डॉ वंदना शिवा
अब तक छोटे छोटे दुकानदार और खुदरा व्यवसायी हमारी बाजार व्यवस्था के आवश्यक अंग रहे है। इससे न केवल लाखों-लाख लोगों को रोजगार मिलता रहा है, जनसामान्य को शुद्ध व विष-रहित खाद्य- सामान भी। लेकिन इस क्षेत्र में कारपोरेट जगत के आ जाने से एक बड़ा संकट पैदा हो गया है।
भारत खुदरा व्यापारी लोकतंत्र का देश है- देश में चारों तरफ लोग अपनी क्षमता के अनुसार हजारों साप्ताहिक ''हाट'' और ''बाजार'' लगाते है। ये बाजार स्थानीय स्तर पर खरीदारी का सबसे सस्ता और सुलभ माध्यम है। भारत में दुनिया की सबसे ज्यादा दुकानें है, 1000 लोगों पर 11 खुदरा दुकानें है, जिनमें गांव की हाट शामिल नहीं है। इससे करीब 4 करोड़ लोगों को सम्मान जनक जीविका के साथ-साथ रोजगार मिलता है जो कुल जनसंख्या का 4 फीसदी और कुल रोजगार का 8 फीसदी है। यह पूरी तरह से आत्मनिर्भर व्यवस्था है, जिसमें पूंजी लागत कम से कम तथा विकेन्द्रीकरण का स्तर लगभग 100 फीसदी है।
हमारी विकेन्द्रीकृत और विविधता आधारित खुदरा-अर्थव्यवस्था पर अब धीरे-धीरे रिलायंस और वालमार्ट जैंसी विशाल कंपनियां हावी हो रही है। वे खुदरा व्यापार में तानाशाह बनने की कोशिश कर रही है, औउत्पादन से लेकर बिक्रय तक सारी व्यवस्था को नियंत्रित करना चाहती है। यह हमला सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों रूपों से किया जा रहा है। भारतीय खुदरा लोकतंत्र को नीचा और वालमार्ट व रिलायंस की तानाशाही को ऊंसाबित करने के लिए सुनियोजित तरीके से हमला किया जा रहा है। खुदरा व्यापार के आत्मनिर्भर क्षेत्र को अब 'असंगठित' और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही को 'संगठित' क्षेत्र का नाम दिया जा रहा है।
भारतीय खुदरा-व्यापार आत्म निर्भरता और रोजगार के उच्च अवसर देता है, लेकिन आज तथा कथित विकास (एफडीआई) का मॉडल थामने के लिए उसे भी अल्प विकसित बताया जा रहा है। इसी तरह व्यापार के देशी प्रबंन्धकों को ''दलाल'' का नाम दिया जा रहा है और इन दलालों को खत्म करने के नाम पर 4 करोड़ लोगों की रोजी छीनने की साजिश की जा रही है, लेकिन रिलायंस और वालमार्ट जैसे बड़े दलालों से कोई बात पूछने वाला नहीं है? वे तो अपने को किसानों का मुक्तिदाता कहते है। वे ऐसा दिखावा कर रहे है कि वे किसानों व उपभोक्ताओं के मित्र है और इसीलिए उन्हे मुनाफाखोर बिचौलियों से बचा रहे है। असलियत में वे होलसेलर डिस्ट्रीब्यूटर और रिटेलर सबके मुनाफे पर खुद ही कब्जा करके बड़े दलाल बन रहे है और इस कब्जे को वे यह कहकर खुदरा क्रांति का नाम दे रहे है कि वे कम बर्बादी और कम लागत वाले सप्लाई चेन के उत्तम मॉडल को आगे बढ़ा रहे है, जबकि वास्तमें वे ही सस्ती चीजें खरीद कर किसानों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहे है। क्योंकि कंपनियों का तो यह उसूल ही है ''सस्ता खरीदों, मंहगा बेचों।'' थोड़े समय तक तो बाजार पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कंपनियां सस्ते दामों पर सामान तो बेचेगी और एक बार विकल्प खत्म हो गए, तो वे उत्पादन मूल्य घटा देंगी और इस तरह किसानों की आय कम हो जाएगी।
ऐसा कहा जा रहा है कि 2010 तक कुल फूड रिटेलिंग के 10 फीसदी पर अमरीका के केवल 7 खुदरा व्यापारियों का कब्जा हो जाएगा, जिसमें वालमार्ट का हिस्सा बढ़कर 22 फीसदी हो जाएगा। यूरोप में आने वाले 10 सालों में 10 प्रमुख खुदरा संगठित व्यापारियों की भागीदारी 37 फीसदी से 60 फीसदी तक बढ़ जाएगी। ऐसी बातें यही सिद्ध करती है कि एकाधिकार की प्रवृति खुदरा में ही जाएगी इस सबके बीच पीसा जाएगा किसान और छोटा खुदरा व्यापारी।
ब्रिटेन सरकार के प्रतिस्पद्र्धा आयोग 2000 की जांच से स्पष्ट हो गया था कि सुपरमार्केट जनता के हित के अनुकूल नहीं है वे 27 गैर व्यापारिक तरीकों का उपयोग करते हुए पाए गए थे, जिसमें उनका लागत से भी कम मूल्य पर खरीदना बेचना भी एक था, इनमें 5 बड़े रिटेलर टेस्कों, सेंसबरी, एसडीएवालमार्ट, सेफवे, सोर्सफील्ड शामिल थे। भारत के खुदरा बाजार में कारपोरेटियों के आने से 65 करोड़ किसानों और 4 करोड़ छोटे खुदरा व्यापारियों पर गाज गिरेगी।
ललचाई आंखे-
भारत का खुदरा व्यापार आज सुर्खियों में आ रहा है। इसलिए नहीं कि इस क्षेत्र में लगे करोड़ों लोग की स्थिति पर किसी को चिन्ता हो रही है या खुदरा दुकानदार या व्यापारी अपना काम ठीक से नहीं कर रहे है आर उपभोक्ता उनसे असंतुष्ट है। बल्कि देश के अरबपति और बड़ी-बड़ी कम्पनियों को खुदरा व्यापार में अब मलाई ही मलाई नजर आ रही है। वे करोड़ों अरबों का निवेश लेकर बहुत धूमधाम से 'खुदरा' व्यापारी बन रहे है। उन्हे इस तरह मलाई पर हाथ साफ करते देख कर विदेशी बड़े-बड़े चैन स्टोरों के मालिकों के मुंह से भी लार टपकने लगी है। वे अपनी ललचाई आंखे भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में पसरे पड़े खुदरा व्यापार पर टिका बैठे है।
पहचानें कारपेरेटी हमलावरों को -
हमारे खुदरा धन्धे को तरह-तरह से बदनाम करने में बड़ी कंपनियां लगी हुई है। इसको असंगठित क्षेत्र कहा जा रहा है। इसमें बहुतेरे बिचौलिए (मिडिल मैन) है जिसकी वजह से ग्राहकों को मंहगा सामान मिलता है, जैसे गलत तर्क पेश किए जा रहे है। ऐसे तर्क देकर बड़ी-बड़ी कंपनियों जैसे रिलायंस, सुनील भारती मित्तल, टाटा, पेंटालून (बिग बाजार) और विदेशी भीमकाय कंपनियां जैसे अमरीकी वालमार्ट, जर्मनी की मैट्रों, इग्लैण्ड की टेस्को और फ्रांस की कैरेफोर अपने बड़े-बड़े स्टोर तथा मॉल सैकड़ों की संख्या में देश में खड़ी कर रही है। अब ये ही दलाल, स्टाकिस्ट, बनिया सब कुछ बनने की कोशिश में लगे है। आईए इनकों जानें!
