खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Sunday, April 27, 2008

मुसीबत का आलू

सुनील
कुछ दिनों पहले बंगाल के न्यू जलपाईगुड़ी स्टेषन से जलपाईगुड़ी शहर के लिए जाने वाला रास्ता पूरी तरह से बंद हो गया क्योंकि एक कोल्ड स्टोरेज (बांग्ला में हिमघर) के बाहर आलू के बोरों से भरे ट्रकों, टैक्टर-ट्रालियों और साईकिल रिक्षों की कतार लगी थी। अगले चार दिन तक जलपाईगुड़ी में यही नजारा रहा। खेतों में, सड़क किनारे और घरों में भी आलू के ढेर लगे थे।
उत्तर बंगाल में इस वर्ष आलू की अच्छी फसल हुई है। लेकिन किसानों के चेहरे पर रौनक नहीं, सिलवटें दिखाई दे रही हैं। मंडियों में आलू के भाव एकदम गिर गए हैं। किसानों को तीन रुप्ए से लेकर डेढ़ रुप्ए किलो तक के भाव आलू बेचना पड़ रहा है, जबकि उसकी लागत तीन-चार रुपए किला रही है। इसलिए किसान हिमघरों में आलू रखने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वहां भी जगह नहीं मिल रही है।
जलपाईगुड़ी जिले में चौबीस हिमघर हैं, जिनकी क्षमता से इस साल काफी ज्यादा आलू पैदा हुआ हैं। फिर आलू की खेती में कुछ बड़े शहरी व्यापारी आ गए हैं जो जमीन लीज पर लेकर बड़े पैमाने पर आलू की खेती करवाते हैं। उन्होंने अपना आलू हिमघरों में पहले ही रखवा लिया है। पश्चिम बंगाल सरकार ने घोषणा की है कि वह समर्थन मूल्य पर आलू खरीदेगी। लेकिन इस खरीदी का कहीं अता-पता नहीं है। शायद जब किसान औने-पौने दामों पर आलू बेच चुके होंगे, तब सरकार खरीदी शुरू करेगी जिसका फायदा व्यापारी उठाएंगें। देश में लगभग सभी फसलों के मामले में यही होता है।
विडंबना यह है कि जब फसल खराब होती है तब तो हमारे किसान रोते ही हैं, जब पैदावार अच्छी होती है तब भी वही घाटे में रहते हैं। तब बाजार फसलों के दाम एकदम गिरा देता है। पिछले कुछ वर्षों में आलू के अलावा, प्याज, लहसुन, टमाटर आदि अनेक फसलों के मामले में ऐसा देखा गया है। जबकि इसी वर्ष आलू के दाम सोलह-सत्रह +पए किलो तक पहुंच गए थे। जब उत्तर बंगाल के किसान का आलू डेढ़-दो रुपए किलो बिक रहा था तब भी देश के अन्य हिस्सों में यह सात-आठ रुपए किलो के भाव पर उपभोक्ताओं को मिल रहा था। यातायात के खर्च का हिसाब लगाएं तब भी इतना फर्क नहीं होना चाहिए।
जाहिर है, बाकी की कमाई बिचौलियों के हाथ लगती है। वास्तव में जो किसान मेहनत करता और आलू पैदा करता है, उसे अंतिम दाम का बहुत कम हिस्सा मिल रहा हैं बड़ा हिस्सा व्यापारी हड़प रहे हैं। यह बाजार की विफलता है। या कहें कि मुक्त बाजार का काम ही यही है - उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों का शोषण। आलू की खेती करने वालों की मदद करने में सरकार और बाजार दोनों विफल रहे हैं। मुक्त बाजार के हिमायतियों के लिए यह एक तमाचा हैं विडंबना यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 2008 को अंतरराष्ट्रीय आलू वर्ष घोषित किया है।
भारत में दक्षिण अमेरिका मूल के आलू की खेती काफी समय से हो रही है। इसकी खेती का मुख्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल आद प्रांत हैं, जहां की मिट्टी और जलवायु आलू की खेती के लिए उपयुक्त हैं। दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश से आलू के किसानों की आत्महत्या की खबरें आईं थीं। दरअसल, यह एक तरह की नगदी फसल है। इसमें रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों का काफी इस्तेमाल होता है, सिंचाई भी करनी पड़ती है। जूट आदि की खेती में नुकसान होने पर उत्तर बंगाल के किसान आलू, टमाटर जैसी फसलों की ओर आकर्षित हुए। लेकिन इससे भी उनकी मुसीबत दूर नहीं हुई।
आलू को औने-पौने दामों पर बेचने से किसानों को बचाने का एक तरीका यह है कि आलू जैसी फसलों पर आधारित छोटे-छोटे उद्योग खोले जाएं। उदाहरण के तौरा पर आलू के चिप्स, टमाटर की सॉस, अन्नास का रस आदि। वर्तमान में उत्तर बंगाल में इस तरह के उद्योगों का नितांत अभाव है। दूसरी ओर, अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनमें भारी मुनाफा कमा रही हैं। आलू के बेवर्स का दस ग्राम का एक पैकेट वे दस रुपए में बेचती हैं। यानी एक हजार रुपए किलो। इससे बड़ी लूट और क्या होगी?
दूसरा तरीका यह है कि ज्यादा हिमघर खोले जाएं, जिनमें किसान अपनी फसल सुरक्षित रख सकें। ये हिमघर पूंजीपतियों के बजाय स्वयं किसानों की सहकारी समितियों के हो सकते हैं। ये समितियां ही छोटे-छोटे फसल आधारित उद्योगों को चला सकती हैं। तीसरा तरीका यह है कि आलू की जैविक खेती के तरीकों को विकसित, प्रचारित, प्रसारित किया जाए। इससे आलू की खेती की लागत कम और गुणवत्ता बेहतर होगी।
चौथी बात यह है कि सरकार की मौजूदा किसान विरोधी, कंपनीपरस्त, बाजारीवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष तेज करना होगा। कुल मिलाकर उत्तर बंगाल के किसानों के लिए संघर्ष और निर्माण न सिर्फ एक चुनौती, बल्कि एक अवसर भी है।

सुनील
केसला, होशंगाबाद
मो 094250 40452

1 comment:

Anonymous said...

सुनील का लेख प्रसारित करने के लिए शुक्रिया ।