कान्ट्रैक्ट खेती क्या है ?भारत सरकार ने कृषि विकास हेतु व्यापक परिप्रेक्ष्य में सन् 2000 में राष्ट्रीय कृषि नीति घोषित की। राष्ट्रीय कृषि नीति में कान्ट्रेक्ट खेती का भी प्रावधान किया गया है। यह उल्लेख किया गया है कि कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को कान्ट्रेक्ट खेती और पट्टे पर भूमि देने की व्यवस्था द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा। कान्ट्रेक्ट खेती को प्रसंस्करण एवं विपणन फर्मों तथा कृषकों के मध्य समझौते के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है। कान्ट्रेक्ट खेती के अनुसार कृषक अपनी जोत पर कान्ट्रेक्ट करने वाली कम्पनी द्वारा बताई गई फसल बोयेगा तथा कान्ट्रेक्ट करने वाली फर्म द्वारा बीज, खाद उर्वरक एवं तकनीक की आपूर्ति की जायेगी। कृषक की सम्पूण उपज ठेकेदार कम्पनी द्वारा खरीद ली जायेगी। इससे प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और पूंजी का अंतर्प्रवाह बढ़ेगा तथा तिलहन, कपास और फल की फसलों के लिये सम्यक बाजार उपलब्ध हो सकेगा। ऐसा दावा कृषि नीति में किया गया है। इस प्रकार यह कृषकों और कम्पनियों के बीच अग्रिम करार के अंतर्गत कृषि अथवा बागवानी उपजों के उत्पादन तथा आपूर्ति की एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था की विशेषता यह है कि इसमें कृषक निश्चित प्रकार की कृषि-उपज पूर्वत: निश्चित कीमत और समय पर पैदा करने के लिए वचनबध्द होता है। पूर्वत: निर्धारित कीमत, फसल की गुणवत्ताा और मात्रा/एकड़ तथा समय कान्ट्रेक्ट खेती के प्रमुख तत्व होते हैं। कंपनियों, कृषकों एवं फसलों के विभिन्न प्रकार कान्ट्रेक्ट की पृथक-पृथक शर्तें तथा विभिन्न क्षेत्रों की सामाजिक दशा में अंतर के कारण कान्ट्रेक्ट खेती के स्वरूप में भी स्थान-स्थान पर अंतर पाया जाता है। अत: कान्ट्रेक्ट खेती के स्वरूप का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है। उसका स्वरूप विभिन्न घटकों की क्रियाशीलता के कारण परिस्थिति सापेक्ष होता है। परन्तु कुछ अंतर्निहित तत्व सभी स्थानों पर पाये जाते हैं।
इस प्रक्रिया में कृषकों और पट्टेदार के बीच कृषि जोत को लेकर कान्ट्रेक्ट होगा। कान्ट्रेक्ट अवधि के लिये जोत लगान पर या पट्टे पर कम्पनियों को दी जा सकती है। कान्ट्रेक्ट के अनुसार कृषक को अपनी भूमि पर कान्ट्रेक्ट करने वाली फर्म की फसल उगाना पड़ता है। कान्ट्रेक्ट भूमि की उपज कृषक पूर्व निर्धारित कीमत पर कान्ट्रेक्टर को देता है। कान्ट्रेक्टर व्यक्ति या फर्म कृषक को प्राविधिक जानकारी सहित अन्य सभी आगतें उपलब्ध कराता है। कृषक अपनी भूमि और श्रम देता है। भूमि पर उगायी जाने वाली फसलों की प्रकृति, प्रयुक्त तकनीक तथा खेती में होने वाले बदलावों के अनुसार कान्ट्रेक्ट की शर्ते व प्रकृति बदलती है। यह तर्क दिया जाता है कि कृषकों को बहुधा लाभदायक कीमतें नहीं मिल पाती है और कभी-कभी उन्हें अत्यन्त नीची कीमतों पर अपना उत्पाद बेचना पड़ जाता है। दूसरी ओर कृषि आधारित उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में गुणवत्ताा युक्त कृषि उत्पाद नहीं मिल पाता है। कृषि परिदृश्य का यह विरोधाभास कान्ट्रेक्ट कृषि की अवधारणा को बल देता है। इससे खेत बाजार में सम्यक सह सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। बड़े कृषि फार्मों पर पूंजी प्रधान उन्नत कृषि विधियों, उन्नत कृषि उपकरणें और आगतों के प्रयोग से उचित मूल्य वाली फसलों का उत्पादन और पौध संरक्षण विधियों का प्रयोग होने से उत्पादन बढ़ेगा। खेती का निगमीकरण हो जायेगा खेती सम्बन्धी सभी निर्णय तथा फसलों के चयन कृषि के तौर-तरीके, प्रौद्योगिकी के प्रयोग और कृषि निवेश सम्बन्धी निर्णय तथा बाजार सम्बन्धी निर्णय बड़ी कृषि कम्पनियों द्वारा लिये जायेंगे।
