचेंजो' का कुल व्यापार हमारी सकल राष्ट्रीय आय के बराबर हो गया है। ज्ञातव्य है कि अनाजों के इस सट्टा बाजार को ऑनलाइन सौदों के जरिये बढ़ाने एवं इसमे विदेशी सटोरियों को प्रवेश दिलाने के लिए सरकार संसद मेें एक बिल पास करने वाली है। साथ ही, वह जमीनों का भी ऑनलाइन सौदा करने पर विचार कर रही है। इस प्रकार भारत की साम्राज्यवादपरस्त सरकार हमारी कृषि, जो बहुसंख्यक जनता की जीविका का एकमात्र साधन है, जो एक व्यवसाय में तब्दील कर रही है और कृषि उत्पादों का व्यापार देशी-विदेशी सटोरियों के हाथों सौंप रही है। अब यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो रही है कि 'लाभ के लिए खेती' और 'खेत से बंदरगाह तक' की सरकारी अवधारणा कहीं से भी जनपक्षीय या किसानों के लिए हितकारी नहीं है। इसका मूल लक्ष्य खेती-किसानी पर बहुराष्ट्ररीय कंपनियों एवं कारपोरेट जगत के कब्जे को सुगम बनाना है।
सरकार की इस कृषि व्यापार नीति का सीधा नकारात्मक असर किसानों के सभी हिस्सों पर पड़ रहा है। खासतौर पर भूमिहीन, गरीब व मध्यम किसानों के बड़े हिस्से के लिए तो दो जून रोटी की जुगाड़ करना भी काफी मुश्किल हो गया है। पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के के जरिये इन जरूरतमंदों को काफी रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराये जाते थे। अब विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन के दबाव मेंें आकर इसके दायरे को काफी सीमित कर दिया गया है। सरकारी योजना आयोग के ही एक मूल्यांकन के मुताबिक अब गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों मेें से 57 प्रतिशत पी.डी.एस. के लाभ से वंचित हो गए है। इन गरीबों को, सरकार की खरीद व्यवस्था को विकेंद्रित कर, यानी स्थानीय स्तर पर अनाज खरीद कर व उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के वितरण केंद्रों में उपलब्ध कराकर, सस्ते दर पर या जो परिवार खरीदने की क्षमता नहीं रखते उन्हें मुफ्त में खाद्यान्नों को मुहैया कराना जरूरी है, ताकि कोई नागरिक भूखमरी का शिकार न हो।
वैसे तो सरकार द्वारा निर्धारित 'गरीबी रेखा' ही विवादास्पद है, चूंकि इसके निर्धारण में 'प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी' के आहार के स्थापित मानदंड को पूरी तरह तिलांजली दे दी गई है। विश्वसनीय गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक आज भी हमारे देश में कम से कम 50 प्रतिशत ग्र्रामीण लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करते है (जबकि सरकारी आंकड़े के अनुसार केवल 27.4 प्रतिशत) सरकार द्वारा इन गरीबो को दो जून रोटी मुहैया कराने के लिए आन्त्योदय योजना, भारत निर्माण योजना व राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम जैसी योजनाआें को कार्यान्वित करने का दावा किया गया है। एक तो इन योजनाओं को आधे-अधूरे मन से लागू किया गया है और इन्हें कार्यांवित करने के लिए उचित फंड आवंटित नहीं किए गए है, दूसरे जो भी योजनाएं लागू की गई है, उनमें बड़े पैमाने पर घोटाले हो रहे है। गरीबों को मिलने वाले लाखाें टन अनाज खुले बाजार मे बेंच दिए जाते है और इस प्रक्रिया मे सरकारी पदाधिकारी एवं उनके दलाल व बिचौलिये माला-माल होते है।