कैरेफोर:- हाइपर मार्केट, सुपर मार्केट और डिपार्टमेंट स्टोर जैसे उच्चस्तरीय और एकाधिकारीय प्रवृति की नींव रखने वाली विश्व की पहली फ्रांसीसी कंपनी है, जिसने लातीन अमेरिका, ब्राजील, अर्जेटिना, कोलंबिया और डॉमिनीकन रिपब्लिक, के साथ-साथ चीन, ताइवान, इन्डोनेशिया, मलेशिया, कतर, सऊदी अरब, जोर्डन, सिंगापुर, दक्षिणी कोरिया और कुवैत में सबसे पहले अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की शुरूआत की। बेल्जियम, बुल्गारिया, फ्रांस, ग्रीस, इटली, पोलैंड, पुर्तगाल, रूस, स्लोवाकिया, स्पेन, स्विटजरलैंड, तुर्की, और साइप्रस में अपनी घुसपैठ करके यह यूरोप में भी मार्केट लीडर बन गई है। यह श्रमिकों के शोषणकर्ता के रूप में भी विख्यात है। विकासशील देशों से सस्ता श्रम जुटाकर उन्हें सुरक्षित वातावरण व बुनियादी जरूरतें तक मुहैया नहीं कराई जाती । कैरेफोर के अनेक स्टोरों पर एक्सपाइरी डेट के बाद भी वस्तुएं बिकती देखी गई है। कैरेफोर की स्पेक्ट्रम स्वीटर इन्डस्ट्रीज लि अौर सहरयार फैव्रिक्स की नौ मंजिला इमारत के गिरने से 23 लोग मारे गए और 365 गंभीर रूप से घायल थे। लेकिन कंपनी ने उन्हे मुआवजा तक देने से इंकार कर दिया। ये बड़े धन्नासेठ आम आदमी के बारे में कितना सोचते है, आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए।
टेस्को:- लंदन क टेस्कों कंपनी ने आयरलैंड, अमेरिका, पोलैण्ड में परचूनी कारोबार पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। 24 फरवरी 2007 तक टेस्कों का अलग-अलग नाम और प्रकार के 1988 स्टोर थे और कारोबार 46600 मिलियन पौन्ड (लगभग 400000 करोड़ रूपये) था। बंग्लादेश में इसके लिए कपड़ा बनाने वाले। श्रमिकों कों यह मात्र 8 पौंड (560 रू) मासिक का वेतन देती है, जो न्यूनतम मजदूरी का मात्र एक तिहाई है। बेगार और बालश्रम इसके यहां आम बात है। ब्रिटिश रिटेल प्लानिंग फोरम के अनुसार एक सुपरमार्केट के खुलने से औसतन 276 नौकरियां खत्म हो जाती है। इसके 7 मील के दायरे में सभी दुकानों ठप्प हो जाती है। इन मुनाफाखोरों के लिए क्या आप भी अपना कारोबार बन्द करना चाहेंगे?
वालमार्ट:- वालमार्ट अमेरिका की पब्लिक कार्पोरेशन और दुनिया की सबसे बड़ी रिटेलर है। यह अमेरिका की सबसे बड़ी परचूनी कारोबार करने वाली कंपनी है। मैक्सिकों, ब्रिटेन, जापान, अर्जेन्टिना, ब्राजील, कनाडा आदि अनेक देशों में अलग-अलग नामों से यह कारोबार कर रही है। इसने अब तक जो भी मुनाफा कमाया है वह कामगारों और स्थानीय लोगों का शोषण करके जमा किया है अपने सप्लायर को ज्यादा आमदनी का लालच दिखाकर पहले तो ज्यादा माल खरीदती है और फिर दाम नयूनतम करने पर मजबूर करती है। होंडुरास में यह कामगारों से 14 घंटे की शिफ्ट से 88 घंटे साप्ताहिक काम लेती है और प्रति घंटा मात्र 43 सेंट चुकाती है। इसकी बिक्री वहां के राष्ट्रीबचत की 98 गुना ज्यादा है। थ्फर भी यह कोई कर नहीं चुकाती।
सुभिक्षा:- चेन्नई स्थित सुपर मार्केट और फार्मेसी डिस्काउंट चेन जो कम लागत कम पूंजी निवेश मॉडल पर आधारित है। आज इसके पूरे भारत में 500 स्टोर है, जिन्हे 100 तक करने के योजना है। भारत में 2500-3000 स्टोरों का लक्ष्य पूरा होने पर विदेशों में भी पांव पसारने की योजना है। बेंगलूर में किए गए सर्वे के मुताबिक सुभिक्षा अन्य रिटेलरों जैसे त्रिनेत्र, सुपररिटेल, नीलगिरीज, फूडवर्ल्ड, फूडबाजार से 8 फीसदी सस्ता करके बाजार हथियाने में लगी हुई है। बचत मेरा अधिकार नारे के साथ यह अन्न, राशन, सब्जियों, फलों आदि उत्पादों के कारोबार में घुंस रही है।
रिलायंस रिटेल:- रिलायंस रिटेल मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज आफ इंडिया की ही एक रिटेल चेन है। मुकेश अंबानी के अनुसार यह किसानों और उपभोक्ताओं को विन विन पार्टनरशिप में लाकर उच्चस्तरीय जीवन शैली का निर्माण करने का एक छोटा सा कदम है। कंपनी की योजना हर दो किमी दायरे में प्रत्येक 3000 परिवारों के लिए एक स्टोर खोलने की है। अगले 4 सालों में 25000 करोड़ की लागत से भारत के 784 शहरों में रिटेल स्टोर खोलने की योजना है। फिलहाल यह दक्षिण में अपना पूरा नियंत्रण बनाने में लगी है। एक बार दक्षिण के बाजार कब्जे में आ जाएंगे तो फिर पूरे भारत के फ्रेश फूड पर कब्जा करने में आसानी होगी।
भारतीय खुदरा में कारपोरेटी हमलावरों के प्रवेश का प्रभव क्या होगा?