बड़ी कम्पनियों की विशेष दिलचस्पी कुछ उदाहरणकृषि नीति, के विविध प्रावधानों में से कान्ट्रेक्ट खेती से सम्बन्धित प्रावधान के प्रति बड़ी कम्पनियों में अत्यधिक उत्साह है। कम्पनियाँ कान्ट्रेक्ट खेती की ओर अग्रसर हैं। पेप्सी कम्पनी इस दिशा में पहले से ही अग्रसर है। पेप्सी फूड्स लि. कम्पनी से जुड़ी पेप्सी कोला नामक कम्पनी ने 1989 में पंजाब के होशियारपुर जिले के जाहरा गांव में 20 करोड़ रुपये की लागत से टमाटर का प्रसंस्करण करने का संयंत्र लगाया और पंजाब में कान्ट्रेक्ट खेती आरम्भ की। कम्पनी ने इससे उत्साहित होकर पंजाब के जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर और संगरूर जिलों तथा पश्चिमी उत्तार प्रदेश के कुछ भाग में बासमती चावल, आलू और मूंगफली की खेती भी आरंभ की। अपाची काटन कम्पनी ने वर्ष 2002 में तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले के कि नाथकडाऊ विकास खंड में कृषकों को कपास बोने के लिये सहमत किया। उत्तारी कर्नाटक में कृषक गन्ना की फसल पर केन्द्रित थे। गन्ने की बार-बार सिंचाई होने के कारण भूमि क्षारीय हो रही थी। इसका लाभ उठाकर न्यूगार शुगर वक्र्स लिमिटेड ने कृषकों को जौ की खेती के लिये प्रोत्साहित किया। उसे अपनी कम्पनी के लिये जौ की आवश्यकता थी। इससे कम्पनी को आस-पास जौ मिलने लगा तथा उत्तार भारत से जौ मंगाने पर लगने वाली अधिक यातायात लागत बच गयी। मध्य प्रदेश में हिन्दुस्तान लीवर, रल्लीज और आई.सी.आई.सी.आई द्वारा सम्मिलित रूप से गेहूँ की खेती कराई जा रही है। इस व्यवस्था में रल्लीज कृषि और प्राविधिक सलाह और आई.सी.आई.सी.आई कृषि साख उपलब्ध करता है। हिन्दुस्तान लीवर उनकी उपज खरीदती है। इससे कृषकों को सुनिश्चित बाजार, हिन्दुस्तार लीवर को गुणवत्ता युक्त उत्पादन तथा रल्लीज एवं आई.सी.आई.सी.आई को सुनिश्चित ग्राहक मिल जाते हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तार प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात में कई स्थानों पर संविदा कृषि होने लगी है। दक्षिण भारत में कई स्थानों पर मसाले के उत्पादन हेतु कान्ट्रेक्ट खेती की जा रही है। रिलायंस कम्पनी कान्ट्रेक्ट फार्मिंग के आधार पर अनाज फल, मसाले, सब्जियां आदि की खेती के लिये हरियाणा में अग्रसर है। पश्चिम बंगाल और असम में चाय की कान्ट्रेक्ट खेती आरंभ की है।
कांट्रेक्ट खेती का विज्ञापनकान्ट्रेक्ट खेती वस्तुत: बहुराष्ट्रीय निगमों की कृषि प्रणाली के समान है। इसमें भूमि का नाम मात्र का स्वामित्व कृषकों के पास रहेगा। निर्णय का असली अधिकार कम्पनी के पास हो जायेगा। कृषि कार्य आधुनिक कृषि यंत्रों की सहायता से किराये के श्रमिकों द्वारा किया जायेगा। अधिकांश उत्पादन बाजार के लिए होता है, विशेष रूप से व्यापारिक फसलों का उत्पादन किया जाता है। उपज को बाजार एवं उपभोग योग्य बनाने के लिए प्रसंस्करण्ा इकाइयाँ होती हैं। अत: इन निगमों का कृषि फार्म एक कृषि और औद्योगिक संस्थान होता है। उपयुक्त मशीनें और अन्य उत्पादन के साधन प्राप्त हो जाते हैं। फलत: कृषि परम्परावादी नहीं रह जाती है। एक स्थान पर मुख्य रूप से एक विशेष फसल का उत्पादन होता है जिससे उस फसल के गुण और मात्रा में वृध्दि हो जाती है और बड़े पैमाने की कृषि के समस्त लाभ प्राप्त हो जाते हैं। कृषि विकास एवं नवीनीकरण की सम्भावना बनी रहती है और भूमि का अधिकतम दोहन होता है। कृषि में उन्नत तरीकों को प्रोत्साहन मिलता है। बाजार में विस्तार, उद्योगों के विस्तार को प्रोत्साहित करेगा तथा यातायात और संचार के साधनों में सुधार होगा। कृषि कार्य अब अधिक पूंजी की अपेक्षा करने लगा है। नवीन कृषि निवेशों के लिये अधिक पूंजी की आवश्यकता होने लगी है। अत: कम्पनियों की कृषि प्रणाली उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने के लिये उपयोगी है। परन्तु वास्तविक एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में कान्ट्रेक्ट खेती में गंभीर विसंगतियां हैं जिनके कारण इसे कृषि प्रणाली के रूप में अंगीकृत नहीं किया जा सकता है।
