खेत-खलियान पर आपका स्‍वागत है - शिवनारायण गौर, भोपाल, मध्‍यप्रदेश e-mail: shivnarayangour@gmail.com

Monday, December 3, 2007

सब्सिडी का हौवा और सच्चाई

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसौदे की मंजूरी अब कोई बड़ी खबर नहीं बनाई जाती है। योजना आयोग के प्रमुख प्रधानमंत्री अपनी शुरूआती बात में अनेक मुद्दे उठाते हैं। परंतु हमारा अंधानुगामी मीडिया कुछ ऐसे मुद्दों को उठाता है, जो योजना लिए निश्चित रूप से गौण और प्रक्रिया के असामाजिक, यथास्थितिवादी स्वरूप के नतीजे हैं। इसमें कोई संशय नहीं कि भारत के सरकारी खर्च में सब्सिडी की मद का वजन लगातार बढ़़ रहा है। परंतु योजना की विकास नीति, उसके निवेश आकार, निवेश प्राथमिकताओं और आबंटन के मुकाबले सब्सिडी का मसला खास बिसात नहीं रखता। कुछ तो सरकारी विज्ञप्ति और कुछ वित्ताीय र्आिथक गुलामी कागजों वाले अखबारों के असर के चलते प्रधानमंत्री के भाषण के सब्सिडी वाले अंश प्रमुखता से रेखांकित किया गया। वैसे यह भी सच है कि अब योजना का महत्व कुछ वित्ताीय आबंटनों तक ही सिमट गया है। नीतियों का खाका तो बाजारवाद से उधार ले लिया गया है। योजना आयोग की इस मीटिंग में भी लगता यह है कि ‘विकास’ नीति को जस की तस रखने प्रतिबद्धता के चलते अब योजना का वित्ता-पोषण ही खासमखास मुद्दा बन जाते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा सब्सिडी की मात्रा स्वरूप में विभिन्न मदों में बंटवारे तक इस विशाल राशि के संभावित नतीजों का बखान भी योजना के मूल रूप के सार्वजनिक वित्त से जुड़े सवालों में उलझ जाने का ठोस प्रभाव नजर आता है।इस बार योजना में ‘विकास’ नीति का केंद्र बिंदू फिर से राष्ट्रीय आय की बढ़त दर को ही रखा गया है। नतीजतन इस उद्देश्य के लिए निवेश दर और निजी क्षेत्र के नेतृत्व को स्वीकारने के बावजूद सार्वजनिक निवेश तथा खर्च को नीतिगत विकल्पों का केंद्र बिंदू बनाया गया है। देश की सारी मुश्किलें खासकर आम आदमी की मुश्किलातें लगातार बनी हुई और अब कुछ गुणात्मक नये रूप ग्रहण कर रही हैं। दस की घनीभूत असफलताएं और चंद महंगी तथा आंशिक उपलब्धियां अब नये सोच की मोहताज हैं। कुछ कार्यक्रमों, क्षेत्रों, प्रदेशों आदि के लिए किए गए वित्तीय आबंटनों को कुछ घटाया-बढ़ाया जा रहा है। इस तरह यथावत विघमान ढांचे में, 21 सदी के भारत के 84 करोड़ से ज्यादा मानवीय जीवन स्तर से वंचित लोगों के विकास-प्राप्ति के मूलमंत्र मानवीय-संवैधानिक अधिकारों के प्रति ईमानदार नहीं किया जा सकता है। परंतु योजनाकार अपनी घिसी-पिटी ‘सुधारवादी’ नीतियों के जाल से मुक्त होने को तैयार नहीं है। सबसिडी के मुद्दे को इतनी प्रमुखता देना और एक खास रूप में पेश करना धनी देशों और धनी भारीयों के प्रति सर्मिपत नीतियों का ही एक नतीजा है।