भारत में खेती के बाद खुदरा व्यापार ही सबसे बड़ा व्यवसाय है। 2001 की जनगणना के अनुसार, थोक और खुदरा व्यापार में 269 लाख 'मुख्य' और 24 लाख अन्य कामगार थे। यानी लगभग 3 करोड़ लोग व्यापार पर निर्भर है। 11 क़रोड़ लोग शहरी क्षेत्रों मं और 19 क़रोड़ ग्रामीण क्षेत्रों में । इनमें से 17 क़रोड़ लोग मैट्रिक पास तक नहीं है। इस तरह 3 करोड़ लोगों की रोजी इससे जुड़ी है और अगर बच्चों या अन्य आश्रितों को गिन लिया जाए तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लाई गई खुदरा क्रांति से करीब 12 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। भारत की आत्म निर्भर छोटी खुदरा व्यापार व्यवस्था का विनाश करके वे खुदरा व्यवस्था पर काबिज हो जाएंगी
पूर्व में किए गए शोधों से यह स्पष्ट है कि बेरोजगारी में वृद्धि होने से गरीबी, नशा, घरेलू हिंसा, कर्ज, आत्महत्याएं, अपराध और राजनैतिक अस्थिरता जैसी अनेक सामाजिक समस्याएं और तनाव उत्पन्न होने लगते है। यदि हम वालमार्ट के अमरीकी मॉडल को अपनाते है, जहां स्टोर के कामगारों को (गरीबी रेखा से भी नीचे) न्यूनतम वेतन मिलता है तो दूसरी ओर शीर्ष प्रबंन्धक को करोड़ों डॉलर प्रतिवर्ष मिलते है, तो हम एक ऐसी गैर बराबरी वाली व्यवस्था अपनाने जा रहे है जहां अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ जाएगी। इतिहास साक्षी है कि जब-जब गैर-बराबरी बढ़ी है, सामाजिक और राजनीतिक तनाव भी बढ़ी है।
इस प्रक्रिया में किसान की आजादी छिन जाएगी :
पिछले दो सालों में, देश के विभिन्न भागों में हमने मंडियों को उजड़ते देखा है। इस सबके पीछे मुख्य दबाव था, खाद्यान्न के आपूर्ति प्रबन्धन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश। यह सच है कि इस साल उन्होने किसानों को मंडियों से बेहतर दाम चुकाए है, लेकिन जो सबसे बड़ा खतरा आगे आने वाला है वह है किसान के पास फसल बेचने के लिए विकल्प खत्म हो जाएंगे। इसी तरह खुदरा व्यापार की बड़ी कंपनयिों द्वारा चुकाए गए निर्मित उत्पादनों के दाम भी अन्यों से ज्यादा हो सकते है। लेकिन जब अन्य रिटेलर खत्म हो जाएंगे, तब उत्पाउदक के सामने अपने उत्पाद को बेचने के लिए क्या विकल्प रह जाएगा? तब किसान कंपनियों के इशारे पर न केवल उत्पादन करने पर मजबूरि हो जाएंगे, िल्कि उनके निरर्धारित मूल्य पर उत्पादन को बेचना भी होगा। पश्चिम के किसान यह सब पहले ही भुगत रहे है और अब अगर हम भी इसी रास्ते पर चलते है तो नि:सनदेह हमारे किसानों को ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना होगा।
वर्तमान उद्योगों को खतरा:-
खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों की घुसपैठ से एक अन्य बड़ा खतरा जो हमारे सामने होगा, वह है चीन, थाईलैण्ड सहित आसियान के अन्य देशों से सस्ती वस्तुओं की आपूर्ति, जिससे भारत में बड़े पैमाने पर जीविका समाप्त हो जाएगी। यह हमारे निर्माण क्षेत्र, विशेषकर लघु उद्योगों के लिए बहुत हानिकारक साबित होगा। हमारा निर्माण क्षेत्र अभी इन देशों के उद्योगों की तरह विकसित नहीं है। ऐसे में इनके साथ प्रतिस्पर्धा करने का अर्थ होगा अपने निर्माण उद्योगों को नष्ट करना।
पर्यावरणीय प्रभाव-वातावरण परिवर्तन:-
वायु प्रदूषण के कारण वातावरण परिवर्तन पहले से ही मानव जीवन के लिए खतरा बना हुआ है। तापमान बढ़ रहा है, समुद्रस्तर ऊंचा हो रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे है। जीवाश्म ईधन के बढ़ते प्रयोग को रोकना होगा। बदलते मौसम की समस्या का समाधान हमारा फेरीवाला, रेहड़ीवाला और किराना स्टोर वाला है। रिलायंस, भारती वालमार्ट मॉडल तो जीवाश्म ईधन के प्रयोग और कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देगा। सुपर मार्केट की लोरियों में ईधन की ज्यादा खपत ज्यादा प्रदूषण फैलाएगी। यदि हम दकियानूसी आंकड़ों को देखो तो सुपर मार्केट की लोरियां भारत में प्रतिवर्ष 70 लाख टन से भी ज्यादा कार्वन डाईऑक्साइड उत्पन्न करेंगी जिसमें भारत के परिवर्तनशील पर्यावरण की समस्याएं और ज्यादा बढ़ जाएंगी। ऐसे में जबकि पैट्रोलियम के बढ़ते इस्तेमाल से मात्रा में कमी हो रही है, ये लोरियां प्रतिवर्ष 1 बिलियन लीटर से भी ज्यादा पैट्रोलियम की खपत करेंगी।
वाहनों की भीड़ और ऊर्जा की खपत:-
(1) जब खरीददरारी एक जगह केन्द्रीकृत हो जाएगी, तो आदमी को हर एक दुकान पर वाहन से जाना पड़ेगा जिसके लिए ज्यादा ईधन की जरूरत तो पड़ेगी ही साथ ही सड़कों पर होगी वाहनों की भीड़
खाद्य पदार्थो में कटनाशकों और रसायनों का ज्यादा प्रयोग:-