कान्ट्रेक्ट खेती से खेती और किसानों को हानियाँइस प्रणाली में कृषि उत्पादन मुख्यत: व्यापारिक फसलों का होगा। फसल प्रारूप एवं फसल संरचना में अभी ही व्यपारिक फसलों के अंतर्गत क्षेत्र बढ़ने लगा है, यह प्रवृत्तिा बढ़ेगी। भारत में खाद्य पदार्थों की अत्यधिक आवश्यता बनी रहती है। यदि देश की अधिकांश भूमि पर व्यापारिक फसलों का ही उत्पादन होगा तो हमारी खाद्य समस्या अधिक जटिल हो जायेगी और अनाज के लिये पुन: हमें विदेशों पर निर्भर रहना पड़ेगा। कान्ट्रेक्ट खेती में भूमि के स्वामी कृषक को कृषि क्षेत्र पर कार्य के बदले मात्र कीमत मिलती है। युनाइटेड प्राविन्सेज की जमींदारी उन्मूलन समिति में भी इस प्रणाली की इन्हीं आधारों पर अनुपयुक्तता बताई गई थी। वह पध्दति जो किसानों को उनके वास्तविक अधिकारों से वंचित कर देती है, उन्हें औद्योगिक श्रमिक की स्थिति में घटा कर ला देती है और उन्हें पूँजीवादी शोषण का विषय बना देती है, वह विचार योग्य नहीं। कान्ट्रेक्ट खेती का लक्ष्य उत्पादन एवं लाभ को अधिकतम करना होता है। वह भूमि की उर्वरा शक्ति का अधिकतम शोषण करता है जिससे भूमि के स्वाभाविक गुण धर्म में ह्वास होता है। वर्तमान कृषि प्रणाली का यह भी दायित्व है कि आगामी पीढ़ी के लिये समुन्नत भूमि संसाधन हस्तांतरित करे जो भूमि संसाधन के अतिशोषण के कारण सम्भव न हो सकेगा।
ऍंग्रेजी शासन का कटु अनुभवअंग्रेजों के शासनकाल में कम्पनियों द्वारा कृषि चाय बागानों, कहवा और रबर बागानों तथा नील की खेती के रूप में आरंभ हुई। चाय बागानों के मजदूरों की खराब दशा पश्चिम बंगाल और असम में देखी जा सकती है। नील की खेती के लिये अंग्रेजों ने 'तिनकठिया व्यवस्था' लागू की थी जिसके अनुसार प्रत्येक कृषक को अपनी भूमि के 3/20 भाग पर नील की खेती अवश्य करनी था। अत्याचार के भय से कृषक इससे अधिक भाग पर ही नील की खेती करते थें नील की खेती करने वालों की दुर्दशा और निलहों की कार्यशैली पर व्यंग करते हुये 1860 में दीनबन्धु मित्रा ने 'नील दर्पण' नामक नाटक लिखा था। महात्मा गांधी ने दक्षिणी अफ्रीका से लौटने के बाद चम्पारन जिले में नील के काश्तकारों और मजदूरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठायी और वहीं से देश के स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुये। कम्पनी कृषि के अनुभव अत्यन्त खराब रहे हैं।यदा कदा यह पाया गया है कि कान्ट्रेक्ट खेती से कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया, उन्हें स्थायी आय के स्रोत प्राप्त हुये। रोजगार के अधिक अवसर सृजित हुये तथा कृषकों को कृषि की नवीन एवं अधिक कुशल तकनीक ज्ञात हुयी। परन्तु सामान्य रूप से कान्ट्रेक्ट खेती के परिणाम हानिकारक रहे हैं। यह पाया गया है कि कान्ट्रेक्ट की शर्तें पक्षपात पूर्ण एवं बहुधा कृषक विरोधी होती हैं और उन्हें कड़ाई के साथ लागू किया जाता है। कम्पनियां कृषि उपज की नीची और अपनी सेवाओं की ऊँची कीमतें निर्धारित करती हैं। उपज की कीमत भुगतान करने में विलंब करती हैं। प्राकृतिक आपदा, प्रतिकूल मौसम एवं अन्य कारणों से कृषि में नुकसान की कम्पनियां क्षतिपूर्ति नहीं करती है। भू-गर्भ जल का अतिदोहन, मिट्टी में क्षारीयता बढ़ना, भूमि की उर्वरता में ह्वास, पारिस्थितिक ह्वास एवं संसाधनों का बर्बर दोहन