खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Monday, November 10, 2008

खेती की समस्याएँ

जब हम खेती की समस्याओं की बात करते हैं तो हमें दो तरह से देखना होगा। एक वे समस्याएँ जो तात्कालिक होती है और प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। जैसे बीज, खाद, पानी, डीजल, बिजली, कीटनाशक और उत्पादन की पर्याप्त कीमत न मिलने से संबंधित समस्याएँ। प्रत्यक्ष समस्याएं राजनैतिक असर भी डालती हैं। वे चुनाव का मुद्दा भी बनती हैं। दूसरी वे समस्याएँ हैं जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती पर जिनके भावी असर होते हैं। जैसे गलत नीतिगत फैसले, जमीन की उर्वरा शक्ति का नष्ट होना आदि।

यदि हम प्रत्यक्ष समस्याओं की बात करें तो आमतौर पर इन्हें पूरे मध्य प्रदेश में रबी एवं खरीफ दोनों सीजन में देखी जा सकती हैं। खाद, बीज और पानी की समस्याएँ तो कई बार हिंसक रूप भी ले लेती है। गौरतलब है कि तथाकथित हाईब्रिड बीजों में खूब खाद और कीटनाशकों की जरूरत होती है। यही नहीं हर साल इनमें खाद और कीटनाशकों की मात्रा में बढ़ोत्तरी भी करनी पड़ती है। समय पर नहीं मिलने के कारण किसानों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। चूंकि हमारे यहां सब्सिडी सीधे किसानों का न दी जाकर कंपनियों को मिलती है इससे समस्याएं और विकराल रूप ले लेती हैं।

मध्य प्रदेश के कई इलाके तो ऐसे है जहां खाद कीटनाशकों की मात्रा में बढ़ोत्तरी के बाद भी उत्पादन में ठहराव आ गया है और अब किसानों को मजबूरी में फसल चक्र में बदलाव के बारे में सोचना पड़ रहा है जैसे होशंगाबाद जिले में कुछ साल पहले तक खरीफ के सीजन में सोयाबीन का उत्पादन खूब होता था लेकिन उत्पादन में ठहराव और लागत के बढ़ने के कारण किसानों को वैकल्पिक रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं। कई गांवों ऐसे हैं जहां सोयाबीन की खेती बन्द कर दी गई है और किसान अब उसकी जगह धान की खेती कर रहे हैं। सरकार इस बात से वाकिफ है कि उत्पादन लागत बढ़ रही है फिर भी समर्थन मूल्य उत्पादन लागत से कम रखा जाता है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण जब उत्पादन लागत का विश्लेषण करता है तो इसमें भी ये अधिक लागत स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

हरित क्रांति के बाद फसल चक्र में बड़े बदलाव हुए हैं इसके फायदे के साथ ही नुकसान भी हुए हैं। अब आमतौर पर रबी और खरीफ में एकल फसल प्रणाली आ गई है। मसलन जहां रबी में गेहूं ने बाकी फसल चना आदि का क्षेत्र कम कर दिया है वहीं सोयाबीन ने भी धान या दालों की खेती को प्रभावित किया है। इसका परिणाम आर्थिक रूप से भलेही दिखता हो लेकिन उसके बावजूद भी स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ा है। नगदी फसलों ने घरेलू खाद्यान्न का संकट पैदा किया है।

जब हम अप्रत्यक्ष समस्याओं को देखते हैं तो असल में ये असली समस्याएं है और इनके कारण ही प्रत्यक्ष समस्याएं पैदा होती हैं। सरकार के नीतिगत फैसले इस श्रेणी में आते हैं। जैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का खेती में प्रवेश कई तरह के भावी खतरे पैदा करने वाला फैसला है। मण्डी को खत्म करने की योजना बनाई जा रही है। मध्यप्रदेश में पिछले सालों में एपीएमसी कानून में किए गए बदलाव खेती को निश्चित रूप से प्रभावित करेंगे।एपीएमसी एक्ट में किए गए बदलाव के कारण निजी कम्पनियों को मण्डी के बाहर खरीदी का रास्ता साफ हुआ है। तीन साल पहले तक मण्डी एक्ट की धारा 36 के अनुसार कोई भी व्यक्ति मण्डी के बाहर खरीदी नहीं कर सकता था लेकिन अब इसकी जगह एक नई धारा 36 (1) लाई गई है। यह मण्डी से बाहर खरीदी की इजाजत देती है। धारा 37 में बदलाव करके नई धारा जोड़ी गई है 37(ए) । यह संविदा खेती की इजाजत देती है। गौरतलब है कि एग्री बिजनेस मीट में मध्यप्रदेश सरकार संविदा खेती के कई प्रस्तावों पर सरकार हस्ताक्षर कर चुकी है। धारा 32, के अंतर्गत अलग अलग इलाकों में खरीदी के लिए अलग अलग लाइसेंस की जरूरत होती थी। अब इसकी जगह धारा 32 ए लाई गई है जो एक ही लाईसेंस के जरिए पूरे प्रदेश में खरीदी करने की इजाजत देती है। ये सब ऐसे फैसले हैं जो कि खेती पर खतरे का इशारा करते हैं।