बड़ी खुदरा व्यापार क कंपनियों का कृषि उत्पादों को खरीदने का अपना ही तरीका है। उनके मानक स्तर के अनुसार बिना कीटनाशकों का प्रयोग किए फल और सब्जियां उगाना किसानों के लिए मुश्किल है। उन्हे ज्यादा सज्यादा रसायनों और कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए मजबूर किया जाता है। खुदरा कंपनियों के पास एक बार सारा कृषि उत्पाद आने के बाद वे साल भर इसे बेचती रहती है। इसके लिए वे कोल्ड स्टोरेजों का इस्तेमाल करतहै लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत से संरक्षक रसायन खाद्यान्नों में मिलाए जाते है। इसलिए जब उपभोक्ता इस तरह की सब्जियां इन स्टोरों से खरीदते है, ब तक इसमें ऐसे विषैले तत्व पैदा हो जाते है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारहै।
डिब्बाबन्दी:-
खाद्य पदार्थो की डिब्बाबंदी के कारण पहले से ही प्रदूषित शहरों में और ज्यादा कचरा पैदा होगा। ऐसे समय में जब पूरा देश इस ठोस कचरे की समस्या का समाधान खोज रहा है, मॉल्स संस्कृति में डिब्बाबंदी के कारण बढ़ा हुआ कचरा और ज्यादा समस्याएं बढ़ा देगा। कचरा इकट्ठा करने के लिए पहले ही जमीन भर चुकी है। रिलायंस और वालमार्ट के कचरे को खपाने के लिए गरीब किसानों की और ज्यादा जमीन छीनी जाएगी
दुकानदारों और फेरीवालों पर कंपनी खुदरा व्यापारियों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए 'नवधान्य' ने दिल्ली में एक शोध किया है। इसके लिए हमने उन दुकानदारों और फेरवालों से बातचीत की जिनकी दुकानें रिलायंस स्टोर के 1 किमी के दायरे मेेंं थी।
शोध के मुख्य निष्कर्ष:-
(1) जब से रिलायंस स्टोर बना है तब से उस क्षेत्र के 88 फीसदी खुदरा व्यापारियों की बिक्री में कमी आई
(3) 66 फीसदी, 10 साल से भी ज्यादा समय से व्यवसाय कर रहे है, उनमें से कुछ 30 साल से भी ज्यादा समय से व्यवसाय में लगे है। उनके लिए किसी दूसरे व्यवसाय को शुरू करना और उसमें सफल होना बहुत कठिन है।
(4) 59 फीसदी उत्तरदाताओं का कहना था कि इस कमी के चलते उन्हे जल्दी ही अपना काम बन्द करना पड़ेगा और 27 फीसदी को तो भविष्य में बड़े घाटे की आशंका है।
(5) 96 फीसदी बिक्रेता अपने सामान की आपूर्ति मंडियों से करते है। रिलायंस से माल खरीदने वाले केवल 4 फीसदी बिक्रेता
(7) 586 फ़ीसदी खुदरा व्यपारी अपनी दुकानें 12 घंटों से भी ज्यादा समय तक खोलते है और कुछ 14घंटों से भी ज्यादा समय तक दुकाने खोलते है।
(8) लक्ष्मीनगर और पहाड़गंज इलाके के सब्जियों के बुत से छोटे रिटेलरों ने तो काम ही छोड़ दिया है, क्योंकि वे रिलायंस के साथ एक महीना भी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाए।
आइए अपने कारोबार, लोग और देश बचाने के लिए एकजुट हो जाएं:-
अब समय आ गया है, जब समाज के सभी वर्गो को परचूनी कारोबार में कंपनियों के हमे के खतरों को समझना है और इन राक्षसों से लड़ने के लिए एकजुट होना है। यह फेरीवालों, व्यापारियों, किसानों, उपभोक्ताओं, ट्रांसपोर्ट लाइन के लोगों यानी समाज के सभी वर्गो के लिए खतरनाक है। कंपनियों की चालबाजियों से सावधान हो जाइऐ! वे कभी किसी समाज का भला नहीं करती। उन्हे हर कीमत पर केवल और केवल अपना मुनाफा चाहिए। पश्चिम की तरह कहीं हमारे देश को भी इनके द्वारा किए गए विनाश की कीमत न चुकानी पड़े।
वालमार्ट, रिलायंस और टेस्कों जैसे बड़े खुदरा व्यापर रोजगार, समाज, पर्यावरण के विनाश के एजेंट है। किसानों और गलियों के बाजारों को बचाने और सुपर मार्केट की एकाधिकारी प्रवृति का विरोध करने के लिए विश्वव्यापी आंदोलन हो रहे है। जिस विविधता और विकेन्द्रकरण की पश्चिम को तलाश है वह भारत में पहले से मौजूद है। हमें अपनी ऐसी लघु खुदरा व्यवस्था को बचाना है। आइए, अपने परम्परागत परचूनी कारोबार पर हमले के खिलाफ आंदोलन में जुट जाएं और उन करोड़ों लोगों का साथ दे, जो इससे अपनी रोजी चलाते है। अपनी जीविका, अपने लोग, अपना देश बचाइए।
बड़ा हमेशा बदसूरत, शोषक और तानाशाह होता है, जबकि लघु सुन्दर, न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक है। न्यायपूर्ण सोचिए, लघु सोचिए- यही भविष्य है।
(नवधन्य और इंडियाज फुड वार के शोध पर आधारित)
अब तक छोटे छोटे दुकानदार और खुदरा व्यवसायी हमारी बाजार व्यवस्था के आवश्यक अंग रहे है। इससे न केवल लाखों-लाख लोगों को रोजगार मिलता रहा है, जनसामान्य को शुद्ध व विष-रहित खाद्य- सामान भी। लेकिन इस क्षेत्र में कारपोरेट जगत के आ जाने से एक बड़ा संकट पैदा हो गया है।
भारत खुदरा व्यापारी लोकतंत्र का देश है- देश में चारों तरफ लोग अपनी क्षमता के अनुसार हजारों साप्ताहिक ''हाट'' और ''बाजार'' लगाते है। ये बाजार स्थानीय स्तर पर खरीदारी का सबसे सस्ता और सुलभ माध्यम है। भारत में दुनिया की सबसे ज्यादा दुकानें है, 1000 लोगों पर 11 खुदरा दुकानें है, जिनमें गांव की हाट शामिल नहीं है। इससे करीब 4 करोड़ लोगों को सम्मान जनक जीविका के साथ-साथ रोजगार मिलता है जो कुल जनसंख्या का 4 फीसदी और कुल रोजगार का 8 फीसदी है। यह पूरी तरह से आत्मनिर्भर व्यवस्था है, जिसमें पूंजी लागत कम से कम तथा विकेन्द्रीकरण का स्तर लगभग 100 फीसदी है।