कान्ट्रेक्ट खेती प्रणाली की सामान्य बात है। कान्ट्रेक्टेड भूमि की उर्वरता कम हो जाने और क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो जाने के बाद कान्ट्रेक्टर फर्में नये क्षेत्रों में कान्ट्रेक्ट करती हैं। कृषकों की सौदा करने की शक्ति कम होती है। अत: कान्ट्रेक्ट खेती में अधिक लाभ फर्मों को प्राप्त होता है। कृषि साख एवं अन्य कृषि आगतों की प्राप्ति के लिये कृषक पराश्रित हो जाते हैं। कृषक एवं कान्ट्रेक्ट फर्मों में आरंभ में सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण होते हैं परन्तु कुछ समय बाद ही उनमें कटुता उत्पन्न हो जाती हैं।
बड़ी कंपनियों में जमीन पर कब्जा करने की होड़वस्तुत: निगमीय कृषि करने वाली कम्पनियाँ राष्ट्रीय कृषि नीति के शब्दों का पालन कर रही हैं, उसकी भावना का नहीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनआकांक्षाओं, आंदोलनों और कार्यक्रमों को ध्यान में रख कर आर्थिक न्याय की दृष्टि से जमींदारी उन्मूलन एवं जोत सीमाबन्दी के कानून विभिन्न राज्यों मे पारित किये गये। आज उन कानूनों को राज्य सरकारों द्वारा बदला जा रहा हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना की रिर्पोट में कहा गया है कि हाल की अवधि में राज्य सरकारों ने भूमि कानूनों को उदार बनाने की पहल की है ताकि निगमीय कृषि को बढ़ावा दिया जा सके। भूमि पर पूंजीपतियों का स्वामित्व क्रमश: बढ़ रहा है। छोटे किसानों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। अब तो व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनाने और उपनगर बनाने के लिये औद्योगिक घराने लाखों एकड़ भूमि खरीद रहे हैं। उनकी भूमि-क्षुधा अत्यन्त तेजी से बढ़ रही है। विकास के नाम पर खेती वाली जमीन गैर-कृषि प्रयोग में हस्तांतरित हो रही है। भूमि बैंक बन रहे हैं। कृषि क्षेत्र में पिछले दस वर्षों से गतिहीनता की दशा बनी है। कम्पनियां भूमि ग्रहण के प्रति अत्यन्त जल्दी में हैं। उनमें परस्पर प्रतिद्वन्दिता बढ़ रही है। भूमि को लेकर अतीत में समाज में कलह और राष्ट्रों में युध्द होते थे। भूमि आज भी विवादों का एक प्रमुख कारण है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) और विशेष कृषि आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना की घोषणा के बाद इस प्रवृति को अधिक बल मिला है। विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना, अवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, आवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, सड़क निर्माण आदि के लिये व्यावसायिक घराने एवं कम्पनियाँ लाखों एकड़ भूमि खरीदने को आतुर हैं। रिलायंस इन्डस्ट्रीज, टाटा समूह, बाबा कलयानी, सहारा, महिन्द्रा ग्रुप, अंसल, इन्फोसिस, इंडिया बुल्स आदि नगरों में या उसके निकट बड़े-बड़े भू-भाग खरीदने को आतुर हैं। टाटा समूह ने भारत में कहीं भी 3 एकड़ से 2500 एकड़ तक भूमि निजी स्वामियों से खरीदने का विज्ञापन दिया है। कान्ट्रेक्ट खेती तात्कालिक आधार पर लाभदायक प्रतीत हो सकती है, उत्पादन वृध्दि कर सकती है, परन्तु सतत विकास की दृष्टि से यह प्रणाली उपयोगी नही है। पट्टे पर जमीन देना स्वतंत्रता से पूर्व कृषि प्रणाली का अंतर्निहित अंग रहा है। इस व्यवस्था में जमींदार पट्टे पर स्वामित्व विहीन कृषकों को जमीन देते थे जिसमें निष्ठुर लगान व्यवस्था सामान्य थी। भूमि व्यवस्था का यह अत्यन्त विवादास्पद स्वरूप था। अब प्रतिवर्ती पट्टे की दशायें उत्पन्न हो रही है। अब पट्टे पर काश्तकार जमीन दे रहे हैं जो अन्तत: कृषक और कृषि दोनों के लिए हानिकारक हैं।
पी एन एन से साभार
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