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम को एक कानून का रुप देकर इस साल फरवरी में काफी तामझाम के साथ लागू किया गया, लेकिन अबतक इसका नतीजा भी काफी निराशाजनक रहा है। एक तो इसे केवल 200 चुनिंदा जिलों मे लागू किया गया और दूसरे इसके लिए काफी कम फंड मुहैया कराये गए। इसका नतीजा यह हुआ कि विभिन्न जिलों में करोड़ों जॉब कॉर्ड बने, लेकिन ज्यादातर ग्रामीण बेरोजगारों को न काम मिला न ही बेरोजगारी भत्ता। पुन: इस कार्यक्रम के तहत न्यूनतम मजदूरी की दर को प्रतिदिन 60 रू. तय किया गया है और प्रति परिवार केवल एक व्यक्ति के लिए 100 दिन काम देने की गारंटी की गई है। ज्ञातव्य है कि भारत सरकार के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा इकट्ठा किये गये आंकड़ों के अनुसार 2005-06 मेें ग्रामीण परिवारों के प्रति व्यक्ति औसत खर्च करीब 620रू. प्रतिमाह होता है। इस हिसाब से पांच लोगों के औसत परिवार का सालाना खर्च 37 हजार 2 सौ रू. बैठता है। अगर साल में काम के दिन 280 मान लें (छुट्टियों को छोड़कर) तो परिवार के भरण-पोषण के लिए प्रतिदिन 133 रू. की मजदूरी जरूरी हैं। ऐसी स्थिति मे रोजगार गारंटी कार्यक्रम के तहत आधे से भी कम, यानी 60 रू.रोज की मजदूरी तय करना अनुचित हैं।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा पत्र पर 1948 मे ही हस्ताक्षर किया है, जिसमें लिखा है कि किसी भी मजदूरी को इतनी मजदूरी दी जाए ताकि वह अपने पूरे परिवार का भरण्ा-पोषण कर सके। लेकिन 1949 में बने भारतीय संविधान में पारिवारिक मजदूरी की अवधारणा को शामिल नहीं किया गया और केवल 'निर्वाह-मजदूरी' की बात की गयी। फिर व्यवहार में एक ओर सरकारी संगठित क्षेत्र के मजदूरों/कामगारों के वेतन का निर्धारण 'एक कमाए पूरा परिवार खाए' की धारणा के आधार पर किया जाता रहा और दूसरी ओर संगठित क्षेत्र के मजदूरों, खास कर खेत मजदूरों के मामले में यह माना जाता रहा कि परिवार में कम से कम दो लोग काम करेंगे। यह ग्रामीण मजदूरों के प्रति सरकारी पक्षपातपूर्ण रवैया का एक जीता जागता उदाहरण है।
5. कृषि ऋण का सवाल
हमारे देश की कृषि के विकास के लिए चूंकि पूंंजी सघन खेती का रास्ता अपनाया गया, इसलिए शुरू से ही सरकारी बैंको, सहाकरी संस्थाओ और अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा कृषि ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई। साथ ही विभिन्न सरकारी कार्यालयों द्वारा अनुदान भी उपलब्ध कराये गए। लेकिन कृषि ऋण की शर्तें ऐसी बनाई गई कि वे किसानों के लिए काफी आत्मघाती साबित हुई। अंग्रेजों के जमाने से ही खेती-किसानी के लिए कर्ज की पूरी व्यवस्था दो कानूनों भूमि सुधार ऋण अधिनियम, 1883 एवं कृषक ऋण अधिनियम, 1884 के दायरे में आती है। इन कानूनों मे साफ तौर पर दर्ज है कि किसी भी स्थिति में चक्रवृध्दि ब्याज नहीं लगाया जायेगा। इसके बाद सूदखोरी को नियंत्रित करने के लिए सूदखोरी अधिनियम, 1918 बनाया गया। इस केंद्रीय कानून के तहत अनेक न्यायालयों ने खेती के लिए कर्ज पर चक्रवृध्दि ब्याज लगाने को सूदखोरी माना। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ग्रामीण भारत मेें जमीदारी की प्रथा के साथ-साथ साहूकारी के खिलाफ काफी जोरदार आंदोलन हुए। जब 1937 मेें पहली बार प्रांतों मेें चुनी हुई विधान सभायें गठित की गई, तो उन्होंने सबसे पहले साहूकारी पर अंकुश लगाने का काम किया। बिहार विधानसभा ने चक्रवृर्ध्दि ब्याज मूलधन से अधिक ब्याज को अवैध घोषित कर दिया। लेकिन आज 'आजाद भारत' की सभी साख संस्थायें उक्त कानूनों व फैसलों की अवहेलना कर कृषि ऋण पर धड़ल्ले से चक्रवृध्दि ब्याज लगा रही हैं ।