हमारी विकेन्द्रीकृत और विविधता आधारित खुदरा-अर्थव्यवस्था पर अब धीरे-धीरे रिलायंस और वालमार्ट जैंसी विशाल कंपनियां हावी हो रही है। वे खुदरा व्यापार में तानाशाह बनने की कोशिश कर रही है, औउत्पादन से लेकर बिक्रय तक सारी व्यवस्था को नियंत्रित करना चाहती है। यह हमला सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों रूपों से किया जा रहा है। भारतीय खुदरा लोकतंत्र को नीचा और वालमार्ट व रिलायंस की तानाशाही को ऊंसाबित करने के लिए सुनियोजित तरीके से हमला किया जा रहा है। खुदरा व्यापार के आत्मनिर्भर क्षेत्र को अब 'असंगठित' और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही को 'संगठित' क्षेत्र का नाम दिया जा रहा है।
भारतीय खुदरा-व्यापार आत्म निर्भरता और रोजगार के उच्च अवसर देता है, लेकिन आज तथा कथित विकास (एफडीआई) का मॉडल थामने के लिए उसे भी अल्प विकसित बताया जा रहा है। इसी तरह व्यापार के देशी प्रबंन्धकों को ''दलाल'' का नाम दिया जा रहा है और इन दलालों को खत्म करने के नाम पर 4 करोड़ लोगों की रोजी छीनने की साजिश की जा रही है, लेकिन रिलायंस और वालमार्ट जैसे बड़े दलालों से कोई बात पूछने वाला नहीं है? वे तो अपने को किसानों का मुक्तिदाता कहते है। वे ऐसा दिखावा कर रहे है कि वे किसानों व उपभोक्ताओं के मित्र है और इसीलिए उन्हे मुनाफाखोर बिचौलियों से बचा रहे है। असलियत में वे होलसेलर डिस्ट्रीब्यूटर और रिटेलर सबके मुनाफे पर खुद ही कब्जा करके बड़े दलाल बन रहे है और इस कब्जे को वे यह कहकर खुदरा क्रांति का नाम दे रहे है कि वे कम बर्बादी और कम लागत वाले सप्लाई चेन के उत्तम मॉडल को आगे बढ़ा रहे है, जबकि वास्तमें वे ही सस्ती चीजें खरीद कर किसानों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहे है। क्योंकि कंपनियों का तो यह उसूल ही है ''सस्ता खरीदों, मंहगा बेचों।'' थोड़े समय तक तो बाजार पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कंपनियां सस्ते दामों पर सामान तो बेचेगी और एक बार विकल्प खत्म हो गए, तो वे उत्पादन मूल्य घटा देंगी और इस तरह किसानों की आय कम हो जाएगी।
ऐसा कहा जा रहा है कि 2010 तक कुल फूड रिटेलिंग के 10 फीसदी पर अमरीका के केवल 7 खुदरा व्यापारियों का कब्जा हो जाएगा, जिसमें वालमार्ट का हिस्सा बढ़कर 22 फीसदी हो जाएगा। यूरोप में आने वाले 10 सालों में 10 प्रमुख खुदरा संगठित व्यापारियों की भागीदारी 37 फीसदी से 60 फीसदी तक बढ़ जाएगी। ऐसी बातें यही सिद्ध करती है कि एकाधिकार की प्रवृति खुदरा में ही जाएगी इस सबके बीच पीसा जाएगा किसान और छोटा खुदरा व्यापारी।
ब्रिटेन सरकार के प्रतिस्पद्र्धा आयोग 2000 की जांच से स्पष्ट हो गया था कि सुपरमार्केट जनता के हित के अनुकूल नहीं है वे 27 गैर व्यापारिक तरीकों का उपयोग करते हुए पाए गए थे, जिसमें उनका लागत से भी कम मूल्य पर खरीदना बेचना भी एक था, इनमें 5 बड़े रिटेलर टेस्कों, सेंसबरी, एसडीएवालमार्ट, सेफवे, सोर्सफील्ड शामिल थे। भारत के खुदरा बाजार में कारपोरेटियों के आने से 65 करोड़ किसानों और 4 करोड़ छोटे खुदरा व्यापारियों पर गाज गिरेगी।
ललचाई आंखे-
भारत का खुदरा व्यापार आज सुर्खियों में आ रहा है। इसलिए नहीं कि इस क्षेत्र में लगे करोड़ों लोग की स्थिति पर किसी को चिन्ता हो रही है या खुदरा दुकानदार या व्यापारी अपना काम ठीक से नहीं कर रहे है आर उपभोक्ता उनसे असंतुष्ट है। बल्कि देश के अरबपति और बड़ी-बड़ी कम्पनियों को खुदरा व्यापार में अब मलाई ही मलाई नजर आ रही है। वे करोड़ों अरबों का निवेश लेकर बहुत धूमधाम से 'खुदरा' व्यापारी बन रहे है। उन्हे इस तरह मलाई पर हाथ साफ करते देख कर विदेशी बड़े-बड़े चैन स्टोरों के मालिकों के मुंह से भी लार टपकने लगी है। वे अपनी ललचाई आंखे भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में पसरे पड़े खुदरा व्यापार पर टिका बैठे है।
पहचानें कारपेरेटी हमलावरों को -
हमारे खुदरा धन्धे को तरह-तरह से बदनाम करने में बड़ी कंपनियां लगी हुई है। इसको असंगठित क्षेत्र कहा जा रहा है। इसमें बहुतेरे बिचौलिए (मिडिल मैन) है जिसकी वजह से ग्राहकों को मंहगा सामान मिलता है, जैसे गलत तर्क पेश किए जा रहे है। ऐसे तर्क देकर बड़ी-बड़ी कंपनियों जैसे रिलायंस, सुनील भारती मित्तल, टाटा, पेंटालून (बिग बाजार) और विदेशी भीमकाय कंपनियां जैसे अमरीकी वालमार्ट, जर्मनी की मैट्रों, इग्लैण्ड की टेस्को और फ्रांस की कैरेफोर अपने बड़े-बड़े स्टोर तथा मॉल सैकड़ों की संख्या में देश में खड़ी कर रही है। अब ये ही दलाल, स्टाकिस्ट, बनिया सब कुछ बनने की कोशिश में लगे है। आईए इनकों जानें!