नई कृषि नीति का परिणाम है कि जहां मध्यम किसान कर्ज के बोझ में दबकर आत्महत्याएं कर रहा है, वहीं छोटे व गरीब किसान अपनी जमीन बेचने पर मजबूर हो रहा है। खेत मजदूरों की बढ़ती जनसंख्या से इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। वर्ष 1981 में ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि मजदूरों की संख्या 25 प्रतिषत थी, जबकि 2002 में यह संख्या बढ़कर 40 प्रतिषत हो गयी है। यानि कि 21 वर्षों में 15 प्रतिषत गरीब किसानों को अपनी जमीन से हाथ धोकर खेत मजदूरों की कतार में षामिल होने पर मजबूर होना पड़ा है। जबकि खेत मजदूर पहले से ही उदारीकरण की सबसे अधिक मार झेल रहे हैं। 1981 में इन्हें वर्ष में 123 दिन काम मिलता था, जबकि 2002 में इन्हें मात्र 60 दिन ही काम मिल पाता है। कार्य दिवसों की घटती संख्या तथा खेत मजदूरों की बढ़ती संख्या से खेत मजदूरों की मजदूरी पर विपरीत असर पड़ा है।

सरकार चाह रही हैं कि बड़ी-बड़ी देषी-विदेषी कंपनियां खेती करें। पंजाब से षुरू होकर गंगा पट्टी में 1990 से लगातार दो प्रतिषत उत्पादकता प्रतिवर्ष कम होती चली गई है। इससे रोज़गार के अवसरों जो 1994 तक 0.70 प्रतिषत था, अब 2000 में कम होकर 0.01 प्रतिषत रह गया। इसका मतलब है कि ज्यादातर काम बिना मजदूर के ही होने लगे हैं। भारत के कुल सकल उत्पाद का पचास प्रतिषत हिस्सा कृषि से 1950 में होता था. अब वह घटकर 22 प्रतिषत हो गया है। लेकिन उस पर निर्भर आबादी की तादात् में कोई भी कमी नहीं आई है। देश में क़रीब 37.7 प्रतिशत खेत 0.4 हेक्टेयर से भी छोटे आकार के हैं। 28.4 प्रतिश खेत 0.4 से 1.0 हेक्टेयर के बीच के क्षेत्रफल के हैं, एक से 2 हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले खेतों की संख्या 18.9 है। मात्र 15 खेत ही 2 हेक्टेयर से अधिक के क्षेत्रफल के हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो 85 किसान छोटे किसान देश में हैं लेकिन सारी नीतियां बड़े किसानोें के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाई जाती हैं। इससे खेती पर एक बड़ा संकट पैदा हो रहा है।

यदि हम खेती को खतरे से बचाने के बारे में सोचते हैं तो उपरोक्त समस्याओं पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है।

शिवनारायण गौर


पिछले दिनों मेरे एक मित्र आशीष कुमार अंशु रिपोर्टिंग के लिए भोपाल आए थे। वे दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका सोपान स्टेप के साथ काम करते हैं। उनके लिए मैंने उपरोक्त लेख लिखा था। सोपान स्टेप के इसी माह के अंक में ये छपा है। यह एक सामान्य लेख है पर बहस की काफी गुन्जाएश इसमे है। उम्मीद है आप आगे बढायेंगे। खेत खलियान की ओर से शिवनारायण गौर

2 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

सोपान स्टेप के इसी माह के अंक में ये छपा है। यह एक सामान्य लेख है पर बहस की काफी गुन्जाएश इसमे है। उम्मीद है आप आगे बढायेंगे।

BEHATARIN...

AAPAKE KHET KHAAALIHAN ABHIYAAN KO SHUBHAKAMANA.

आशीष कुमार 'अंशु' said...

सोपान स्टेप के इसी माह के अंक में ये छपा है। यह एक सामान्य लेख है पर बहस की काफी गुन्जाएश इसमे है। उम्मीद है आप आगे बढायेंगे।

BEHATARIN...

AAPAKE KHET KHAAALIHAN ABHIYAAN KO SHUBHAKAMANA.