हाल के वर्षों में कुकुरमुत्ते की तरह पनपी माइक्रो फायनांस कंपपियां या सेल्फ हेल्प ग्रुप भी किसानों खेत मजदूरों व अन्य जरूरतमंदों से काफी ऊंची दरों पर सूद वसूल रहे है। एक तो राज्य ने सीधे ऋण देने की जिम्मेदारी से अपने हाथ खींच लिए और दूसरे बैंकों का ऋण भुगतान की जिम्मेवारी सौपते समय यह निर्देश दिए कि उपर्युक्त ऋण संबंधी कानूनों की भावनाओ का पालन किया जाये। इस मामले में सरकार के साथ-साथ भारतीय रिजर्व बैंक भी दोषी है। इतना ही नहीं केंद्र सरकार ने 1984 में बैंकिंग अधिनियम से संशोधन कर बैंकों को यह अधिकार दे दिया कि ब्याज के निर्धारण मेंं वे किसी राज्य के कर्ज या साहूकारी कानून उल्लंघन कर सकते है। उसमें यह भी प्रावधान किया गया कि अगर बैंक राज्य द्वारा निर्धारित ब्याज दर से अधिक ब्याज लगाता है, तो उसमें न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। इस तरह साहूकारी कानूनों का उल्लंघन करने वाली संस्थाओं को केंद्रीय कानून का संरक्षण मिल गया। इसके अलावा दीर्घकालीन कर्ज वसूली की मियादी भी 7-8 साल की कर दी गई, जो 1883 के भूमि सुधार ऋण अधिनियम में आम तौर पर 35 साल की थी।
सभी को पता है कि भारतीय कृषि प्रकृति के साथ जुए का खेल हैं। कभी बाढ़ से फसल मारी जाती हैं तो कभी सुखाड़ से। प्राय: हर साल देश के करोड़ों किसान बाढ़ या सूखा से तबाह हो जाते हैं और उनकी अरबों-खरबों की फसल व सम्पत्ति का नुकसान होता है। 60 सालों के 'भारतीय शासन' के बाद भी इस स्थिति को पलटा नहीं गया है और इन प्राकृतिक विपदाओं से कारगर ढंग से निबटने की कोई योजना नहीं बनाई गई है। सच्चाई तो यह है कि लालफीताशाही व भ्रष्टाचार के दौर में इन्हें अब 'मानव निर्मित विपदायें' कही जाने लगी है। उपर से किसानों को बाजार की मार तो पड़ती ही रहती है। ऐसी स्थिति में चक्रवृध्दि ब्याज के साथ कृषि ऋणों को समय पर चुकता करना असंभव है।
लेकिन सरकार उनकी इस बेचारगी पर तनिक भी ध्यान नहीं देती हैं और कर्ज की वसूली के लिए उनकी संपत्ति कुर्की करती हैं और उन्हें सिविल जेल में डाल देती है। इस तरह अन्नदाता किसान को राजसत्ता द्वारा अपमानित व आतंकित किया जाता हैं। आज की तारीख में उद्योगपतियों पर करीब डेढ़ लाख करोड़ का कर्ज है और सरकार ने उनमें से 45 हजार करोड़ रू. को बट्टे खाते में डालकर माफ भी कर दिया है। लेकिन देश के किसानों पर तो कुल 25000 करोड़ रू. के कर्ज है, जिन्हें वह रद्द नहीं कर रही है। इतना ही नही सरकार हर साल बड़े-बड़े उद्योगपतियों व निर्यातकों को अरबों रूपये की छूट देती है, लेकिन किसानों से ऋण वसूली के मामले में सख्ती से पेश आती है। सरकार के इस पक्षपातपूर्ण व्यवहार से किसानों के मनोबल का टूटना लाजिमी है।
किसानों का एक बड़ा हिस्सा है जिनकी बैंक व सहकारी संस्थाओं में कोई पूछ नहीं होती है। ऐसी हालत में कर्ज की जरूरत पड़ने पर उन्हें गांव के ही साहूकारों एवं पास के कमीशन एजेंटो का दामन थामना पड़ता है। ये साहूकार व कमीशन एजेंट किसानों से गैर कानूनी तरीके से मनमाना सूद (40 प्रतिशत से 100-125 प्रतिशत तक सालाना की दर से) वसूलते है। समय पर मूल व सूद नहीं चुकाने पर वे किसानों पर तरह'-तरह के जुल्म ढाते हैं और उनकी संपत्तियां भी जब्त कर लेते है। इस तथाकथित लोकतांत्रिक भारत में आज देश के प्राय: सभी हिस्सों में इन जालिम सूदखोरों का निरंकुश राज चल रहा है। सरकार, पुलिस और न्यायपालिका उनके द्वारा किसानों पर ढाये जाने वाले अमानवीय व बर्बर जुल्माें-सितम को रोकने हेतु कोई कारगर कदम नहीं उठा रही है।