कैरेफोर:- हाइपर मार्केट, सुपर मार्केट और डिपार्टमेंट स्टोर जैसे उच्चस्तरीय और एकाधिकारीय प्रवृति की नींव रखने वाली विश्व की पहली फ्रांसीसी कंपनी है, जिसने लातीन अमेरिका, ब्राजील, अर्जेटिना, कोलंबिया और डॉमिनीकन रिपब्लिक, के साथ-साथ चीन, ताइवान, इन्डोनेशिया, मलेशिया, कतर, सऊदी अरब, जोर्डन, सिंगापुर, दक्षिणी कोरिया और कुवैत में सबसे पहले अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की शुरूआत की। बेल्जियम, बुल्गारिया, फ्रांस, ग्रीस, इटली, पोलैंड, पुर्तगाल, रूस, स्लोवाकिया, स्पेन, स्विटजरलैंड, तुर्की, और साइप्रस में अपनी घुसपैठ करके यह यूरोप में भी मार्केट लीडर बन गई है। यह श्रमिकों के शोषणकर्ता के रूप में भी विख्यात है। विकासशील देशों से सस्ता श्रम जुटाकर उन्हें सुरक्षित वातावरण व बुनियादी जरूरतें तक मुहैया नहीं कराई जाती । कैरेफोर के अनेक स्टोरों पर एक्सपाइरी डेट के बाद भी वस्तुएं बिकती देखी गई है। कैरेफोर की स्पेक्ट्रम स्वीटर इन्डस्ट्रीज लि अौर सहरयार फैव्रिक्स की नौ मंजिला इमारत के गिरने से 23 लोग मारे गए और 365 गंभीर रूप से घायल थे। लेकिन कंपनी ने उन्हे मुआवजा तक देने से इंकार कर दिया। ये बड़े धन्नासेठ आम आदमी के बारे में कितना सोचते है, आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए।
टेस्को:- लंदन क टेस्कों कंपनी ने आयरलैंड, अमेरिका, पोलैण्ड में परचूनी कारोबार पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। 24 फरवरी 2007 तक टेस्कों का अलग-अलग नाम और प्रकार के 1988 स्टोर थे और कारोबार 46600 मिलियन पौन्ड (लगभग 400000 करोड़ रूपये) था। बंग्लादेश में इसके लिए कपड़ा बनाने वाले। श्रमिकों कों यह मात्र 8 पौंड (560 रू) मासिक का वेतन देती है, जो न्यूनतम मजदूरी का मात्र एक तिहाई है। बेगार और बालश्रम इसके यहां आम बात है। ब्रिटिश रिटेल प्लानिंग फोरम के अनुसार एक सुपरमार्केट के खुलने से औसतन 276 नौकरियां खत्म हो जाती है। इसके 7 मील के दायरे में सभी दुकानों ठप्प हो जाती है। इन मुनाफाखोरों के लिए क्या आप भी अपना कारोबार बन्द करना चाहेंगे?
वालमार्ट:- वालमार्ट अमेरिका की पब्लिक कार्पोरेशन और दुनिया की सबसे बड़ी रिटेलर है। यह अमेरिका की सबसे बड़ी परचूनी कारोबार करने वाली कंपनी है। मैक्सिकों, ब्रिटेन, जापान, अर्जेन्टिना, ब्राजील, कनाडा आदि अनेक देशों में अलग-अलग नामों से यह कारोबार कर रही है। इसने अब तक जो भी मुनाफा कमाया है वह कामगारों और स्थानीय लोगों का शोषण करके जमा किया है अपने सप्लायर को ज्यादा आमदनी का लालच दिखाकर पहले तो ज्यादा माल खरीदती है और फिर दाम नयूनतम करने पर मजबूर करती है। होंडुरास में यह कामगारों से 14 घंटे की शिफ्ट से 88 घंटे साप्ताहिक काम लेती है और प्रति घंटा मात्र 43 सेंट चुकाती है। इसकी बिक्री वहां के राष्ट्रीबचत की 98 गुना ज्यादा है। थ्फर भी यह कोई कर नहीं चुकाती।
सुभिक्षा:- चेन्नई स्थित सुपर मार्केट और फार्मेसी डिस्काउंट चेन जो कम लागत कम पूंजी निवेश मॉडल पर आधारित है। आज इसके पूरे भारत में 500 स्टोर है, जिन्हे 100 तक करने के योजना है। भारत में 2500-3000 स्टोरों का लक्ष्य पूरा होने पर विदेशों में भी पांव पसारने की योजना है। बेंगलूर में किए गए सर्वे के मुताबिक सुभिक्षा अन्य रिटेलरों जैसे त्रिनेत्र, सुपररिटेल, नीलगिरीज, फूडवर्ल्ड, फूडबाजार से 8 फीसदी सस्ता करके बाजार हथियाने में लगी हुई है। बचत मेरा अधिकार नारे के साथ यह अन्न, राशन, सब्जियों, फलों आदि उत्पादों के कारोबार में घुंस रही है।
रिलायंस रिटेल:- रिलायंस रिटेल मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज आफ इंडिया की ही एक रिटेल चेन है। मुकेश अंबानी के अनुसार यह किसानों और उपभोक्ताओं को विन विन पार्टनरशिप में लाकर उच्चस्तरीय जीवन शैली का निर्माण करने का एक छोटा सा कदम है। कंपनी की योजना हर दो किमी दायरे में प्रत्येक 3000 परिवारों के लिए एक स्टोर खोलने की है। अगले 4 सालों में 25000 करोड़ की लागत से भारत के 784 शहरों में रिटेल स्टोर खोलने की योजना है। फिलहाल यह दक्षिण में अपना पूरा नियंत्रण बनाने में लगी है। एक बार दक्षिण के बाजार कब्जे में आ जाएंगे तो फिर पूरे भारत के फ्रेश फूड पर कब्जा करने में आसानी होगी।
भारतीय खुदरा में कारपोरेटी हमलावरों के प्रवेश का प्रभव क्या होगा?