सबसिडी के सवाल की व्यापक पृष्ठभूमि के चंद पक्षों पर नजर डालें। आगत योजना में 9 प्रतिशत से ज्यादा बढ़त हासिल करके, इस बढ़ी राष्ट्रीय आय के बूते पर लगातार विकराल, विशाल और जटिल होती जन समस्याओं को हल्का करने की कवायद की जा रही है। अत: पिछली योजना से लगभग दोगुना सार्वजनिक खर्च यानी करीब 14 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का प्रस्ताव हुआ है। इसमें पहले से ज्यादा राशि अनुपात उच्च शिक्षा, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय आदि के लिए खर्च करने और लगभग 80 लाख रोजगार के अवसर बढ़ाने की तजवीज प्रस्तावित है। अब तक बढ़त दर जिसे भ्रमवश या भ्रम फैलाने के लिए ‘विकास दर’ भी कहा जाता है, के द्वारा आम आदमी की गहराती गरीबी, फैलती बेरोजगारी और असहनीय होती असमानताओं के अतिरिक्त कुछ नहीं मिल पाया है। परंतु फिर भी योजनाकार इस सच्चाई से विमुख सोच व कारक से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। सब्सिडी का सवाल भी इसी ढ़ाचे में रखा गया है। परंतु इस बार इसमें एक साफगोई या सपाटबयानी का अंश उल्लेखनीय है। प्रधानमंत्री दो टूक शब्दों में कहते हैं कि इस बार विकास का फोकस बिना उघम तथा आर्थिक वृद्धि के प्रतिबद्धता में कोई कमी किए बिना, उसकी बलि चढ़ाए बिना सीमांत तबकों और प्रदेशों पर रखा गया है। सीधा अर्थ है बचत, निवेश, पूंजी संग्रहण तथा प्रबंधन में सक्षम धनी लोगों और कंपनियों के प्रति योजनाएं अपनी प्रतिबद्धता कम करके आर्थिक बढा़ेतरी की राह के पहिये को जाम नहीं करना चाहती है। इस यथास्थिति योजना के साथ–साथ जितना संभव हो सामाजिक–आर्थिक प्रक्रियाओं के हाशिये पर इंतजाररत लोगों पर भी योजना का फोकस रहेगा। शेर और बकरी को एक साथ योजना के घाट पर पानी परोसा जाता रहेगा। सीधा अर्थ है योजना नीतियों और निवेश द्वारा आर्थिक असमानताओं को बढ़ाने के सिलसिले पर कोई विराम नहीं लगने वाला है।ज्यादातर सब्सिडी देने की जरूरत तथा मजबूरी बाजार प्रक्रिया से निष्कासित अथवा अक्षम लोगों के खामियाजे में कुछ कमी लाना होता है। अनाज पर सब्सिडी का घोषित मकसद अनाज खरीदने में असमर्थ लोगों को आंशिक रूप से खरीदने में समर्थ बनाना होता है। खाद सब्सिडी इसी तरह खाइ नहीं इस्तेमाल कर सकने वालों को इस दिशा में प्रेरित करना है। परंतु पेट्रोल पदार्थों को लागत से कम दाम पर बेचने का मामला जटिल है। पेट्रोल पदार्थ अनेक वस्तुओं के लागत मोल को प्रभावित करते हैं। परंतु सीधे तथा अप्रत्यक्ष रूप से पेट्रोल पदार्थों का बड़ा भाग धनी लोगों के काम आता है। निजी वाहन मालिक धनी तबका इनका बड़ा भाग पाता है। कुछ अंशों तक किरोसिन शहरी गरीबों की खास जरूरत है, परंतु सरकारी खाते में जिस राशि को पेट्रोल पदार्थ सब्सिडी कहते हैं वह एकतरफा भ्रामक कहानी है। पेट्रोल पदार्थों के आयात पर सीमा शुल्क के रूप में मोटी रकम वसूली जाती है। देश में इन पदार्थों के दत्पादन पर भारी आबकारी वसूली जाती है। इनकी बिक्री पर वैट या बिक्री कर वसूला जाता है। इस तरह पेट्रोल आदि से प्राप्त राजस्व के मुकाबले लागत मोल से कम पर बिक्री का खर्च कम पड़ता है। अत: सही मायने में पेट्रोलियम पदार्थों पर कोई सब्सिडी नियत रूप में नहीं दी जाती है।खाघ तथा खाद सब्सिडी देने की मजबूरी इसलिए पैदा होती है कि 60 साल के प्रयासों कह दिशाहीनता और प्रभावशून्यता के कारण अधिकांश परिवार तथा किसान आज भी बाजार भावों पर अनाज तथा उर्वरक खरीदने में सक्षम नहीं हो पाए हैं। ये दो सब्सिडी एक तरह से इस विफलता का आंशिक प्रायश्चित है। यदि हैजे, पेचिश, मलेरिया तथा अन्य संक्रामक रोगों की रोकथाम नहीं कर पाते हैं तो आपको इनके इलाज का बंदोबस्त करना होगा और कुछ खर्च उठाना होगा। इस खर्च की राशि आपकी इस दिशा में हुई असफलता का पैमाना है। अत: इस खर्च पर जो अभी भी वांछित लोगों को पूरा और पर्याप्त नहीं मिल पाता है, आठ–आठ आंसू बहाना बेमानी है। बीमारी से मुक्ति के प्रयासों में सफल होकर ही इलाज और तीमारदारी के खर्च से बचा जा सकता है। जब यह कहा जाता है कि इस सब्सिडी खर्च के कारण सरकार बहादुर को दूसरे जरूरी कामों से हाथ खींचना होता है तो देखने योग्य बात होती है कि कटौती की कैंची किन मदों पर चलती है। प्रधानमंत्री ने इस मोटे खर्च का असर कम सड़कें, कम अस्पतालें, कम छात्रवृतियों तथा खेती व अन्य आधारभूत सेवाओं पर कम निवेश के रूप में चिन्हित किया है। सरकारी बजअ से वाकिफ लोग यह जानते हैं कि हमारे सर्वाधिक धनी क्षेत्रक यानी कंपनियों को अनेक करों से छूट और रियायतें प्रोत्साहन हेतु दी जाती हैं। इन रियायतों पर खर्च अब दो लाख करोड़ रूपए से उपर यानी सारी सब्सिडी के दुगुने से भी ज्यादा है। इन सब्सिडी से कौन से और कितने लाभ हासिल होते हैं इनका कभी जायजा तक नहीं लिया जाता है। परंतु कंपनी क्षेत्र के अकूत मुनाफे में इस तरह के कर छूटों द्वारा दिए गए प्रोत्साहन का सीधा धनात्मक असर होता है। चंद लाख लोगों के हाथों में बढ़ते मुनाफे पहुंचाने वाले सरकारी खर्च पर सब्सिडी बिल का कोई असर नहीं होता है। निजी पहल, सर्जनातमकता तथा उघम पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले किसी कदम द्वारा आम आदमी को लाभान्वित करना योजनाकारों की डंके की चोट पर घोषित नीति के खिलाफ है। जाहिर है सब्सिडी का हौवा खडा़ किया जाता है, आम आदमी को वंचित और दलित बनाए रखने की नीतियों का एक लचर आधार बनाने के लिए।

2 comments:

अनिल रघुराज said...

एक ही पैराग्राफ में सारा लेख। पढ़ने में दिक्कत होती है। 7-8 लाइनों पर पैरा बना दें तो सभी को आसानी हो जाएगी। विषय अच्छा है।

ढाईआखर said...

अच्‍छा है। ऐसे विषयों के बारे में मुख्‍यधारा के मीडिया ने बात करना ही कम कर दिया है। उम्‍मीद है आपका ब्‍लॉग खेती किसानी से जुड़े सरकारों से रू ब रू कराने में कामयाब होगा।