देश के कुछ खास इलाकों में जनवादी व क्रांतिकारी किसान आंदोलनों के जरिये इन आततायी साहूकारों व कमीशन एजेंटों के खिलाफ आवाजें उठाई गई हैैं, लेकिन इस मुद्दे पर देश स्तर पर आंदोलन जरूरी है। यही कारण है कि सरकारी व निजी कर्जों के बोझ से दबे किसान (खासकर छोटे व मध्यम श्रेणी के) आज अपने को असहाय महसूस कर रहे है और जिल्लत व जहालत की अपनी जिंदगी से मुक्ति के लिए जहर पीकर या फांसी का फंदा लगाकर आत्महत्या कर रहे है। बिडम्वना है कि अपने को किसानों-खेत मजदूरों का हितैषी कहने वाला शासक वर्ग व उसकी केंद्र व राज्य सरकारें आज उनकी जान बचाने, और उन्हें खेती में टिकाये रखने पर जोर देने के बजाय एग्री बिजनेस सेंटर, एग्री एक्सपोर्ट जोन, एग्री प्रोसेसिंग जोन, फूड पार्क व स्पेशल इकॉनामिक जोन बनाने में मशगूल है।
6. स्पेशल इकॉनामिक जोन (सेज) का कहर
केंद्र सरकार ने किसानों की जमीनों पर देशी-विदेशी कंपनियाेंं का कब्जा दिलाने के लिए स्पेशल इकॉनामिक जोन एक्ट 2005, यानी विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून, 2005 को पारित किया हैं। आगे चलकर इसने विशेष आर्थिक क्षेत्र नियमावली, 2006 भी बनाया है। इस नये कानून के तहत 20 सितंबर, 2006 तक 267 विशेष आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण की मंजूरी दी जा चुकी है। इसके अवाला अन्य 200 से अधिक ऐसे क्षेत्रों के निर्माण के आवेदन 'बोर्ड ऑफ अप्रूवल' के पास विचाराधीन है। ज्ञातव्य है कि 23 अगस्त, 2006 को सरकार ने 150 विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की अधिकतम सीमा को भी हटा लिया है। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों मे 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने की छूट दी गई है। वास्तव में ये 'विशेष जोन' हमारे देश की धरती पर 'विदेशी जोन' की तरह काम करेंगे। इन क्षेत्रों पर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पूर्ण नियंत्रण होगा। वहां आमतौर पर हमारे देश के श्रम कानून लागू नहीं होंगे। इन क्षेत्रों में स्थापित कंपनियों को आयात-निर्यात में कई प्रकार की रियायतें दी जाएगी। वहां कच्चे मालों व मशीनों के आयात पर किसी प्रकार के कर नहीं लगेंगे। साथ ही इन क्षेत्रों में लगी हुई कंपनियां जल एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना दोहन करेंगी और पर्यावरण व पारिस्थितिकी को काफी नुकसान पहुंचायेंगी।
वित्त मंत्रालय का अकालन है कि इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों को जो कर रियायतें दी जायेंगी उससे करीब 1.75 लाख करोड़ रू. का राजस्व घाटा होगा। जाहिर है कि इसका सीधा नकारात्मक असर ग्रामीण विकास एवं अन्य कल्याण्ाकारी योजनाओं पर होगा। ध्यान देने योग्य बात है कि इन 'विदेशी जोनों' में से एक खास उम्र तक (18 से 30 साल) के युवक-युवतियों को ही काम मिलेगा। इस प्रकार वहां युवा पीढ़ी का जैविक शोषण भी होगा और उन्हें तरह-तरह विकृतियों का शिकार भी बनाया जायेगा। ज्ञातव्य है कि चीन के बहुचर्चित विशेष आर्थिक क्षेत्र सेंजेन में एड्स के रोगियों की वृध्दि दर सबसे अधिक है। सरकार का दावा है कि इन क्षेत्रों के निर्माण्ा से बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश होगा, जिससे अर्थव्यवस्था का चौतरफा विकास होगा और 1 लाख 10 हजार लोगों को रोजगार मिलेगा। सच्चाई यह है कि इन क्षेत्रों में जितना रोजगार मिलेगा उससे कई गुना अधिक किसानों व खेत मजदूरों व ग्रामीण दस्तकारों की जीविका छिन जाएगी। ज्ञातव्य है कि केवल 67 बहु-उत्पाद विशेष आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के लिए कुल 1 लाख 34 हजार हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित की जा रही है। हरियाणा सरकार केवल रिलायंस कंपनी को 25 हजार एकड़ खेती की उन्नत जमीन सुपूर्द कर रही है। इसी तरह दिल्ली एवं आस-पास के राज्यों मेंं करीब 3 लााख एकड़ जमीन देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले किया जाना है। इस प्रकार ये विशेष आर्थिक क्षेत्र खेती-किसानी के उपर एक विशेष कहर के रुप में थोपे जा रहे है, जिनका हर संभव तरीके से विरोध किया जाना चहिए।