भारत में खेती के बाद खुदरा व्यापार ही सबसे बड़ा व्यवसाय है। 2001 की जनगणना के अनुसार, थोक और खुदरा व्यापार में 269 लाख 'मुख्य' और 24 लाख अन्य कामगार थे। यानी लगभग 3 करोड़ लोग व्यापार पर निर्भर है। 11 क़रोड़ लोग शहरी क्षेत्रों मं और 19 क़रोड़ ग्रामीण क्षेत्रों में । इनमें से 17 क़रोड़ लोग मैट्रिक पास तक नहीं है। इस तरह 3 करोड़ लोगों की रोजी इससे जुड़ी है और अगर बच्चों या अन्य आश्रितों को गिन लिया जाए तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लाई गई खुदरा क्रांति से करीब 12 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। भारत की आत्म निर्भर छोटी खुदरा व्यापार व्यवस्था का विनाश करके वे खुदरा व्यवस्था पर काबिज हो जाएंगी
पूर्व में किए गए शोधों से यह स्पष्ट है कि बेरोजगारी में वृद्धि होने से गरीबी, नशा, घरेलू हिंसा, कर्ज, आत्महत्याएं, अपराध और राजनैतिक अस्थिरता जैसी अनेक सामाजिक समस्याएं और तनाव उत्पन्न होने लगते है। यदि हम वालमार्ट के अमरीकी मॉडल को अपनाते है, जहां स्टोर के कामगारों को (गरीबी रेखा से भी नीचे) न्यूनतम वेतन मिलता है तो दूसरी ओर शीर्ष प्रबंन्धक को करोड़ों डॉलर प्रतिवर्ष मिलते है, तो हम एक ऐसी गैर बराबरी वाली व्यवस्था अपनाने जा रहे है जहां अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ जाएगी। इतिहास साक्षी है कि जब-जब गैर-बराबरी बढ़ी है, सामाजिक और राजनीतिक तनाव भी बढ़ी है।
इस प्रक्रिया में किसान की आजादी छिन जाएगी :
पिछले दो सालों में, देश के विभिन्न भागों में हमने मंडियों को उजड़ते देखा है। इस सबके पीछे मुख्य दबाव था, खाद्यान्न के आपूर्ति प्रबन्धन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश। यह सच है कि इस साल उन्होने किसानों को मंडियों से बेहतर दाम चुकाए है, लेकिन जो सबसे बड़ा खतरा आगे आने वाला है वह है किसान के पास फसल बेचने के लिए विकल्प खत्म हो जाएंगे। इसी तरह खुदरा व्यापार की बड़ी कंपनयिों द्वारा चुकाए गए निर्मित उत्पादनों के दाम भी अन्यों से ज्यादा हो सकते है। लेकिन जब अन्य रिटेलर खत्म हो जाएंगे, तब उत्पाउदक के सामने अपने उत्पाद को बेचने के लिए क्या विकल्प रह जाएगा? तब किसान कंपनियों के इशारे पर न केवल उत्पादन करने पर मजबूरि हो जाएंगे, िल्कि उनके निरर्धारित मूल्य पर उत्पादन को बेचना भी होगा। पश्चिम के किसान यह सब पहले ही भुगत रहे है और अब अगर हम भी इसी रास्ते पर चलते है तो नि:सनदेह हमारे किसानों को ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना होगा।
वर्तमान उद्योगों को खतरा:-
खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों की घुसपैठ से एक अन्य बड़ा खतरा जो हमारे सामने होगा, वह है चीन, थाईलैण्ड सहित आसियान के अन्य देशों से सस्ती वस्तुओं की आपूर्ति, जिससे भारत में बड़े पैमाने पर जीविका समाप्त हो जाएगी। यह हमारे निर्माण क्षेत्र, विशेषकर लघु उद्योगों के लिए बहुत हानिकारक साबित होगा। हमारा निर्माण क्षेत्र अभी इन देशों के उद्योगों की तरह विकसित नहीं है। ऐसे में इनके साथ प्रतिस्पर्धा करने का अर्थ होगा अपने निर्माण उद्योगों को नष्ट करना।
पर्यावरणीय प्रभाव-वातावरण परिवर्तन:-
वायु प्रदूषण के कारण वातावरण परिवर्तन पहले से ही मानव जीवन के लिए खतरा बना हुआ है। तापमान बढ़ रहा है, समुद्रस्तर ऊंचा हो रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे है। जीवाश्म ईधन के बढ़ते प्रयोग को रोकना होगा। बदलते मौसम की समस्या का समाधान हमारा फेरीवाला, रेहड़ीवाला और किराना स्टोर वाला है। रिलायंस, भारती वालमार्ट मॉडल तो जीवाश्म ईधन के प्रयोग और कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देगा। सुपर मार्केट की लोरियों में ईधन की ज्यादा खपत ज्यादा प्रदूषण फैलाएगी। यदि हम दकियानूसी आंकड़ों को देखो तो सुपर मार्केट की लोरियां भारत में प्रतिवर्ष 70 लाख टन से भी ज्यादा कार्वन डाईऑक्साइड उत्पन्न करेंगी जिसमें भारत के परिवर्तनशील पर्यावरण की समस्याएं और ज्यादा बढ़ जाएंगी। ऐसे में जबकि पैट्रोलियम के बढ़ते इस्तेमाल से मात्रा में कमी हो रही है, ये लोरियां प्रतिवर्ष 1 बिलियन लीटर से भी ज्यादा पैट्रोलियम की खपत करेंगी।
वाहनों की भीड़ और ऊर्जा की खपत:-
(1) जब खरीददरारी एक जगह केन्द्रीकृत हो जाएगी, तो आदमी को हर एक दुकान पर वाहन से जाना पड़ेगा जिसके लिए ज्यादा ईधन की जरूरत तो पड़ेगी ही साथ ही सड़कों पर होगी वाहनों की भीड़
खाद्य पदार्थो में कटनाशकों और रसायनों का ज्यादा प्रयोग:-
बड़ी खुदरा व्यापार क कंपनियों का कृषि उत्पादों को खरीदने का अपना ही तरीका है। उनके मानक स्तर के अनुसार बिना कीटनाशकों का प्रयोग किए फल और सब्जियां उगाना किसानों के लिए मुश्किल है। उन्हे ज्यादा सज्यादा रसायनों और कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए मजबूर किया जाता है। खुदरा कंपनियों के पास एक बार सारा कृषि उत्पाद आने के बाद वे साल भर इसे बेचती रहती है। इसके लिए वे कोल्ड स्टोरेजों का इस्तेमाल करतहै लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत से संरक्षक रसायन खाद्यान्नों में मिलाए जाते है। इसलिए जब उपभोक्ता इस तरह की सब्जियां इन स्टोरों से खरीदते है, ब तक इसमें ऐसे विषैले तत्व पैदा हो जाते है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारहै।
डिब्बाबन्दी:-
खाद्य पदार्थो की डिब्बाबंदी के कारण पहले से ही प्रदूषित शहरों में और ज्यादा कचरा पैदा होगा। ऐसे समय में जब पूरा देश इस ठोस कचरे की समस्या का समाधान खोज रहा है, मॉल्स संस्कृति में डिब्बाबंदी के कारण बढ़ा हुआ कचरा और ज्यादा समस्याएं बढ़ा देगा। कचरा इकट्ठा करने के लिए पहले ही जमीन भर चुकी है। रिलायंस और वालमार्ट के कचरे को खपाने के लिए गरीब किसानों की और ज्यादा जमीन छीनी जाएगी
दुकानदारों और फेरीवालों पर कंपनी खुदरा व्यापारियों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए 'नवधान्य' ने दिल्ली में एक शोध किया है। इसके लिए हमने उन दुकानदारों और फेरवालों से बातचीत की जिनकी दुकानें रिलायंस स्टोर के 1 किमी के दायरे मेेंं थी।
शोध के मुख्य निष्कर्ष:-
(1) जब से रिलायंस स्टोर बना है तब से उस क्षेत्र के 88 फीसदी खुदरा व्यापारियों की बिक्री में कमी आई
(3) 66 फीसदी, 10 साल से भी ज्यादा समय से व्यवसाय कर रहे है, उनमें से कुछ 30 साल से भी ज्यादा समय से व्यवसाय में लगे है। उनके लिए किसी दूसरे व्यवसाय को शुरू करना और उसमें सफल होना बहुत कठिन है।
(4) 59 फीसदी उत्तरदाताओं का कहना था कि इस कमी के चलते उन्हे जल्दी ही अपना काम बन्द करना पड़ेगा और 27 फीसदी को तो भविष्य में बड़े घाटे की आशंका है।
(5) 96 फीसदी बिक्रेता अपने सामान की आपूर्ति मंडियों से करते है। रिलायंस से माल खरीदने वाले केवल 4 फीसदी बिक्रेता
(7) 586 फ़ीसदी खुदरा व्यपारी अपनी दुकानें 12 घंटों से भी ज्यादा समय तक खोलते है और कुछ 14घंटों से भी ज्यादा समय तक दुकाने खोलते है।
(8) लक्ष्मीनगर और पहाड़गंज इलाके के सब्जियों के बुत से छोटे रिटेलरों ने तो काम ही छोड़ दिया है, क्योंकि वे रिलायंस के साथ एक महीना भी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाए।
आइए अपने कारोबार, लोग और देश बचाने के लिए एकजुट हो जाएं:-
अब समय आ गया है, जब समाज के सभी वर्गो को परचूनी कारोबार में कंपनियों के हमे के खतरों को समझना है और इन राक्षसों से लड़ने के लिए एकजुट होना है। यह फेरीवालों, व्यापारियों, किसानों, उपभोक्ताओं, ट्रांसपोर्ट लाइन के लोगों यानी समाज के सभी वर्गो के लिए खतरनाक है। कंपनियों की चालबाजियों से सावधान हो जाइऐ! वे कभी किसी समाज का भला नहीं करती। उन्हे हर कीमत पर केवल और केवल अपना मुनाफा चाहिए। पश्चिम की तरह कहीं हमारे देश को भी इनके द्वारा किए गए विनाश की कीमत न चुकानी पड़े।
वालमार्ट, रिलायंस और टेस्कों जैसे बड़े खुदरा व्यापर रोजगार, समाज, पर्यावरण के विनाश के एजेंट है। किसानों और गलियों के बाजारों को बचाने और सुपर मार्केट की एकाधिकारी प्रवृति का विरोध करने के लिए विश्वव्यापी आंदोलन हो रहे है। जिस विविधता और विकेन्द्रकरण की पश्चिम को तलाश है वह भारत में पहले से मौजूद है। हमें अपनी ऐसी लघु खुदरा व्यवस्था को बचाना है। आइए, अपने परम्परागत परचूनी कारोबार पर हमले के खिलाफ आंदोलन में जुट जाएं और उन करोड़ों लोगों का साथ दे, जो इससे अपनी रोजी चलाते है। अपनी जीविका, अपने लोग, अपना देश बचाइए।
बड़ा हमेशा बदसूरत, शोषक और तानाशाह होता है, जबकि लघु सुन्दर, न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक है। न्यायपूर्ण सोचिए, लघु सोचिए- यही भविष्य है।
(नवधन्य और इंडियाज फुड वार के शोध पर आधारित)
2 comments:
The article is not visible on firefox. please change the tamplate or change the post alignment or remove justification.
I do agree with point of view of writer. The pump of big money in retail business is surely eat the profits of small retailers.
There are some voices against this, meanwhile, there is need to start a collective campaign to put pressure of Govt.
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