सुस्पष्ट है कि केंद्र सरकार कृषि एवं इस पर आश्रित बहुसंख्यक आबादी को पूरी तरह बर्बाद व तबाह करने पर तुली हुई है। चाहे केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो, या संयुक्त मोर्चा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या वामदल समर्थित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की, सबों ने कृषि के क्षेत्र में प्राक-पूंजीवादी-आर्थिक-सामाजिक संबंधों को बरकरार रखने एवं पूंजीवादी-साम्राज्यवादी लूट-खसोट को बढ़ावा देने की नीतियों पर अमल किया है। खासकर नई आर्थिक नीतियों को अपनाने एवं विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद एक ओर कृषि सहायता मे व्यापक कटौती की है और दूसरी ओर खादों, बीजों, कीटनाशकों एवं कृषि उपकरणों के दामों मेंं काफी वृध्दि हुई है। इतना ही नहीं, सिंचाई कि साधनों एवं बिजली के उत्पादन व वितरण को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। किसानों को बैंकों व अन्य सार्वजनिक संस्थाओें से सस्ती दरों पर ऋण दिलाने की लंबी-चौड़ी बातें की गई, लेकिन असल में बहुसंख्यक किसानों को महाजनों, सूदखोरों व कमीशन एजेंटो से काफी ऊंची दरों पर ऋण लेने को बाध्य होना पड़ा है। नतीजतन 'हरित क्रांति' के गढ़ पंजाब व हरियाणा एवं नगदी फसलों को उपजाने वाले आंध्र, महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। इसके अलावा बिहार, झारखंड, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, उत्तरांचल एवं उत्तर-पूर्व के राज्यों की फसलें प्राय: हर साल बाढ़, सुखाढ़ व कीड़ाखोरी आदि से बर्बाद हो रही है। लेकिन इन विपदाओं से प्रभावित किसानों व खेत मजदूरों को उचित मुआवजा देने की कोई कारगर व्यवस्था नहीं की गई है।
इसी प्रकार फसल बीमा योजना को लागू करने के लंबे-चौड़े दावे किए गए है, लेकिन किसानों को इसका लाभ नहीं के बराबर मिला है। केंद्र सरकार अंतराष्ट्रीय साम्राज्यवादी संस्थाओं के दबाव में न्यूनतम समर्थन मूल्य व सरकारी खरीद की योजना एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त करने की कोशिश कर रही है। विश्व व्यापार संगठन की शर्तों पर काफी ऊंची दरों पर विदेशों से लाखों टन खाद्यान्नों के आयात किए जा रहे है और देश के किसानों की उपज का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है। कृषि-उत्पादन दर में हर साल गिरावट हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाखों एकड़ मैदानी व जंगली जमीनों को औने-पौने भाव मेंं सुपूर्द करने के लिए भूमि हदबंदी कानून को पलटा जा रहा है। वन संरक्षण, खनिज-उद्योग विकास, फील्ड फायरिंग रेंज निर्माण,भीमकाय इस्पात व अन्य उद्योगों की स्थापना, बड़े-बड़े बांधों व जलाशयों के निर्माण एवं बिजली परियोजनाओं के कार्यान्वयन और अब विशेष आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के नाम पर लाखों आदिवासियाें व ग्राम्यावासियों को विस्थापन की मार झेलनी पड़ रही है। परिणामस्वरुप जनता के एक विशाल हिस्से को रोजी-रोटी की तलाश मेंं दर-दर ठोकरें खाने को बाध्य होना पड़ रहा है।
लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। सरकार की जन विरोधी व किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार जुझारू संघर्ष चलाये जा रहे है। हरियाणा के करीब एक दर्जन किसानों ने बिजली के सवाल पर लड़ते हुए अपनी जानें कुर्बान की है। सिंचाई व पीने के लिए पानी की मांग को लेकर राजस्थान के किसान लगातार जुझारू आंदोलन चला रहे है और उसमेंं अपनी जान भी कुर्बान कर रहे है। उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के आदिवासी किसान अपने जंगल व जमीन की रक्षा कि लिए एवं बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन के खिलाफ जोरदार संघर्ष कर रहे है। कोयलकारो परियोजना के खिलाफ लड़ते हुए झारखंड कि आदिवासियों ने अपनी जानें कुर्बान की है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के दर्जनों मजदूर अपनी रोजी-रोटी की रक्षा में पुलिस की गोलियों के शिकार हुए है। हाल ही में कलिंगानगर के 13 आदिवासियों ने अपनी जमीन की रक्षा में शहादतें दी। बिहार के किसानों व खेत मजदूरों ने जमीन पर अपने अधिकार एवं न्यूनतम मजदूरी की प्राप्ति के लिए सैंकड़ों संख्या में कुर्बानी दी है। इसी तरह कर्नाटक में मेसोंटा व कारगिल जैसी अमेरिकी बीज कंपनियों के खिलाफ जोरदार संघर्ष चलाये गए है। पंजाब, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर-प्रदेश व अन्य राज्यों में सिंचाई, बिजली व फसलों को लाभकारी मूल्यों के मुद्दों को लेकर लगातार किसान संघर्ष चलाये जा रहे है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में बड़ी-बड़ी कंपनियों को सरकार द्वारा जीवन मुहैया कराने के खिलाफ भी लोग उठ खड़े हुए है।
लेकिन उपर्युक्त राज्यों में विभिन्न मुद्दों व मांगों को लेकर जो संघर्ष चल रहे हैं वे आमतौर पर स्वत:स्फूर्त है और उनमें आपसी तालमेल का भी काफी अभाव है। जरूरत इस बात की है कि उनके बीच उचित तालमेल बिठाया जाये, और उन्हें देश स्तर पर समन्वित व मोर्चाबध्द किया जावे। केवल तभी कृषि क्षेत्र में बढ़ती लूट-खसोट को रोका जा सकता है और खेती-किसानी का तबाह व बर्बाद होने से बचाया जा सकता है। सही दिशा में संचालित देशव्यापी जनतांत्रिक व क्रांतिकारी किसान आंदोलन ऐसा आधार का काम करेगा, जिस पर लोक जनवादी सत्ता व व्यवस्था का ढांचा खड़ा किया जा सकता है। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें खेती-किसानी को कुशल काम का दर्जा मिलेगा। किसानों को न्यायपूर्ण हकदारी प्राप्त होगी और जो जोते उसकी जमीन की अवधारणा की पुनर्प्रतिष्ठा होगी। इसमेें कृषि ऋण की संगत शर्तें होंगी, गांव-शहर के बीच की असमानता समाप्त होगी और काम के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया जायेगा।
आइये हम इस प्रकार की लोक सत्ता की स्थापना के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए निम्नलिखित मांगों को लेकर देशव्यापी किसान आंदोलन संगठित करें :
1. खेती-किसानी का काम एक 'कुशल काम' का दर्जा प्रदान करो एवं कृषि क्षेत्र को लाभकारी बनाये रखने के लिए योजना व्यय मेें कम से कम 15 प्रतिशत हिस्सा इस क्षेत्र के लिए सुनिश्चत करो।
2. किसान विरोधी राष्ट्रीय कृषि नीति, पेटेण्ट कानून, बीज विधेयक, सेज कानून, व सेज रूल्स एवं अन्य कानूनों को रद्द करो और किसानों के हित मेें ऋण कानूनों को संशोधित करो।
3. सीलिंग कानून, बटाईदारी कानून व अन्य भूमिसुधार कानूनों को सख्ती से लागू करो और सभी भूमिहीनों को कम से कम दो एकड़ जमीन मुहैया करो।
4. सभी कृषि उपजों के लिए लाभकारी मूल्य तय करो एवं सरकारी खरीद व्यवस्था को और ज्यादा विकेंद्रित, सुदृढ़ व व्यापक बनाओ।
5. कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की गारंटी करो एवं उन के लिए एक केंद्र्रीय मजदूरी कानून पारित करो। बंधुआ, अर्ध्द बंधुआ व बाल मजदूरी पर रोक लगाओ।
6. काम के अधिकार को मौलिक अधिकार मे शामिल करो एवं राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून को देश के सभी जिलों में कारगर ढंग से लागू करो। इस रोजगार गारंटी कानून के तहत 60 रू. की जगह 133 रू. मजदूरी की गारंटी करों।
7. विश्व व्यापार संगठन से बाहर आओ, कृषि सब्सिडी में बढ़ोत्तरी करो और खाद्यान्नों का आयात बंद निकालो।
8. कृषि के सभी क्षेत्रों- उत्पादन, अनाजों की खरीद व व्यापार आदि से सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाहर करो।
9. कृषि उत्पादों का वायदा कारोबार बंद करो और अनाजों के थोक व खुदरा व्यापार एवं फुड रिटेल बिजनेस में विदेशी पूंजी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घुसपैठ पर रोक लगाओ।
10. किसानों के सभी पुराने कर्जों को रद्द करो। सस्ते दर, यानी 4 प्रतिशत सालाना दर पर असल ब्याज की व्यवस्था करो। मूलधन से अधिक ब्याज लेने वालों को दण्डित करो। दीर्घकालीन ऋणों की मियाद कम से कम 35 वर्षों तक निश्चत करो और निर्धारित समय पर कर्ज अदा न करने वाले किसानों की संपत्ति जब्त करने व उन्हें सिविल जेल में डालने और किसी अन्य प्रकार से अपमानित व प्रताड़ित करने की कर्रवाईयों को प्रतिबंधित करो।
11. कर्ज के बोझ व घाटे की खेती से परेशान होकर आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों उचित मुआवजा दो और सूदखोरों व कमीशन एजेण्टों से उनके जान-माल की सुरक्षा की गारंटी करो।
12 किसानों के लिए सस्ते दर पर खाद, बीज, कीटनाशक दवा, सिंचाई, बिजली व कृषि उपकरण आदि की समुचित व्यवस्था करों।
13. बाढ़, सुखाढ़ व कीड़खोरी, आदि विपदाओें से निबटने का कारगर उपाय करो। फसल बीमा योजना को सख्ती के साथ सभी इलाकों में लागू करो और विभिन्न आपदाओं से हुई फसलों की क्षति का उचित मुआवजा दो।
14. जीन संबंधित बीजों (जी.एम.सीड्स) के उतपादन, बिक्री व खेती में इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगाओ।
15. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे को व्यापक बनाओ, इनके वितरण केंद्राें के लिए स्थानीय पैमाने पर अनाजों की खरीद करो और सभी जरूरतमंद परिवारों को सस्ते दर पर राशन मुहैया करो।
16. कृषि शोध विज्ञान व तकनीक के विकास पर उचित ध्यान दो, और अमेरिका के साथ किए गए 'कृषि शोध व ज्ञान पहल' समझौता रद्द करो।
17. आदिवासियों व वनवासियों के अपने जंगल पर अधिकार की सुरक्षा गारंटी करो।
18. बड़ी-बड़ी कंपनियों को बड़े पैमाने पर जमीन मुहैया कराने के लिए भूमि सुधार कानूनों में संशोधन बंद करो। गैर-कृषि पेशों में लगे धनिकों द्वारा खेती की जमीन की खरीदगी व पट्टे पर लेने की कार्रवाई पर रोक लगाओ। ठेका खेती व कॉरपोरेट खेती बंद करो। 'एक व्यक्ति एक पेशा' की अवधारणा को लागू करो।
19. एम.एस. स्वामिनाथन के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों और प्रस्तावित नई राष्ट्रीय किसान नीति के प्रारूप पर सार्र्वजनिक बहस चलाओ। जनपक्षीय किसान संगठनों की सहमति लिए बगैर राष्ट्रीय किसान नीति घोषित करने की प्रक्रिया बंद करो।
20. कृषि व ग्रामीण विकास की सभी योजनाओं को कार्यन्वित करने में लोकसत्ता की सार्वभौम शक्ति को मान्यता दो। कोई भी परियोजना- चाहे छोटी हो या बड़ी, लोकसत्ता की सहमति के बाद ही कार्यन्वित करो।

No comments: